कवि धूमिल की अंतिम कविता – लोहे का स्वाद– एक तरह से करोड़ों शोषितों की चुप्पी को जुबान देती है। प्रियदर्शन की फिल्म कांजीवरम एक सामंजस्य स्थापित करती है उस कविता से।
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो।क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।लोहे का स्वाद लुहार से नहीं
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
किसी भी उत्पाद का अंतिम उपभोक्ता कभी नहीं जान पाता कि उस उत्पाद को इस रुप में लाने के लिये किसे कैसे कैसे पापड़ बेलने पड़े हैं। खाने वाले को किसान का खून पसीना एक करना नहीं याद आता। गरीब और विकासशील देशों में अक्सर ऐसा होता है कि हाथ से मेहनत करके किसी चीज को जन्माने वाले उसी चीज को उसके बाजार में ज्यादा मूल्य होने के कारण अपने लिये नहीं खरीद पाते। कीमती उत्पादों के साथ तो यह बहुत ज्यादा होता है।
सिल्क की साड़ी या अन्य कपड़े भी ऐसे ही उत्पादों में आते हैं जिन्हे उन्हे बुनने वाले कारीगर जीवन भर नहीं खरीद पाते।
पिछली सदी के चालीस के दशक का काल दिखाती हुयी कांजीवरम में एक ऐसे ही गरीब रेशमी कांजीवरम साड़ी बुनने वाले कारीगर वेंकादम (प्रकाश राज) की लहुलुहान ज़िंदगी की दास्तान दिखायी गयी है।
गरीबी अभिशाप है और यह बात वेंकादम की ज़िन्दगी से स्वत: सिद्ध हो जाती है।
किसी के भी जीवन में दुख एक सिरा पकड़ कर आता है जैसे धरती के गर्भ से कोई पौधा निकल कर ऊपर आ जाये और जिस कारण से दुख उत्पन्न हुआ है अगर वह कारण जीवन में बना रहे तो यह पौधा शीघ्र ही एक वृक्ष का रुप ले लेता है और आदमी के दिलो दिमाग पर और उसके सारे जीवन पर इसकी छाया पड़ने लगती है। वेंकादम ने कभी, जब उसके हौसले बुलंद रहे होंगे, गाँव वालों के सामने कहा था कि जब वह शादी करेगा तो अपनी पत्नी को सिल्क/ कांजीवरम की साड़ी पहना कर घर लायेगा।
पर एक गरीब कारीगर के लिये ऐसे सपने का साकार होना दुश्कर ही है। उसकी नव-विवाहिता पत्नी सूती धोती में उसके घर में प्रवेश करती है और गाँव के कुछ लोग वेंकादम को उसके बड़े बोल की याद दिलाकर थोड़ा चिढ़ाते हैं।
वेंकादम के ह्र्दय में सिल्क के प्रति पनप रहे मोह को दूसरा सहारा मिलता है तब जब उसके पिता की मृत्यु होती है और उसके पास पिता के मृत शरीर को ढ़कने के लिये उतना लम्बा सिल्क का कपड़ा नहीं है। उसके पास सिल्क के केवल इतने धागे हैं जिससे कि उसके पिता के पैर के अँगूठे आपस में बाँधे जा सकें।
पहली बार वेंकादम के अंदर से रोष फूट कर बाहर आता है और दुखी होकर वह कहता है कि कैसी विडम्बना है कि जो कारीगर सारी ज़िन्दगी रेशमी साड़ी बनाता रहा उसके मृत शरीर को रेशम का एक टुकड़ा भी नसीब नहीं हुआ। अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के खिलाफ यह उसकी पहली बगावत है।
ज़िन्दगी को तो बहते जाना होता है। शीघ्र ही वेंकादम की पत्नी एक कन्या को जन्म देती है। रीतिनुसार पिता को नवजात शिशु को कुछ देने का वादा करना है और वेंकादम के अंदर से वादे के रुप में उदगार फूट पड़ते हैं कि वह अपनी बेटी के विवाह के समय उसकी विदाई उसे रेशमी साड़ी पहना कर करेगा। गाँव वाले उसे टोकते हैं कि कैसे वह ऐसा वादा निभा पायेगा और वह झूठा साबित होगा।
