‘हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और’
जब यही बात विनोद सहगल की आकर्षक गायिकी बताती है तो असर कुछ ज्यादा ही पड़ता है और ग़ालिब का सिक्का जम जाता है और सुनने वाले को लगने लगता है कि एक बेहद महत्वपूर्ण शायर से वह रूबरू होने जा रहा है| इस पंक्ति के सामने आते ही ग़ालिब के प्रति उत्सुकता चरम पर पहुँच जाती है|
यूं तो ग़ालिब को हरेक को खुद ही जानना और समझना पड़ता है| और यह काम उसे ग़ालिब के कलाम को पढ़ कर, उसे समझ कर करना पड़ता है| और इस यात्रा में हरेक के अलग अलग ग़ालिब उत्पन्न हो जाते हैं| पढ़ने वाले की व्यक्तिगत समझदारी, शायरी के प्रति लगाव और जीवन और शायरी के अंतर्निहित संबंध के रहस्य को उजागर कर पाने की क्षमता पर बहुत निर्भर करता है कि वह ग़ालिब को कितना जान पा रहा है, कितना समझ पा रहा है और अपने अंदर कैसे ग़ालिब को गढ़ रहा है?
गुलज़ार ग़ालिब के एक दीवाने की भांति सामने आते हैं और ग़ालिब जगत में डुबकी लगा कर ग़ालिब का एक मूर्त रूप गढ़ते हैं और उसे जीवन प्रदान कर देते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक में| वे ग़ालिब को उनके काव्य से निकाल कर एक जीते जागते मिर्ज़ा ग़ालिब को लोगों के सामने ले आते हैं| मिर्ज़ा ग़ालिब के सुख दुख, उनके संघर्षों, और जीवन की तमाम मुश्किलों से जूझते हुये भी कैसे उनकी रचनात्मकता गतिशील रहती है यह सब लोगों की आँखों के सामने घटने लगता है| दो लोग इस अजूबे को जन्माने में गुलज़ार की हरसंभव सहायता करते हैं, जगजीत सिंह और नसीरुद्दीन शाह| यूं तो सिनेमेटोग्राफर मनमोहन सिंह सहित बहुत से अन्य तकनीकी विशेषज्ञ और अभिनेता गण इस महान प्रयास में गुलज़ार संग जादू करते हैं पर जगजीत सिंह और नसीरुद्दीन शाह का सहयोग अनूठा है| जगजीत सिंह को ग़ालिब की शायरी को संगीतबद्ध करके ग़ालिब को एक वाजिब आवाज भी देनी थी और नसीरुद्दीन शाह के समक्ष तो ग़ालिब को सजीव रूप में परदे पर लाने का दुष्कर काम था और अपने अपने फन के उस्ताद दोनों कलाकार इस परीक्षा में सोलह आने खरे उतरते हैं|
गुलज़ार की जीवंत धीर गंभीर वाणी ग़ालिब का पता लोगों को एक ऐसे अंदाज़ में देती है जिसे वे जीवन भर भूल न पाएँ| शब्दों से वे चित्र उकेरते चलते हैं और ग़ालिब के घर पहुँचने के लिए दर्शक गुलज़ार की आवाज़ की उँगली थामे विवरण के साथ विचरण करने लगता है| तंग गलियाँ, नुक्कड़ स्थित टाल, हुक्के की गुगुड़ाहट के बीच पान खाते बतियाते लोग, घरों के बाहरी दरवाजों पर लटकते टाट के पर्दे, किसी घर के प्रांगड़ से बकरी के मिमियाने की आवाज, कुछ ढलती शाम का धुंधलका कुछ भोजन तैयार करने के लिए उठता धुआँ, कहीं कहीं जल उठने वाले चिरागों की रोशनी, कहीं कुरान पढ़ती आवाजें और इन सब से गुजर कर ग़ालिब की हवेली पर पहुँचने की कोशिश का सफल अंत होता है|
बल्लीमारां के मोहल्ले की वो
पेचीदा दलीलों की सी गलियां,
सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे,
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह वाह
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे,
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़,
