दुःख को देखना, और उसके अस्तित्व को स्वीकारना, जीवन को थोड़े ही पलों के लिए सही पर, परिवर्तित कर ही जाता है, व्यक्ति ठिठक कर कुछ सोचने विचारने के लिए मजबूर हो जाता है| जैसे गाडी के ब्रेक्स उसकी गति निर्धारित करते हैं वैसे ही दुःख से साक्षात्कार, चाहे वह कला के माध्यम से ही क्यों न हो, जीवन की दिशा और दशा की गतिको नियंत्रित करता है|

रोग, ज़रा, और मृत्यु , ये तीनों प्रियजनों के साथ जब घटते हैं तो मानव का अस्तित्व हिल जाता है|

इन स्थितियों का फ़िल्मी परदे पर दर्शन भी संवेदनशीलता को बढ़ा जाता है|

दुःख भरा एक सिने गीत है फ़िल्म – काश!

एक फ़िल्मी सितारा हो या साधारण मनुष्य, उसके प्रियजन के कष्ट उसे समान रूप से सताते हैं| मौत तू एक कविता है, एक बालिग़, रोमांटिक व्यक्ति आनंद तो कह सकता है, लेकिन वही साहसी व्यक्ति, अपनी ही मौत से उपजने वाले, अपने प्रिय बन चुके डॉक्टर भास्कर बनर्जी के, संभावित दुःख की कल्पना करके ही विचलित हो जाता है और भास्कर से जल्द ही विवाह करने वाली स्त्री से कहता है,

मैं मरना नहीं चाहता रेणु जी, बहुत कमजोर है वो, मेरा दुख बर्दाश्त नहीं कर पायेगा“|

स्वंय को रोग शैया पर लेटे देखने को व्यक्ति किसी भी दृष्टि से देख सकता है उसे सहन कर जाता है पर अपने प्रिय को रोग शैया पर देखना उसे मानसिक रूप से तोड़ देता है| और अगर बात व्यक्ति की संतान की हो तो उसके ह्रदय की हालत को सहज ही कल्पित किया ही नहीं जा सकता बल्कि उसका वर्णन सुनने और देखने वाले के ह्रदय में उसी तीव्रता के शूल उठने लगते हैं|

जैकी श्रौफ़, स्वामी दादा की छोटी सी भूमिका के बाद जब सुभाष घई की हीरो में नायक बन कर आये तो पेशेवर फ़िल्मी आलोचकों ने उनका मखौल कई तरह से उड़ा कर योग्यता के पैमाने पर उन्हें खारिज कर दिया|

कुछ ने लिखा उनके लिए कि वे लकड़ी की तरह पतले हैं, उनमें लोच नहीं है| कुछ ने लिखा कि वे देव आनंद के नकलची भर हैं| हीरो बहुत बड़ी हिट बन गयी पर एक अभिनेता के रूप में जैकी को परिंदा से पहले फ़िल्मी आलोचकों के गैंग्स ने अभिनेता अपवाद स्वरूप ही माना|

जैकी द्वारा स्वंय ही कई बार बताने के कारण अब बहुत से लोग जानते हैं कि उनके जीवन पर उनके तीन करीबियों की मौत ने बहुत गहरा असर डाला| जब जैकी 10-11 साल के ही थे तो उन्होंने अपने ही सामने अपने से 7 साल बड़े भाई को डूबते हुए देखा|

फिर अपने पिता की मृत्यु देखी और झेली जैकी ने|

जब वे बड़े फ़िल्मी सितारे बन गए तो उनके बड़े से घर के अपने निजी कमरे में उनकी माँ का देहांत किसी रात हो गया और जैकी को सुबह ही इस बात का पता चल पाया और उन्हें अपनी अमीरी के साइड इफेक्ट्स का बोध हुआ|

शायद इन्हीं कारणों से जैकी श्रौफ़ करीबी के वियोग से उपजे दुःख दर्द को परदे पर दिखाने के लिए किये गए अपने अभिनय में बेहद वास्तविकता का पुट लाते रहे|

फ़िल्म – काश में वे एक सफल सितारा अभिनेता से एक असफल हो चुके भूतपूर्व फ़िल्मी सितारे की भूमिका में हैं जिसकी असफलता का मजाक फ़िल्मी दुनिया में अलग अलग तरीके से उड़ाया जाता है| वास्तविक जीवन में भी हीरो के प्रदर्शन के बाद अपना उपहास उडाये जाने के अनुभव ने जैकी की सहायता की होगी परदे पर इती विश्वसनीयता लाने में|

महमूद और उनके छोटे भाई अनवर अली ने जब “काश” बनाने की ओर कदम बढाए तब महमूद खुद भी अपने एक बेटे, जो पोलियोग्रस्त था, के कठिन जीवन के ऊपर, 70 के दशक में वे एक संवेदनशील फ़िल्म कुंवारा बाप बना चुकने के अनुभव पर खड़े थे|

इस बार वे ब्रेन कैंसर से ग्रसित एक बच्चे और उसके अलग हो चुके माता -पिता की कहानी पर महेश भट्ट से फ़िल्म बनवाने की ओर कदम बढ़ा रहे थे|

