उत्तराखंड में मसूरी के पास स्थित एक छोटी सी जगह के एस एच ओ – दीपक नेगी (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) मंथर गति से चलायमान इस फ़िल्म के नायक हैं|
फ़िल्म में दीपक नेगी का भूतकाल है जिसने उसके वर्तमान को ग्रसित करके अपने ही भविष्य के प्रति उसे अँधा बनाया हुआ है| वह भविष्य की किसी योजना से रहित जीवन जिए जा रहा है| एक बहुत पुराना मधुर गीत है जिसमें गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा था,
जीने की चाहत नहीं, मर के भी राहत नहीं
इस पार आँसू, उस पार आहें, दिल मेरा बेज़ुबां
अंधे जहान के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहाँ
शंकर जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध और तलत महमूद द्वारा गाया हुआ गीत गीत के भाव दीपक नेगी के जीवन को भी प्रतिनिधित्व देते हैं| दस साल से वह अपने गाँव नहीं गया है जहां उसके वृद्ध माता पिता रहते हैं| हर महीने उन्हें वह मनीऑर्डर से रूपये भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है| उससे मिलने की उनकी भावनात्मक आवश्यकताओं को वह अनदेखा करता रहा है, अपने दुःख से भरे भूतकाल के कारण|
दीपक नेगी के अंदुरनी जगत में उसके भूतकाल की ह्त्या हुयी पडी है और वह उसकी मृत काया को ढो रहा है| अंदुरनी जगत में उसके सामने इसका दाह संस्कार करके अपने जीवन को प्रेत छाया से मुक्त करके आगे बढाने का बड़ा सवाल है|
बाहरी जगत में भी उसके सामने एकाएक ऐसा केस आ जाता है जो उसके जीवन को मथने लगता है|
ऐसी छोटी पर्वतीय जगह पुलिस के लिए कुछ विशेष करने के लिए है नहीं अतः सारा पुलिस विभाग शांतिकाल में इस तरह से दिन काट रहा है, जैसे वे किसी रूटीन जॉब को करने वाले सरकारी कर्मचारी हों|
रौतू की बेली नामक ग्राम पंचायत क्षेत्र में एक रेजिडेंशियल स्कूल है सेवाधाम, जहां एक सुबह हॉस्टल की वार्डन संगीता (नारायणी शास्त्री) अपने कमरे में मृत पायी जाती है| स्कूल का प्रधानाचार्य उसे प्राकृतिक मौत बता रहा है, और पुलिस विभाग भी ऐसा ही मानकर चलना चाहता है क्योंकि वहां किसी को अपने मंथर गति से चलते जीवन में कोई रोड़ा नहीं चाहिए|
एस एच ओ जाने किस पिनक में शव को पोस्ट मार्टम के लिए भिजवा देता है और स्कूल के बारे में अपने अधीनस्थों द्वारा जुताई गयी सूचनाओं के आधार पर पिछली कुछ कड़ियाँ जोड़कर इस मौत को संदिग्ध मानने लगता है और उसका शक स्कूल के ट्रस्टी (अतुल तिवारी) पर जा अटकता है| दीपक नेगी का बॉस उसे कई मर्तबा सावधान करता है कि केस में धीरे जांच करे और ट्रस्टी को परेशान न करे| हर बार दीपक अपने बॉस की कही बातों का पालन करने की बात कहता है और बॉस के जाते ही केस की गुत्थियाँ सुलझाने में लग जाता है|
फ़िल्म मुख्यतः सतह पर तो इस मौत के रहस्य से पर्दा उठाने के ऊपर है लेकिन सतह से नीचे इस केस के कारण यह दीपक नेगी के अंदुरनी और बाहरी जगतों के संघर्ष की कथा भी बन जाती है|
अन्दर तो उसे अकेले ही लड़ना है और बाहर उसके साथ तंत्र कभी है कभी नहीं है| जहां तंत्र से कमजोर लोगों की बात है वहां तंत्र उसके साथ दिखाई देता है लेकिन जहाँ तंत्र से शक्तिशाली लोगों की बात आती है तो वहां दीपक नेगी को अकेले ही तंत्र से भी निबटना है| इस बाहरी संघर्ष में ही दीपक की चतुराई, कर्तव्य निष्ठा और ईमानदारी से भरे न्यायपरक चरित्र पर रोशनी पड़ती है| दीपक के सहज चरित्र को उंचाई मिलती है जब वह सामने रखे गए बड़े प्रलोभनों को ठुकरा कर वह करता है जो सही है| इस चुनौतीपूर्ण सीक्वेंस को बिना नायकत्व के निभाना नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की उपलब्धि है एक अभिनेता के तौर पर|
यह फ़िल्म फ़िल्मी आलोचकों के लिए बिलकुल भी नहीं है और अराजक दर्शकों के लिए तो कतई भी नहीं है क्योंकि ये दोनों समूह इस फ़िल्म को इस फ़िल्म के डोमेन में न देखकर इसे अन्य सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों की सापेक्षिता में देखेंगे|