उसकी पत्नी तो अपने विवाह के समय ही देख चुकी है कि वेंकादम अपना वादा पूरा नहीं कर पाया था अतः वह उसे टोकती है कि उसे झूठे वादे नहीं करने चाहिये। वेंकादम उसे अपनी जमा-पूंजी दिखाता है और कहता है कि उसकी अपनी शादी के समय वह थोड़ा चूक गया परंतु अपनी बिटिया की शादी के समय तक वह सिल्क की साड़ी खरीदने लायक धन जमा कर लेगा।
पर गरीब आदमी अपनी थोड़ी सी जमा-पूँजी को लेकर इतनी लम्बी योजनायें बना ले ऐसा गरीबी कभी बर्दाश्त नहीं करती। गरीब भी तो सामाजिक प्राणी है और उसका भी परिवार होता है, परिवार की वंशबेल से उसका भी नाता होता है। उसकी भी अपने तौर पर ही सही एक सामाजिक सम्मान की हैसियत होती है जिसे वह सुरक्षित रखना चाहता है। जब वेंकादम का बहनोई उसके दरवाजे पर उसकी बहन को छोड़ने लगता है कि व्यापार के चौपट हो जाने से उत्पन्न गरीबी से वह उसकी बहन को साथ रखने में असमर्थ है तो गरीब स्वप्नदर्शी वेंकादम को अपनी बहन के वैवाहिक जीवन के हितों की खातिर अपनी जमा-पूँजी बहन के पति को सौंपनी पड़ती है।
वेंकादम के हौंसले अभी भी जिंदा हैं और वह सोचता है कि कैसी भी वह अपनी पुत्री के विवाह तक सिल्क की साड़ी का इंतजाम कर ही लेगा।
व्यक्तिगत जीवन में वेंकादम को और दुख देखने हैं अतः मेले में मची भगदड़ में घायल होने के बाद उसकी पत्नी की मृत्यु हो जाती है और वेंकादम अकेले ही अपनी पुत्री को बड़ा करता है।
गरीबी एक अच्छे आदमी को भी वैसा करने पर मजबूर कर देती है जिसके लिये उसका अंतर्मन समर्थन प्रदान नहीं करता। अपनी संतान के लिये क्या कुछ करने के लिये मनुष्य तैयार नहीं हो जाता?
अपनी बेटी के लिये रेशमी साड़ी बनाने के लिये वेंकादम रेशमी साड़ी का व्यापार करने वाले बड़े सेठ के यहाँ से काम खत्म होने के बाद रेशम चुराकर लाने लगता है ताकि वह एक रेशमी साड़ी बुन सके।
वेंकादम का सिर्फ व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन ही जटिलताओं से भरा हुआ नहीं है बल्कि उसके व्यवसायिक जीवन की जटिलतायें और भी गहरी हैं। वह और उसके जैसे कारीगर बहुत मेहनत करके सिल्क की साड़ियाँ बुनते हैं पर उनका मालिक उन्हे थोड़े से रुपये देकर साड़ी लेता है और उन्हे ऊँचे दामों पर बेचकर बड़ा मुनाफा कमाता है। वह जम कर अपने श्रमिकों का शोषण करता है।
गरीब अकेले शोषण का मुकाबला नहीं कर सकता। उन्हे एकजुट होना ही पड़ता है अपने लिये कुछ मूलभूत अधिकार पाने के लिये। उधर रुस में क्रांति करने के बाद कम्यूनिज़्म संसार भर में जगह जगह जड़ें जगाने की कोशिश में है।
एक कामरेड काँचीपुरम में भी आता है और वेंकादम उसके प्रति आकर्षित हो जाता है। उसके अंदर अपनी गरीबी, अपने शोषण और अपने जीवन के प्रति रोष तो पहले से ही है और वह अपने रोष को अभिव्यक्ति देना सीख जाता है। दूसरे कारीगर उसे अपना नेता मान लेते हैं।
हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
जैसे जुमलों ने दुनिया भर में श्रमिकों को बल प्रदान किया है। शुरु में सामुहिक रुप से संघर्ष करके सबके लिये कुछ पाने की चाह बड़ी बलवती होती है और वेंकादम और उसके साथी सिल्क की साड़ियों के व्यापारी के खिलाफ संघर्ष शुरु कर देते हैं।
फिल्म दिखाती है कि कैसे एक अंग्रेज ग्राहक वेंकादम को एक कलाकार समझ कर उससे हाथ मिलाकर उसे सम्मान देता है जबकि भारतीय मालिक वेंकादम और उसके साथियों को घृणा की दृष्टि से देखता है।
