संस्कृत भाषा से आये शब्द – अगम, के कई अर्थ हैं -> अनादि, अनंत, निस्सीम, अथाह, बहुत गहरा, समझ की सीमा से बाहर, जहां तक पहुँच न हो, आदि इत्यादि |
हिंदी फिल्मों ने अध्यात्म पर हिन्दू दर्शन को समेटने का प्रयास किया हो ऐसा बहुत कम देखने में आता है| नगण्य सी संख्या ही कही जायेगी| प्रयास हुए भी तो उनमें आधुनिक राजनीतिक चश्मे से मसले को देखकर फ़िल्में बनायी गयीं|
अगम, विशुद्ध अध्यात्म को समाहित करने वाली फ़िल्म है| इसमें आधुनिक राजनीति के अंश से कुछ भी ग्रसित नहीं है|
हिन्दू दर्शन पर फ़िल्म बने तो उसे धार्मिक स्थलों पर ही आधारित करना होगा और ऐसे स्थलों में बनारस ही अभी तक फ़िल्म वालों के लिए उपयुक्त नगर रहा है|
फ़िल्म- अगम, का हरेक दृश्य एक लिरिकल भाव में दर्शक से वार्तालाप करता चलता है| इसमें अभिनेताओं का महान अभिनय नहीं है लेकिन तब भी प्रत्येक दृश्य दर्शक को निरपेक्ष नहीं रहने देता| हर दृश्य का अर्थ दर्शक की अपनी समझ अनुसार उससे संबंध बना ही लेगा| इसकी फिल्ममेकिंग को मणि कौल की धारा का माना जा सकता है जहाँ अभिनय पर उस तरह से ध्यान नहीं दिया जाता कि दर्शक भावनाओं के बहाव के साथ बहे बल्कि दृश्य अपनी सम्पूर्णता में अपना सन्देश दर्शक तक लेकर जाते हैं|
सिनेमेटोग्राफी (कृष्ण सोरेन) , आर्ट डायरेक्शन (राजीव रंजन), संपादन (मोर्टन होय्बर्ग) , संगीत (प्रवेश मल्लिक) और निर्देशन (सुमीत मिश्रा) आदि सभी विभागों में फ़िल्म धनी है| कुमार गन्धर्व जैसे शास्त्रीय गायकों के स्वरों में अमर हो चुके कबीर भजनों को अन्य गायकों के स्वरों में सुनना भला प्रतीत होता है|
फ़िल्म में तीन कहानियां हैं जो एक ही मूल से तीन राहों में विभक्त होती हैं और अंत में एक ही जगह आकर मिल कर अपनी अपनी राह पकड़ लेती हैं|
कथा 1 – यात्रा
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एक युवक – नरेन (राहुल बग्गा), को मठाधीश देह त्यागने से पूर्व अपने मठ का नया महंत नियुक्त कर जाते हैं| अपने गुरु के अंतिम क्षणों में उसे अपने जन्म की वास्तविकता और अपने असली जैविक पिता के बारे में सत्य का पता चलता है तो उसके अन्दर अपनी जैविक माँ के प्रति गहरी नापसंदगी जन्म लेती है| अपनी मरणासन्न माँ के पास भी वह नहीं जाना चाहता| उसके पिता, उसकी जैविक माँ के पति, उसे आश्रम में आकर वास्तविकता बताते हैं तो वह अपनी माँ के अंतिम दर्शन करने अपने घर जाता है जिससे उसकी माँ के प्राण निकल सकें|
मठाधीश एवं संन्यासी बनने से पूर्व नरेन अपने जीवन में अपने हम उम्र साधारण युवकों की भांति एक युवती सरला (तारा–अलीशा बैरी) संग प्रेम में था और दोनों के समक्ष स्पष्ट था कि उनका विवाह जल्द हो जाएगा| लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं| गेरुआ पहने युवक तमाम तरह के असमंजसों से घिरा हुआ है| उसे स्वंय नहीं पता कि सत्य क्या है लेकिन मठ में उसके पद, और उसके संन्यासियों से गेरुए वस्त्रों के कारण लोग उसके पास आते हैं, और वह उन्हें नियमित प्रवचन भी दिया करता है|