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां,
चूड़ीवालां के कटरे की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले,
इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है,
एक कुराने सुखन का सफा खुलता है,
असदुल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है
मोहक गायिकी से भरी अज़ान की आवाज़ के साथ छड़ी के सहारे चलते किसी वृद्ध के लड़खड़ाते कदम शायद मस्जिद की और बढ़ते जाते हैं| कदमों के बड़ी मुश्किल से उठने का निश्चित पता उन कदमों की हरकतों से मिलता है लगता है इन कदमों का मालिक किसी कशमकश में है| शायद ये दुविधा उसके सामने हो कि मस्जिद जाए न जाये|
मस्जिद की सीढ़ियों के पास आकर कदम रुक जाते हैं| असमंजस में भरे पैर जूते निकाल कर एक दो सीढ़ियाँ चढ़ भी लेते हैं लेकिन फिर ठिठक कर रुक जाते हैं| वृद्ध की उदासी से भरी आँखें मस्जिद की मीनारों, गुंबद, और इमारत की छत पर बने कंगूरों को देखती हैं| यही तो हैं मिर्ज़ा ग़ालिब| जगजीत सिंह की मीठी भारी और मखमली आवाज़ गाकर ग़ालिब के असमंजस को प्रस्तुत करती है
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
अध्यात्म के मसलों में ग़ालिब जैसों की क्या स्थिति है या हो सकती है इसे ग़ालिब खुद पर ही आजमा कर कहते हैं कि अगर ग़ालिब शराबी न होता तो साधु समझा जा सकता था तब शायद मस्जिद के अंदर जाने लायक आत्मबल उसके अंदर होता|
गुलज़ार का एक बेहद महत्वपूर्ण योगदान इस धारावाहिक में ग़ालिब की शायरी का उपयोग निहायत ही सटीक जगह पर करना भी है|
निराश ग़ालिब थके हारे से नीचे उतर जूते पहनते हैं और ऐसे भारी कदमों से वापिस घर की और चलते हैं कि उनके अंदर छाया उदासी भरा अँधेरा बाहर निकाल पूरे वातावरण को अपनी गिरफ्त में ले लेता है| ऊंची टोपी पहने, गिरते कंधों के साथ डगमगाते चलते हैं|
पहली कड़ी के पहले ही विजुअल से इसके आकर्षण से बंधे दर्शक को अब सारंगी की उदास धुन के मध्य मस्जिद से वापिस लौटते मिर्ज़ा ग़ालिब को देख मिर्ज़ा ग़ालिब और उन्हें इतनी शिद्दत से निभाते नसीरुद्दीन शाह दोनों से प्रेम हो उठता है|
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
ग़ालिब इससे पहले ये भी कहते हैं –
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
ऐसे अश’आर ग़ालिब के जीवन की गहन उदासी को दर्शाते हैं| संघर्षों से घिरे जीवन की शाम में उदासी स्थायी भाव की तरह न जम जाये तो बड़े ही जीवट वाला होगा व्यक्ति| लेकिन सारा समय घर पर ही एक ही जैसी स्थिति में वक्त गुजारते ग़ालिब को इस वृद्धावस्था में मन का उल्लास पाना बेहद दुष्कर कार्य लगता रहा होगा|
जो शायर ये कह दे कि मरने के बाद भी रुसवाई नाम पर चस्पा हो इससे बेहतर वह दरिया में बह कर मरता, कम से कम तब दफन करने की जरूरत न रहती न ही याद के लिए लोग कब्र पर मज़ार बनाते और चर्चा करते रहते, उसकी उदासी की थाह लेना कठिन काम नहीं|
खामोश गली में एक व्यक्ति से दुआ सलाम के उपरांत मिर्ज़ा अपने घर की देहरी पर जा बैठते हैं| उनके जा पहुँचने की आहट सुनकर उनकी बेगम दरवाजे पर आती हैं और उनकी हालत देख समझ जाती हैं कि वे आज भी मस्जिद के अंदर नहीं जा पाये| वे मिर्ज़ा से अल्लाह से सुलह करने की सिफ़ारिश करती हैं|