ऐसे ही शोषण को मद्देनज़र रखते हुये कभी युवा क्रांतिकारी भगत सिंह नें कहा था कि अंग्रेजों से तो आजादी की बात सही है परंतु देश के गरीब किसान और मजदूरों को तो इन भूरे और काले शोषकों से भी आजादी चाहिये और इतिहास ने दिखा दिया है कि उस किस्म की आजादी आज भी नहीं मिल पायी है।
शासक और शोषकों के केवल रंग ही बदले हैं उनकी प्रकृति नहीं।
बहरहाल सच यह भी है कि किसी भी तबके की बात करें वह अपने से नीचे वाले तबके का शोषण करने से चूकता नहीं है।
फिल्म बहुत बारीकी से एक बात और दिखाती है कि व्यक्तिगत हितों के लिये नेता अपने साथियों के हितों की बलि चढ़ाने से नहीं चुकता। वेंकादम शुरुआत तो अपने सब साथियों के हितों के लिये करता है पर अपनी बेटी के लिये एक सिल्क की साड़ी का इंतजाम करने का उसका व्यक्तिगत संकल्प उसे भ्रष्ट बना देता है और वह अपने उन साथियों से दगा कर जाता है जो उसकी बातों को आँखें बंद करके मानने लगते हैं और महीनों लम्बे संघर्ष में अपने जीवन को झौंक देते हैं। वेंकादम को सिल्क चाहिये और इस लालच में वह एक नेता के रुप में कमायी हुयी साख को दाँव पर लगा देता है।
चाहे पूँजीवाद हो, समाजवाद हो या साम्यवाद, जब भी किसी एक य कुछ व्यक्तियों के हाथ में सता आ जाती है तो आदर्श नेतृत्व की बात बेमानी हो जाती हैं और कहीं न कहीं से आकर सत्ता में भ्रष्टाचार आ ही जाता है। आदमी अपनी व्यक्तिगत कमजोरियों से ऊपर उठे बिना आदर्श नेट्रुत्व नहीं दे सकता फिर मामला चाहे साधु-संतो द्वारा नियंत्रित धार्मिक संस्थानों का ही क्यों न हो। अगर लोग चेतन नहीं हैं और विवेक का सहारा नहीं लेते तो नेता तो उन्हे मूर्ख बनायेंगे ही बनायेंगे। एक समय तक आदर्शवाद की ऊर्जा व्यक्ति को संचालित करती है परंतु कुछ समय बाद यह ऊर्जा चूकने लगती है और कभी परिवार के दबाव और कभी अपने मोह के कारण आदमी कमजोर पड़ जाता है और सत्ता हाथ में होने के कारण उसे यह डर भी नहीं रहता कि कोई कुछ जान सकता है उसके भ्रष्टाचार के बारे में।
पर वेंकादम अभी उस स्तर पर नहीं पहुँचा था और उसके कर्म उसे मुसीबत में डाल देते हैं। सिल्क का व्यापारी तो उससे खार खाये बैठा ही था। उसे मौका मिल जाता है वेंकादम और उसके साथियों से बदला लेने का और वेंकादम सिल्क चोरी के जुर्म में जेल पहुँच जाता है। परेशानियाँ अपना आखिरी वार वेंकादम और उसकी ज़िन्दगी पर करती हैं और सब कुछ तबाह हो जाता है।
दुर्घटना में लकवाग्रस्त बेटी को देखने के लिये पैरोल पर छोड़े गये वेंकादम की जेल से घर तक की यात्रा से फिल्म शुरु होती है और फ्लैशबैक के जरिये वेंकादमकी स्मृतियों के सहारे दर्शक उसकी बीती ज़िन्दगी देख पाते हैं।
एक तरह से अनाथ हो चुकी उसकी लकवाग्रस्त बेटी कैसे अकेले जी पायेगी? यह यक्ष प्रश्न वेंकादम को प्रकृति से दूसरी बगावत करने का दुस्साहस देता है।
घर के बाहर दालान में पड़े बेटी के मृत शरीर को अपने द्वारा बुनी सिल्क की साड़ी, जो अभी तक आधी ही बुनी गयी थी, से ढ़कने का प्रयास करते वेंकादम की बैचेनी में हद दर्जे की विवशता छुपी है। सिर ढ़कता है तो पैर उघड़ जाते हैं और साड़ी को बेटी के पैरों पर खींचता है तो उसका मुँह उघड़ कर उसे चिढ़ाने लगता है।
कँधे पर सिपाही के हाथ का स्पर्श पाकर वेंकादम सिर उठाकर उसकी ओर देखता है और हँसता है!