अध्यात्म के दो पहलू हैं| एक कर्मकांड करते चले जाते लोगों के पास दिखाई देता है लेकिन उनके पास होता नहीं और दूसरा शान्ति से अध्यात्मिक उन्नति की राह पर निजी अकेली यात्रा करते यात्रियों के पास होता है, उनके पास भी होता नहीं है बल्कि कभी का म कभी ज्यादा मात्रा में आता रहता है, लेकिन उनके प्राप्य के बारे में दूसरों को मुश्किल से ही पता चल सकता है और वह भी तभी जब वे स्वयं ही इसे जताने लगें|
चित्रकार रहे नरेन को आज चित्रकारी भी बस समय काटने का साधन लगती है| सरला को उसका गेरुए वस्त्र धारण करना, मठ के महंत के पद पर बैठना एक ऐसा परिवर्तन भर लगता है जिसमें भी कह उसकी सहयात्री है और उसके लिए उन दोनों का प्रेम इन बातों से इन परिवर्तनों से अपरिवर्तित होने वाला एहसास है| वह उससे पूर्व की भांति छेड़खानी किया करती है| लेकिन उसे यह एहसास भी होता जाता है कि नरेन उसकी उपस्थिति में भी उसके पास तो नहीं ही है और उसके साथ तो बिलकुल ही नहीं है|
उसके साधारण काल की प्रेमिका उसके समक्ष समपर्ण करने आती है, और उससे जीवन का गूढ़ प्रश्न कहती है,
“इस वस्त्र का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है| हमारी आत्माएं एक दूसरे से प्यार करती हैं| कोई रंग या वस्त्र हमारे बीच कैसे आ सकता है?“|
युवा संन्यासी नरेन के पास न युवती के प्रश्नों का उत्तर है, न अपने अन्दर उमड़ते प्रश्नों का|
मोह उसे अपने आगोश में ले ले, उससे पहले ही वह मोह के धागे तोड़कर वहां से चला जाता है|
नरेन सरला से अपने अन्दर चले रहे अस्तित्व संबंधी द्वंदों को साझा नहीं कर पाता| वह ध्यान में, जाप में, तप में शांति और सत्य की खोज करता है लेकिन उसके लक्ष्य उससे हजारों मील दूर हैं|
सरला को सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह करना है वह एन अपने विवाह के समय उससे मिलने और उससे आशीर्वाद लेने आती है| नरेन के आश्रम के सामने ही गंगा बहती है, जैसे गंगा अपने बहाव के संग अथाह जलराशि को आगे बहा ले जाती है, और चाह कर भी कोई अपनी अंजुरी में लिए जल की भी पूरी मात्रा नहीं ले सकता वह भी हाथों के बीच से इधर उधर से निकल ही जाएगा, वैसे ही युवक अपने सामने अपने जीवन के एक बेहद महत्वपूर्ण अध्याय को समय के बहाव में आगे जाते हुए देखता है|
जीवन बहुत निरपेक्ष भाव से और बेहद बुद्धिमानी से और बड़ी बारीकी से भ्रमों से घिरे नरेन की परीक्षा लेता है| एक विदेशी युवती डोरा (अनास्तासिया कैली) संन्यासी नरेन के प्रवचन सुनने रोज आती हैऔर एक शाम उससे निवेदन करती है कि उसे अपनी कोख से शिव को जन्म देना है और उसे यह आशीर्वाद वही दे सकता है|
जो नरेन अपनी प्रेमिका संग संबंध न बना पाया वह इस नियोग के लिए तैयार हो जाता है| इतिहास अपने को दुहराता है| उसके सामने उसके अपने जन्म की कथा आ खडी होती है| क्षण भर में सत्य उसके अपने भौतिक अस्तित्व का सच उसके सामने आ जाता है| वह यहाँ से भी पलायन कर जाता है|
उसे मठ के बंधे बंधाये रीति रिवाजों से अपने अन्दर घुमड़ते प्रश्नों के उत्तर मिलते नहीं दिखाई देते और वह मठ और मठाधीश दोनों का त्याग करके निराश्रय होकर ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग पर चला जाता है|