निराश मिर्ज़ा कहते हैं
वे अब किस मुंह से जाएँ मस्जिद? अल्लाह ने तो सत्तर साल उन्हें दिन में पाँच बार बुलाया वे ही नहीं गए
ग़ालिब कहते हैं
वे अल्लाह के वफ़ादारों में न थे और अब वे खुद से ही शर्मिंदा हैं|
गली में जमीन पर पड़े एक कंचे को देख मिर्ज़ा की आँखों में चमक आ जाती है और उसे उठाकर वे बेगम से चुहल करते हैं कि आओ कंचे खेलें| उन दोनों की आपसी चुहलबाजी बताती है कि उन दोनों में कितना दोस्ताना संबंध है|
सात बच्चों में से एक के भी जीवित न रह पाने से ग़ालिब और उनकी बेग़म केवल घर में ही खालीपन महसूस नहीं करते बल्कि उनके जीवन भी नाती पोतों के शोरगुल के अभाव में गहन उदासी की मरघट जैसी शांति से भर गए हैं|
बेगम द्वारा अल्लाह की मर्जी कह देने से मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं,
तुम्ही अल्लाह को दोष देती हो बेग़म | मैं अगर सजदा करने नहीं गया तो शिकायत भी नहीं की|
गली से गुजरते एक शख्स से वार्तालाप से उस वक्त के इतिहास का पता चलता है| मिर्ज़ा किले में नहीं जाते क्योंकि अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को रंगून भेज दिया और शहजादों के सिर कलम कर खूनी दरवाजे पर लटकवा दिये|
मिर्ज़ा ग़ालिब के मिजाज़ की तासीर की खबर मिलती है उस राहगीर द्वारा उलाहना देने से कि मिर्ज़ा को तो खुश होना चाहिए क्योंकि अंग्रेजों ने उनका वजीफा बहाल कर दिया|
मिर्ज़ा तमक कर कहते हैं,
मियां शिकायत अपने आप से करो| क़ौमें बादशाहों से नहीं अवाम से बनती हैं और अगर आप आज भी कबूतर ना उड़ा रहे होते तो यह मुल्क कुछ और होता, जाओ कबूतर उड़ाओ|
एक अंधा भिक्षु सूरदास के पद गाता हुआ ग़ालिब के घर के सामने आकर खड़ा हो जाता है
सब नदियां जल भरि भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी
ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी|
और ग़ालिब की बेग़म उसके झोले में आटा डाल देती हैं| भिक्षु के जाने के बाद ग़ालिब बेग़म से कहते हैं,
ये ब्राह्मण गाता बहुत अच्छा है|
यह खूबसूरत दृश्य सामाजिक समरसता को बेहतरीन ढंग से परिभाषित कर देता है|
‘गो हाथ को जुंबिश नहीं आँखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागरो मीना मेरे आगे’
आदमी इस शेर को पढ़ता है और सोचता है किस माहौल में ग़ालिब ने इसे कहा होगा| गुलज़ार इसका बड़ा ही माकूल सा एक संदर्भ ठहरा देते हैं|
बेग़म द्वारा घर को गारतशुदा कहने पर ग़ालिब कहते हैं|
‘घर में था क्या कि तेरा ग़म उसे गारत करता’
‘वो जो हम रखते थे एक हसरते तामीर सो है’
ये ग़ालिब की स्थिति और उनकी प्रकृति या उनके स्वभाव को भली भांति प्रतिनिधित्व दे देता है|
फ्लैश बैक का उपयोग करने में गुलज़ार बेहद कुशल निर्देशक हैं| कंचे से निशाना साधते मिर्ज़ा ग़ालिब से दृश्य सीधे मिर्ज़ा के लड़कपन में पहुँच जाता है| जहां वे आगरा से दिल्ली घर जमाई बन कर आए हैं और हवेली के बाहर अपने हम उम्र लड़कों संग कंचे खेलते हुये एक व्यक्ति से टकरा जाते हैं| यह खंड लड़कपन से ही मिर्ज़ा ग़ालिब की हाजिरजवाबी के दर्शन कराता है| शेख सादी के फारसी में कहे कथन का उपयोग करते हुये वे टकराने वाले व्यक्ति से कहते हैं कि वे बूढ़े हो गए हैं बुजुर्ग नहीं बने हैं|