यह उन दर्शकों को कुछ रोचक बातें दिखा सकती है जो अपने परिचितों और अजनबियों के संयुक्त मेले में उस व्यक्ति को गेट क्रेशर न मानें जो न तो अपनी बातों से किसी को लुभाने का प्रयास कर रहा है, न अपनी चुटकले बाजी से माहौल में हंसी बिखेर उस पर छाने की कोशिश कर रहा हो| हो सकता है वह इस भीड़ में भी अकेला इसलिए महसूस कर रहा हो कि उसके पास सबसे तुरंत घुलमिल जाने की प्रतिभा ही न हो और वह इसके लिए प्रयास रत भी न होकर बाहर दूर के दृश्य को देखते देखते अपने में ही मगन हो गया हो|
हरेक दर्शक (बल्कि आलोचकों के साथ भी) के पास ऐसी छोटे स्तर की फिल्मों की सूची अवश्य होती है जिन्हें वह बीस साल बाद याद करता है या उसे याद आ जाती हैं कि कभी ऐसे ही देखी थी, और अब किसी सन्दर्भ में उसकी याद आ जाती है तो वह अच्छी लगने लगती है| ये फ़िल्में आसानी से उपलब्ध भी नहीं हो पातीं और हो जाएँ तो बहुत संभावना है कि बदले दौर में उनका अब देखा जाना नॉस्टेल्जिया न जगा कर ऐसा अहसास लेकर आये कि यह तो साधारण फ़िल्म है, इसकी याद इतने बरसों तक इतनी सघन क्यों बनी हुयी थी? कुछ बार ऐसी फ़िल्में नए दर्शन में और अच्छी स्मृति बन कर साथ रह जाती हैं|
निर्देशक आनंद सुरपुर की इस फ़िल्म को देखने के लिए ऐसे धैर्य की आवश्यकता है जैसे कि पहाड़ों में जाने पर मोबाइल का नेटवर्क न मिलने पर हालात से पूरा समझौता करके जो वहां खूबसूरती बिखरी हुयी है उसे देखने के लिए वर्तमान में पूर्ण समर्पण से उपस्थित हो जाना| ऐसे समर्पण से ही वहां के जीवन की छोटी बड़ी बातें दिखाई देनी शुरू हो जायेंगी|
जो दर्शक इस दशा को उपलब्ध हो गए वे दीपक नेगी के साथ उसके निगाहों से इस मर्डर मिस्ट्री के केस को सुलझाने में लग सकते हैं और दीपक की निगाह से ही स्कूल, उसके छात्रों, उसके कर्मचारियों, आदि को देख सकते हैं| जो दीपक को दिखाई दे जाता है लेकिन उसके मातहतों को नहीं वह अगर दर्शक को भी दिखाई दे गया तो उसे दीपक की जाँच पड़ताल भली लगने लगेगी|
उसे फिर यह शिकायत नहीं चुभेगी कि नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी इस फिल्म में क्यों है| उत्तराखंड के जन्में निवासी तो वह लगते नहीं, हर वाक्य के अंत में “बल” बोलकर पहाडी आदमी बनने का जबरन फ़िल्मी प्रयास भी नहीं करते|
जो पहाड़ के असल लोग फ़िल्म में अभिनेताओं के रूप में रख लिए गए हैं वे अन्य अभिनेताओं के सामने स्थानीय रंग रूप की समस्या तो खडी करते ही हैं लेकिन उसके बाद भी कभी किसी फ्रेम में नवाजुद्दीन सिद्दीकी दर्शक के अन्दर स्वीकृति पा जायेंगे| वे एक सतत प्रयास करने वाले व्यक्ति के रूप में लगे ही रहते हैं| फिर उनके चरित्र द्वारा साझा किये गए दर्शन का महत्त्व तो है ही| उन्होंने इतने सहज रूप में उपस्थित रहने का प्रयास किया है कि यह अभिनय का हिस्सा लगता ही नहीं| उन्होंने एक असल व्यक्ति जैसा होने का प्रयोग इस फ़िल्म में किया है| करते तो वे हमेशा ही ऐसा हैं लेकिन किसी न किसे संवाद को विशेष तरीके से बोलकर वे उस संवाद को दर्शकों में प्रसिद्ध कर देते हैं यहाँ अभिनेता नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को वे पार्श्व में ही रखते हैं| उनका यह प्रयोगात्मक प्रयास सराहने योग्य है|
सस्पेंस से अलग भी फ़िल्म में कुछ आकर्षक बातें हैं जो देखने लायक हैं|
दुनिया में एक देश में ऐसा गाँव है जहां जन्म से ही लोग नेत्रहीन होते हैं और वे अपने जीवन लम्बी आयु तक जीते हैं| चूंकि उनके सामने आँखों वाले लोगों की दुनिया का सन्दर्भ नहीं रहता तो वे किसी कमतरी के अहसास में भी नहीं जीते| उनके लिए वही सामान्य अवस्था है|