नरेन अपने मार्ग से सरला और डोरा, दो स्त्रियों को दूर करता है, और उन दोनों की अपनी अपनी यात्राएं फ़िल्म की दो अन्य कथाओं को दर्शाती हैं|
कथा 2 – मणिकर्णिका के घाट पर जीवन और मरण का चक्र
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सरला का सजातीय विवाह उसे बनारस में अपनी ससुराल में ले आता है| उसका पति (जयेश यादव) अपनी विधवा माँ के साथ वहां रहता है| उसकी ससुराल मणिकर्णिका घाट के एकदम ऊपर स्थित है| उसके कक्ष की खिड़की से हर समय वहां मनुष्य के अंतिम दाह संस्कार की झांकियां ही नहीं दिखाई देतीं वरन उस प्रक्रिया से उठी गंध भी उसकी ससुराल और उसके कक्ष में समाती रहती है| दर्जनों अगरबत्तियां भी उस गंध को नहीं दबा पाती|
युवती अपने विवाह पूर्व जीवन के प्रेम संबंध के मृत शरीर (उसकी यादें) को ढो रही है, और मृत शरीरों के दाह संस्कारों के दर्शन और उनसे उपजी गंध और “राम नाम सत्य है” के जाप की निरंतर कानों में पड़ने वाली ध्वनि से उसका जीना दुश्वार हो जाता है| वह अपने वैवाहिक जीवन को स्वीकार नहीं कर पाती| उसके वैवाहिक जीवन में निषेध का अतिक्रमण हो जाता है और उसके अन्दर बस गए विरोध उसके और उसके पति के बीच एक पूरा संसार बसा लेते हैं| वह बहु होने के कर्तव्य तो निभाती रहती है लेकिन उसका दांपत्य जीवन आरम्भ भी नहीं हो पाता| वह अपने पति पर दबाव डालती है कि कहीं और घर ले ले जिसे वह यह कह कर नकार देता है,
” पांच पीढ़ियों से मेरा परिवार यहाँ रहता आया है | और इस मसान के कारण ही बहुतों के घर चूल्हा जलता है “|
एक दिन युवती का भूतकाल उसके लिए भी सच में ही भूतकाल बन जाता है और वर्तमान की वास्तविकता का बोध उसे होता है और वह अपने वर्तमान में जागरूक होकर कदम उठाती है जिससे भविष्य का निर्माण हो सके| उसकी पहल से सहसा उसके और उसके पति के बीच बसे भूतलोक की विदाई हो जाती है और वे दोनों एक दूसरे को वर्तमान में स्वीकार कर लेते हैं| घर में एक प्रसन्नता का वातावरण प्रसारित हो जाता है| सरला का पति भी मन से मनों भारी दबाव के हटने से हवा की तरह हल्का होकर खिलखिलाने लगता है|
आज फिर जीवन शुरू हुआ है उस घर में!
मृत्यु एक नितांत निजी दुःख है| एक युवक डोली में बिठाकर अपनी पत्नी को घर ला रहा है और उसी के आस पड़ोस से उठकर किसी की अर्थी शमशान घाट की ओर जा रही होगी| किसी की मृत देह शमशान घाट में चिता की अग्नि के सुपुर्द हो रही है और किसी की जीवित काया कामाग्नि की कैद में जल रही है| किसी की अर्थी सजाई जा रही हैं और वहीं आसपास देह के वस्त्रों की गिरहखुल रही हैं| किसी की मृत देह चिता में राख बन कर नष्ट हो गयी है और वहीं आस पड़ोस में किसी की कोख में नव जन्म अंकुरित हुआ है|
शमशान घाट पर मृत व्यक्ति के परिवार वाले, सगे संबंधी, मित्रगण दुःख में विलाप करते हैं और उसी के पास बने घरों में बुजुर्ग और युवा अपने घरों में नवजात शिशुओं की कल्पना या वास्तविक बाल लीलाओं के आनन्द में खोये होते हैं| कोई बीमार तड़प कर जीवन लीला समाप्ति के क्षणों में दर्द को भोग रहहि और वहीं कहीं स्त्री प्रसव पीड़ा से गुजर रही है|
अनादि काल से यह जीवन मृत्यु का चक्र चला आ रहा है और आगे भी अनंत काल तक चलता रहेगा|