लड़कपन का यह दौर दिखाता है कि उनके ही तखल्लुस ‘असद’ से कोई अन्य भी शायरी करता है और खासे घटिया शेर कहा करता है| यह आजकल के दौर में गुलज़ार की भी समस्या है जब इन्टरनेट के संसार में लोग किसी भी स्तर की शायरी के नीचे गुलज़ार लिख कर उसे आगे लोगों को प्रेषित करते रहते हैं|
‘असद’ इसका तोड़ निकालते हैं तखल्लुस बदलने का निश्चय करके| वे अपना तखल्लुस “ग़ालिब” रखना निश्चित करते हैं और उनका नाम हो जाता है – असदुल्ला खां ‘ग़ालिब’|
ग़ालिब की उनके ससुर से बातचीत से पता चलता है कि ग़ालिब की जो पारिवारिक पेंशन है उसे मिलने में अडचन आ गई हैं और अब ग़ालिब को अंग्रेजों को पत्र लिखकर अपना पक्ष रखना है| इस संकेत से भविष्य में उनके जीवन में आने वाले आर्थिक संकट का पता चलता है|
इस भाग में उनके ससुर का चरित्र निभाया है अभिनेता इफ़्तिखार ने और उनकी सहजता देख लगता है कि शायद बिमल रॉय और बासु भट्टाचार्य के अलावा हिन्दी सिनेमा ने उनका सही उपयोग नहीं किया और पुलिस अधिकारी की भूमिका के अलावा उनसे बहुत बेहतर काम लिया जा सकता था|
ग़ालिब हाथ पर नचाते हुये गिलास को छन्न से तोड़कर जवानी में कदम रख देते हैं|
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
साग़र-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है
तल्लीनता से शेर बनाते और गाते हुये ग़ालिब को देख उनके बेग़म प्रसन्न होती हैं| पति की कला को पल्लवित होते देख उनका प्रसन्न होना स्वाभाविक है और कक्ष में उन्हें देख ग़ालिब गुनगुना उठते हैं
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
एक शायर अपने जीवन का निर्वाह किस प्रकार करेगा| या तो जमींदारी हो कोई वजीफा| इस आर्थिक परेशानी ने ग़ालिब की पेशानी पर बल डालने शुरू कर दिये हैं| शेर कहते कहते वे शून्य में खो जाते हैं|
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
अपने को भरमाने के लिए एक अच्छे भविष्य की कल्पना सभी करते हैं| जिसे जीवित रहना है उसे ही ऐसी कल्पना करनी ही पड़ती है|
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रख लेने को ग़ालिब
ये ख्याल अच्छा है
भविष्य शायद अच्छा न हो, जो सपने देखे वे शायद पूरे न हों और अगर हो भी जाएँ तो उनसे खुशी नहीं मिलनी फिर भी अपने को चलाये रखने के लिए इंसान अच्छी-अच्छी योजनाएँ बना कर भविष्य के सुखद सपने देखता ही रहता है|
उपरोक्त अश’आर को गाते हुये नसीरुद्दीन शाह की अदाकारी इतनी बेहतरीन है उनके चेहरे और आँखों में दर्जनों भाव पल पल रंग बदलते दिखाई देते हैं कि आश्चर्य होता है उनकी अभिनय क्षमता पर| धारावाहिक की पहली ही कड़ी में वे सिद्ध कर देते हैं कि ग़ालिब के रूप में उनका चयन केवल धारावाहिक के लिए ही सौभाग्य की बात नहीं वरन सम्पूर्ण जगत के लिए सौभाग्य की बात है कि उसने नसीरुद्दीन शाह को ग़ालिब बनते देखा है…
अब ग़ालिब के जीवन से सीधा जुड़ाव दर्शक का बन गया है| उनके जीवन के उतार चढ़ाव से उसका सीधा नाता बन गया है| ग़ालिब के सुख और दुःख अब उसके अपने भी हैं|
…[राकेश]
…जारी…
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