इस फ़िल्म में जो यह स्कूल है- सेवाधाम, यह नेत्रहीन बच्चों के लिए ही बनाई गयी शिक्षण संस्था है| यहाँ के छात्र गरीब पर्वतीय परिवारों के बच्चे हैं जो अपने नेत्रहीन बच्चों को यहाँ छोड़कर अपनी आँखों वाली दुनिया की मजबूरियों से संघर्षरत जीवन जीने अपने अपने घरों में चले आते हैं और बिरला ही कोई व्यक्ति अपने नेत्रहीन बच्चे की सुध लेने वहां आता है|
फ़िल्म में नेत्रहीन बच्चों के क्रियाकलाप किसी दर्शक को न चौंकाएं तो ऐसे दर्शक के पास आँखें तो अवश्य ही हैं पर जीवन देखने की दृष्टि नहीं है| नेत्रहीन बच्चों के संसार को उनके सामर्थ्य की दृष्टि से दिखाना फ़िल्म की एक उपलब्धि है| इन बच्चों के कुछ दृश्य फ़िल्म को देखने बैठ ही गए और इसमें रूचि बना ही लेने वाले दर्शकों के दिल को अवश्य ही छू जायेंगे|
किसी आदमी में कई व्यक्तित्वों का मिश्रण होता है| एक विशेष प्रयोजन से एक चरित्र के एक छोटे से दृश्य का विवरण किया जा सकता है|
स्कूल का साठ की आयु के आसपास का ट्रस्टी एक दृश्य में दीपक नेगी और उसके मातहतों से नोकझोंक के बाद बाहर मैदान से अन्दर स्कूल की ओर जान एके लिए मुड़ता है तो सामने चार नेत्रहीन छात्र उसे मिल जाते हैं| उसमें दो छोटी लडकियां भी हैं| ट्रस्टी एकदम सेअपनी दोनों बाजुओं को एक एक लडकी की बाजुओं में पिरोकर उनके साथ आनंदित होकर झूम झूम कर घूमने लगता है| सैंकड़ों फिल्मों में ढूँढने से भी ऐसा दृश्य आसानी से नहीं मिलेगा|
समाज, कानून और मनुष्य के अन्तर्निहित संबंधों में अपराध, न्याय और प्रायश्चित के कोण आ जाते हैं| क़ानून तो अँधा होता है, जैसा अदालत में सिद्ध हो सकता है उसी के आधार पर दोषी और निर्दोष बनाया और बताया जाता है व्यक्ति को| लेकिन मानव तो अँधा नहीं होता उसे सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है|
दीपक नेगी जांच अधिकारी के रूप में कुछ ज्यादा ही स्पष्ट देख लेता है|
एक अलग किस्म का हिल स्टेशन है फ़िल्म इसे इसी के अस्तित्व के रूप में स्वीकार करके ही इसके यहाँ जाने का आनंद लिया जा सकता है|
मर्डर मिस्ट्री से ज्यादा पहाड़ की स्थानीयता और नेत्रहीन संसार के प्रति एक नया दृष्टिकोण दिखाना फ़िल्म के ज्यादा रोचक तत्व हैं| यह नेत्रहीनता से ग्रसित संसार को एक आशान्वित दृष्टिकोण देती है| किसी गाँव के घर के बाहर बेंच पर बैठे दो बुजुर्ग मित्रो के बार बार आने वाले वार्तालाप पहाड़ में कैसे मामले फ़िल्टर होकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचते जाते हैं और कैसे आदमियों की छवियों के निर्माण लोगों के मन मस्तिष्क में होते रहते हैं, उन सबको दिखाते हैं|
फ़िल्म का एक महत्वपूर्ण चरित्र एक नेत्रहीन किशोर छात्र पूरे सलीके से दीपक नेगी से बातें करता है, दुनिया जहां के ज्ञान और विवेक की बातें करता है, जब वह जाने लगता है तो दीपक नेगी उसकी बाजू पकड़ कर उसे सहारा देने की कोशिश करता है तो लड़का जिस संतुलित तरीके से उसके इस प्रयास को अस्वीकार करता है अपनी बांह को सलीके से झटका देकर वह दीपक नेगी सहित दर्शक को भी शिक्षित कर जाता है|
नेत्रहीन छात्रों के संसार को फ़िल्म और ज्यादा और गहराई से दर्शा पाती को क्या ही बात होती|
नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राजेश कुमार, अतुल तिवारी, समृद्धि चंदोला आदि अभिनेताओं के साथ गैर-व्यावसयिक पर्वतीय निवासियों की परदे पर उपस्थिति ताजगी भरी लगती है और वे सब फ़िल्म को एक विश्वसनीय माहौल देने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं|
घर बैठे इसे वैसे लोग देख कर इसके स्देवभाव को पहचान इसका आनंद ले सकते हैं जो अपने मनपसंद हिल स्टेशन न जा पाने के कारण किसी और सुविधाओं से रहित छोटे हिल स्टेशन जा सकते हों और वहां की स्थानीयता में ही उपलब्ध ख़ूबसूरती देखकर जो नहीं देख पाए उसकी शिकायत न करते हों|
…[राकेश]
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