कथा 3 – तंत्र
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संतान प्राप्ति का अनुरोध नरेन द्वारा अस्वीकृत किये जाने से निराश डोरा की बनारस में यात्रा चलती रहती है| और उस पर एक तंत्र साधक- त्रिलोकी (अश्मिथ कुंदर) की दृष्टि पड़ती है, जिसका गुरु उसे तंत्र में पञ्च-मकार के महत्त्व और उनके द्वारा पाई जाने वाली सिद्धि के बारे में ज्ञान दे रहा है|
पञ्च-मकार के बारे में गलत धारणाएं वाममार्गी तंत्र साधकों में बहुतायत में फ़ैली हुयी हैं| डोरा भी त्रिलोकी को मत्स्य साधना के सही अर्थ के बारे में बताती हुए कहती है कि उसने इससे सम्बंधित श्लोक का शाब्दिक अर्थ गलत रूप में लगा लिया है| यह इड़ा और पिंगला नाड़ी के नियंत्रण संबंधी साधना है न कि गंगा और यमुना नदियों के संगम में पाई जाने वाले मछलियों के भक्षण से संबंधित कर्मकांड|
ऐसे ही त्रिलोकी को अन्य चारों मकारों के संबंध में सही ज्ञान दिखाई देने लगता है और वह सही राह पकड़ आगे चलने का प्रयास करता है| त्रिलोकी से भी डोरा अपनी कोख में शिव को धारण करने की बात करती है और धीरे धीरे उसके प्रेम में पड़ जाती है जबकि त्रिलोकी अनासक्ति की ओर जाना चाहता है| वह भी नरेन जैसे द्वन्द से जूझता है लेकिन अंततः वह डोरा के प्रेम में जीवन और साधना दोनों को जीने की राह पर चलता है|
बनारस और अन्य हिन्दू धार्मिक स्थल अध्यात्मिक साधना के लिए उर्वर भूमि प्रदान करते हैं, और साथ ही वहां अध्यात्म के नाम पाखण्ड भी पसरा हुआ है और इन सब धुंधलकों के बीच से साधक को सही और सच्ची राह ढूंढ कर अध्यात्मिक उन्नति की ओर चलते जाना है|
यह आवश्यक नहीं कि केवल भारत में जन्म लेने, या हिन्दू परिवार में जन्म लेने मात्र से ही कोई अध्यात्म की यात्रा के लिए उचित पात्र बन जाता है| इसमें किसी भी देश में जन्मा, किसी भी सम्प्रदाय में जन्मा व्यक्ति सुयोग्य पात्र हो सकता है| सब कुछ उसके मूल स्वभाव, निष्ठा और सत-प्रयासों पर निर्भर करता है|
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अंत में गंगा तट पर सितार बजाने में मग्न नरेन की दृष्टि नौकाविहार करती सरला पर पड़ती है जो अपने पति और 3-4 साल के बेटे के साथ नाव में बैठकर उसके बायीं ओर से नजदीक से गुजरती है| सरला की दृष्टि नरेन से मिलती है तो वह अपने बेटे को उठाकर अपनी गोद में बिठा लेती है|
नरेन्दू के दायीं ओर से गुजरती दूसरी नाव में मांग में सिन्दूर लगाए डोरा, त्रिलोकी एवं एक बच्चे के साथ बैठी दिखाई देती है, बच्चे को शिवजी के मेकअप में बिठाया हुआ है| डोरा की निगाहें भी नरेन से आ टकराती हैं|
क्षण भर को सरला और विदेशी युवती को देख नरेन की आँखों में उसके जीवन के पूर्व कालों के भाव उमड़ते हैं लेकिन शीघ्र ही संभाल कर नरेन पुनः सितार बजाने लगता है|
जीवन की अपनी अपनी नदी में सारे पात्र विहार करते ही रहेंगे और अपनी पात्रता अनुसार अध्यात्मिक उपलब्धियां पाते रहेंगे, अपनी समझ अनुसार अपने अपने भ्रमों के बादलों को छांट पायेंगे| यह सिलसिला भी यूं ही चलता रहेगा|
….[राकेश]
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