David Fincher की यह फ़िल्म एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर के रूप में फ़िल्म शानदार है|

फ़िल्म निर्माण के दौरान अभिनेतागण निर्देशक के हाथ की कठपुतलियां होते हैं तो यह फ़िल्म दर्शाती है कि फ़िल्म बनकर प्रदर्शित होने के बाद, एक बहुत अच्छी फ़िल्म को देख रहे दर्शक उस फ़िल्म के सामने कठपुतली बनने के लिए विवश हो जाते हैं| फ़िल्म जहां उन्हें ले जाना चाहती है, ले जाती है, जैसे और जिस बात को मनवाना चाहती है दर्शकों को उसे मानना पड़ता है| अच्छी फ़िल्में वशीकरण करती हैं दर्शकों का, वे उन्हें सम्मोहित कर देती हैं|

अपनी फ़िल्म गॉन गर्ल में डेविड फिंचर दर्शक को महीन धागे जितनी जगह भी नहीं देते कि वह सिनेमा के परदे पर विचरण कर रहे चरित्रों के बारे में अपने विचार उससे अलग बना ले जैसे निर्देशक ने उसके दिमाग में रोपे हैं|

जिसे दर्शक 30 मिनट तक नायक समझते हैं, वह 31 मिनट और 30 सेकेण्ड से उन्हीं दर्शकों को विलेन जैसा लगने लगता है और उससे विरक्ति होने लगती है|

जिसे दर्शक प्रताड़ित पाते हैं 1 घंटे तक 61वें मिनट से हर पल उसके चरित्र का प्रारूप बदलकर परपीड़क का होता जाता है और दर्शकों में जुगुप्सा के भाव जगाने लगता है और दर्शक समझ ही नहीं पाते कि फ़िल्म के चरित्रों को ब्लैक एंड व्हाइट के सीधे सीधे खानों में कैसे विभाजित करके फिट कर दे?

इंसानी रिश्तों की परतों को डेविड फिंचर ऐसे ही नहीं खोलते जैसे प्याज के छिलके खोले जा सकते हैं बल्कि वे उन्हें रेशा-रेशा अलग करके दिखाते हैं|

हाथ से बुने किसी ऊनी स्वेटर की बुनाई से टूटकर अलग हो गए उन के धागे का सिरा ऐसे हाथ में आ जाए कि उसे खींचते रहने पर स्वेटर धीरे-धीरे उधड़ता चला जाए तो बस ऐसी ही यह फ़िल्म है| दर्शक स्वेटर उधड़ते जाने की प्रक्रिया तो देखता है लेकिन स्वेटर का डिजायन किस पैटर्न से उधड़ रहा है इसे नहीं जान पाता और फ़िल्म का चरित्रचित्रण दर्शक से दो कदम आगे ही चलता है और दर्शक को उसके पीछे भागकर उसे समझना पड़ता है|

विवाह की पांचवीं वर्षगाँठ पर एक व्यक्ति की पत्नी घर से गायब हो जाती है, घर पर उसे सेन्ट्रल टेबल का शीशा टूटा हुआ दिखाई देता है हल्की फुल्की तोड़फोड़ और हुयी है और उसके बाद उस व्यक्ति की परेशानियां और पुलिस की जांच बढ़ती जाती हैं और मामला उलझता जाता है| फ्लैश बैक के जरिये बीते पांच साल से थोडा ज्यादा का उस व्यक्ति और उसकी पत्नी का जीवन दर्शक के सामने आता रहता है और उनकी पहली भेंट से लेकर सब कुछ बड़ा रोमांटिक नज़र आता है| व्यक्ति और उसकी पत्नी दोनों लेखक हैं, पत्नी धनी माता पिता की अकेली सन्तान है| व्यक्ति का विधुर वृद्ध पिता देखरेख केंद्र में रहता है और व्यक्ति की बहन एक बार चलाती है जिसका स्वामित्व भी व्यक्ति की पत्नी के नाम है|

जैसे जैसे पुलिस की जांच आगे बढ़ती है, उस शहर के लोग भी केस में सम्मिलित होते जाते हैं और व्यक्ति की पत्नी की गुमशुदगी का केस अब उसकी संभावित ह्त्या का केस बनता जाता है| अब शहर भर को और पुलिस को युवती की डेड बॉडी की तलाश है|