काश के साथ कुछ बड़े महत्वपूर्ण पहलू जुड़े हुए हैं| सबसे बड़ा पहलू है, महा गायक किशोर कुमार द्वारा गाये गए चंद अंतिम गीतों में से तीन इस फ़िल्म के हैं और राजेश रोशन के संगीत में गाये उनके दो डुएट गीत – “बात मुद्दत के हम तुम” और ” ओ यारा तू प्यारों से है प्यारा” बेहद मधुर गीत हैं और आज तक सुने और सराहे जाते हैं| उनकी भावनात्मक कीमत भी बहुत ज्यादा है किशोर कुमार के प्रशंसकों के लिए|

फ़िल्मी अभिनेताओं के लिए फिल्मों में एक अभिनेता या सितारे अभिनेता की भूमिका करना बहुत कठिन काम सिद्ध होता रहा है क्योंकि लेखक और निर्देशक भी इसे उतने प्रभावी ढंग से विकसित नहीं कर पाते और अक्सर ही अभिनेतागण ऐसी भूमिकाओं में ओवर एक्टिंग के शिकार हो जाते हैं|

जैकी श्रौफ़ के हिस्से में यह उपलब्धि जाती है कि फ़िल्म काश में वे एक सफल फ़िल्मी सितारे के यकायक असफल होकर दुर्दिन देखने और उसके बाद लगातार अपने को पुनर्जीवित करने के संघर्ष को परदे पर उतारने में पूर्णतया सफल रहे| उस संघर्ष के दौर में रोजाना अपने अहंकार पर पड़ती चोटों से भ्रमित होने, और पत्नी संग घरेलू तनाव को सहन न कर पाने वाले भूतपूर्व सितारे में उपजी कुंठा को उन्होंने प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित किया है|

जटिल होते जा रहे पति, और अपनी युवावस्था, अपने सौन्दर्य और अन्य निजी गुणों के कारण उसके अपने जीवन में स्वतंत्र रूप से प्रगति हो सकती है ऐसा देखने, समझने वाली युवती के रूप में डिम्पल भी परदे पर जैकी का बखूबी साथ देती हैं|

फ़िल्म का अगला पहलू है इस सत्य को परोक्ष और अपरोक्ष रूप से दिखाना कि विवाह से बाहर आ गई या आती जा रही युवती को कैसे उस पर निगाह रखे पुरुष इस अलगाव की प्रक्रिया को तेज करने में लगे रहते हैं| ऐसे पुरुष भी उसके जीवन में आते हैं जो उसके साथ अपना जीवन बसाना चाहते हैं और इसलिए साजिशें रचते हैं कि वह कभी अपने पूर्व पति और बच्चे के समीप न चले जाये क्योंकि हो सकता है उसकी भावनाएं उनसे पुनः जुड़ जाएँ और उसके सपने अधूरे रह जाएँ|

पति पत्नी के इस अलगाव के अखाड़े में नए पहलवान का प्रवेश होता है और यह पहलवान पति और पत्नी दोनों को पटखनी देकर हराता रहता है| यह पहलवान है उनके इकलौते बेटे की न ठीक हो पाने वाली बीमारी|

छः महीने, एक साल दो साल जितना भी वक्त बेटे के पास है उसमें उसकी खुशी है उसके माता पिता का एक साथ रहना|

जैकी का चरित्र तो अभिनेता का है ही, वह अभिनय कर सकता है अपनी पति संग मेल मिलाप का| डिम्पल के चरित्र के समक्ष भी शुरू में यह अस्थाई व्यवस्था है और उसे भी बेटे के सामने अभिनय ही करना है|

अब कुश्ती है बेटे की बीमारी से उपजे संयोग से साथ आये पति पत्नी और बेटे की तरह तेजी से बढ़ रही मौत के बीच| माता-पिता को समय के हर टुकड़े को ऐसे रंगों से भरना है जिससे उनके बेटे का अस्तित्व खुशियों से भर जाए| और ये कुश्ती बेहद कठिन है| बेटे की तरफ देखना है खुश होकर और उनकी आँखों में हर समय उसे खो देने का भय है, उससे उपजी पीड़ा है|

इस यात्रा को देखना दर्शक के लिए भी आसान नहीं है|

डिम्पल कपाडिया को काश में दो बहुत प्रभावशाली दृश्य मिले और उन्होंने इन अवसरों को लपक लिया|

एक में उनके चरित्र को तड़प कर अनुपम खेर के उनके प्रति लालच रखने वाले चरित्र को गाली देनी है और डिम्पल ने इसे ऐसे निभाया कि अपने ह्रदय के भीतर से कोसा|

दूसरे भावुक दृश्य में उनके चरित्र को अपने पति से अपने जीवन की सबसे यादगार घटना की पुनरावृत्ति की मांग करनी थी और इस दृश्य को भी डिम्पल ने ऐसे निभाया कि अच्छे अभिनय की चाह रखने वाले हरेक दर्शक के लिए वे अच्छे अभिनेत्री के रूप में स्वीकार्य हो गयीं|

बाकी फ़िल्म तो यह जैकी श्रौफ़ की है , उनके अभिनय की विविधता की, उसकी तीव्रता की, सांद्रता की और गहराई की|

…[राकेश]


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