यह हँसी क्या विद्रूपता से भरी है?
क्या वह विधाता से रुष्ट व्यक्ति की हँसी है?
या एक विवश बाप जो एक टूटा हुआ इंसान है, यह उसकी लाचारी से भरी हँसी है?
इस हँसी को ही अलग-अलग दर्शकों को अपने स्तर पर डी-कोड करना है।
वेंकादम के जरिये एक व्यक्ति के कई रुप फिल्म दिखाती है और प्रभावी ढ़ंग से दिखाती है। वेंकादम के मानवीय रिश्ते, जिसमें उसके पिता, पत्नी, बेटी और मित्र से रिश्ते शामिल हैं, बड़ी रोचकता से मानव मनोविज्ञान और व्यवहार को दर्शाते हैं।
हिन्दी फिल्मों के द्वारा प्रियदर्शन को जानने वाले दर्शक उनकी इस तमिल फिल्म को देखकर प्रियदर्शन से नाराज होंगे क्योंकि हिन्दी में वह लगभग हर महीने सिनेमा की इमारत के बाहर बने कूड़ेदान में फेंकने लायक फिल्में बनाकर रिलीज कर रहे हैं।
हिन्दी फिल्मों का दर्शक खीजेगा प्रियदर्शन के ऊपर यह सोचकर कि क्या प्रियदर्शन ने उसे मूर्ख समझा हुआ है जो बकवास फिल्में तो वे हिन्दी में बनाते हैं और जो थोड़ी बहुत प्रायोगिक और प्रासंगिक अच्छी फिल्में वे बनाते हैं वे क्षेत्रीय भाषा में।
कुछ सम्मान तो उन्हे हिन्दी फिल्मों और उनके दर्शकों को देने का प्रयास करना चाहिये। हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं को भी सोचना चाहिये जिससे कि वे कांजीवरम जैसी फिल्म प्रियदर्शन से हिन्दी में भी बनवा सकें।
प्रियदर्शन की इस फिल्म ने दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीते – सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (प्रकाश राज)|
…[राकेश]
October 18, 2013 at 6:32 PM
बहुत ही मार्मिक कहानी है इस फिल्म की और इसे देखते हुए अथवा इस कहानी को पढ़ते हुए आँख नाम हुए बिना नहीं रहती। समाज की पैरोकारी करने वाले और मजलूमों और मजबूरों के हक में आवाज़ बुलंद करने वाले शायर साहिर लुधियानवी साहिब की ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ जाती हैं —
” ये शाह – राहें इसी वास्ते बनीं थीं क्या,
कि इन पर देश की जनता सिसक सिसक के मरे ?
ज़मीं ने क्या इसी कारण अनाज उगला था,
के नस्ल-ए-आदम-ओ-हव्वा बिलख बिलख के मरे ?
मिलें इसीलिए रेशम के ढेर बुनती हैं,
के दुख्तराने – वतन तार – तार को तरसें ?
चमन को इसलिए माली ने खूं से सींचा था,
के उसकी अपनी निगाहें बहार को तरसे ? “
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