फ़िल्मी पति पत्नी के मध्य रिश्ते को सौ प्रतिशत पश्चिमी और उसमें भी अमेरिकी परिभाषाओं से ही देखा जा सकता है, अपनी विचारधारा उसमें नहीं लगाईं जा सकती|

भाई बहन के मध्य रिश्ते में अल्पकालिक झटकों के बावजूद जो भावुकता से बंधा हुआ है वह रिश्ता नाता निभाता है और जिसका अंदुरनी चरित्र ही हरेक रिश्ते को बस ऐसे ही लेने का बन चुका है उसके लिए खून के रिश्ते का अर्थ भी वन वे ही रहता है – इस रिश्ते से भी जितना पा सकते हो पा लो|

फ़िल्म चरित्रों के बारे में एक ठोस विचार दर्शक को नहीं गढ़ने देती और वे अंतिम दृश्य तक निर्णय नहीं ले पाते कि कौन सही है या कौन ज्यादा सही है या कौन गलत है और कौन उस गलत से भी ज्यादा गलत है| जब सब गलत है तो जो थोडा बहुत सही दिखाई दे रहा है क्या उसे ही जैसा है जहाँ के आधार पर स्वीकार करके सही मान लिया जाए?

अगर पारी-पत्नी में से एक गलत न करके अपने जीवन में रिश्तों में ईमानदार रहता तो क्या यह नौबत आती?

आखिर उसका जीवनसाथी मांग ही क्या रहा था ?

लेकिन फिर उसके जीवनसाथी के विवादास्पद भूतकाल से क्या अर्थ निकलते हैं?

और जो अंत है अब, क्या वही तार्किक नहीं है? क्या इससे अलग भी अंत हो सकता है?

यह हर दर्शक को सोचना है अदालत का जज बनकर, जिसके सामने केस के सारे पहलू, तमाम सुबूत, हरेक प्रकार के दृष्टिकोण रख दिए गए हैं, अब जज साहब,यानी दर्शक को सोचना है कि इतने उलझे हालात में जीवन की गाडी आगे कैसे बढे? क्या एक चरित्र जो दूसरे को लगभग विवश करके जीवन दिशा निर्धारित कर रहा है, वही एकमात्र हल है?

जबकि केस से सम्बंधित सारे व्यक्ति सच्चाई जानते हैं, तो घर के अन्दर और घर के बाहर सम्बंधित चरित्रों का जीवन कैसे चलेगा?

युवती ही मिसिंग नहीं हुयी, साथ उसके जीवन का बहुत सारा रस भी गायब हो गया| अब जो है वह गड्ढों और चट्टानों से भरे रास्ते पर एक गर्भवती स्त्री को गाडी चलाकर आगे जाने जैसा है|

ऐसी रहस्य से भरी फ़िल्म में मुख्य चरित्र में अभिनेताओं का चुनाव बहुत बड़ा काम होता है और मुख्य चरित्रों में Ben Affleck और Rosamund Pike ऐसे लगते हैं कि दर्शक को लगता है रियलिटी टीवी शो में किसी केस की कवरेज देखा रहा है|

परफेक्ट क्राइम कैसे शांत दिमाग से महीनों की योजना बना कर किया जा सकता है उसका उदाहरण भी फ़िल्म में मिलता है| और जब आदमी का दिमाग ही ऐसी फूलप्रूफ योजनायें बनाने में कुशल हो जाये तो वह त्वरित अपराध भी कितनी कुशलता से कर सकता है कि क़ानून विवश हो जाए उसके सामने, यह भी फ़िल्म दिखाती है|

फ़िल्म स्त्री चरित्र की हर तरह की मजबूती के सामने पुरुष चरित्र को कमजोर साबित कर देती है और उसे अपने आप में ही हर तरह से सक्षम दिखाती है, और ऐसा कम ही फ़िल्में कर पाती हैं विशेषकर क्राइम ड्रामा आधारित फ़िल्में|

…[राकेश]


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