ताजिराते हिन्द की दफा 304 के लिए एक अनोखी सजा सुनाकर दुश्मन फ़िल्म में जज महोदय (रहमान) गैर- इरादतन अपराध कर जाने वाले व्यक्ति को सुधरने का अवसर देते हैं|
किसी सामान्य व्यक्ति से गैर-इरादतन कोई अपराध हो जाए, इसमें उसकी लापरवाही भी एक कारण हो सकती है या परिस्थितिजन्य कोई अन्य कारण भी उससे इस अपराध को करवा सकता है|
मसलन कोई नशे में गाडी चला रहा हो और उसकी गाडी से किसी का एक्सीडेंट हो जाए, या मौसम इतना ख़राब हो कि इस कारण वह दुर्घटना कर बैठे, या कि खराब मौसम में शराब पीकर वह गाडी चलाये और दुर्घटना कर दे जिसके कारण दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की मौत हो जाए|
अब गाडी वाले की तरफ के लोग मरने वाले को दोषी ठहराएंगे कि वह गाडी के सामने आ गया| मरने वाले के परिवार वाले ड्राईवर की लापरवाही को दुर्घटना का कारण बताएँगे और उसके लिए सख्त से सख्त कार्यवाही की मांग करेंगे| पुलिस और इंश्योरेंस वाले अपने स्तर पर जाँच करेंगे कि दोष किसका था?
क़ानून ड्राईवर को हत्या के लिए दोषी न मान, गैर-इरादतन हत्या का दोषी ठहरा सकता है| मृतक का परिवार अपनी हानि को देखते हुए मुलजिम को सजाये मौत दिलवाना चाहेगा| खून का बदला खून!
लेकिन अदालत तो ऐसे अपराध में उम्र कैद भी नहीं दे सकती| अधिकतम सात साल का कारावास उसे दिया जा सकता है| कारावास में ऐसे मुजरिमों, जिनकी कोई पृष्ठभूमि अपराध करने की नहीं रही, के लिए बड़ी मुश्किल है क्योंकि जेल में वे शातिर अपराधियों के साथ सजा की अवधि काटेंगे और वहां के जंगली क़ानून में ज़िंदा रह सकने के लिए उन्हें भी तमाम तिकड़में सीखनी पड़ेंगी और वे पहले से ज्यादा शातिर बन कर जेल से बाहर आयेंगे| सजा की कठिनाई के डर से भले वह कोई अपराध न करे लेकिन जेल जाने से पहले की उसकी मासूमियत जेल में रहने के बाद कायम नहीं रह सकती| जेलें और पक्का अपराधी व्यक्त को बना देती हैं|
क्या इस स्थिति में कोई सुधार लाया जा सकता है?
ऐसे प्रश्नों से जूझ रहे वीरेन्द्र सिन्हा के उपन्यास को फ़िल्म बनाने के लिए अपनाया निर्माता प्रेमजी, ने और निर्देशक दुलाल गुहा के साथ फ़िल्म – दुश्मन बना डाली|
राजेश खन्ना के सितारे तब बुलंदी पर थे और इस फ़िल्म को भी उन्होंने एक बड़ी हिट फ़िल्म बना दिया|
फ़िल्म में अदालत में मुकदमा सुन रहे जज साहब (रहमान) क़ानून, अपराध और सजा के क्षेत्र में कुछ नया और अच्छा करने की इच्छा से क़ानून के नियंत्रकों से इस एक केस में एक प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त कर लेते हैं और अपने ट्रक से एक किसान को मार देने वाले नायक सुरजीत (राजेश खन्ना) को दो साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाते हैं| पर यह सजा उसे जेल में रहकर नहीं काटनी बल्कि मृतक के गाँव में उसके घर पर रहकर, उसके बूढ़े माता- पिता और परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करते हुए काटनी है| मृतक अपने परिवार में अकेला कामकाजी वयस्क पुरुष था| उसके वृद्ध पिता (नाना पलसीकर) पैरों से अपाहिज हैं, माँ (लीला मिश्रा) रख नहीं सकतीं| मृतककी पत्नी और दो छोटे बच्चे हैं| एक अविवाहित बहन (नाज़) है जिसकी शादी उसे इस वर्ष फसल काट कर बेचने पर कर देनी थी| और उसकी पत्नी है|
अपने को निर्दोष बता रहा सुरजीत के ऊपर इस सजा को सुनकर गाज गिर जाती है| वह तो यही आशा कर रहा था कि खराब मौसम की बात सिद्ध होने के कारण जज साहब उसे छोड़ देंगे और वह तो अपने रास्ते जा रहा था किसान ही उसके सामने आ गया था| लेकिन यहाँ तो उसे सजा के नाम मृतक के घर पर रहने की अजीब कैद दी जा रही है| मृतक की पत्नी, और उसके माता-पिता की नफरत से भरी आँखों को सहकर कैसे वह उनके घर में रह लेगा|
उसके लिए ही यह सदमे से कम नहीं, मृतक के परिवार के लिए भी यह अनोखी सजा असहनीय है| लेकिन दोनों पक्ष क़ानून के सामने बेबस हैं|
यह इतना जबरदस्त सिनेरियो राजेश खन्ना को मिला था| यह तो स्पष्ट ही है कि फ़िल्म नायक द्वारा उस ग्रामीण परिवार का दिल जीतने की कहानी है| लेकिन इस मंजिल को प्राप्त करने के लिए नायक के चरित्र को जो आर्क मिलता है उस नाटकीयता को राजेश खन्ना ऐसे निभाते हैं जैसे वीरेन्द्र सिन्हा ने उन्हीं के लिए उपन्यास लिखा था| नाटकीय परिवर्तनों में वैसे भी राजेश खन्ना की स्क्रीन प्रेजेंस का मुकाबला कम ही अभिनेता कर पाए हैं|
जिस सजा को रद्द करने के लिए नायक शुरू में जज के सामने गिडगिड़ाता है उसी के अच्छे व्यवहार के कारण उसी सजा की अवधि कम करने के फैसले से स्तब्ध होकर वह रोते हुए जज के पास पहुँचता है कि उस की सजा कम न की हाय अभी तो उसे खेत में जुताई करनी है, बुआई करनी है, फसल काट कर और बेचकर माँ की आँखों का इलाज कराना है, बच्चों को स्कूल भेजना है… और पचासों कम बचे हैं|
उस निर्दयी लापरवाह इंसान में आये बदलाव को देख मुस्कुराते हुए जज जब उससे कहते हैं कि वह अब आज़ाद है, जहाँ चाहे जिसके साथ रहे, जो चाहे करे, क़ानून अब उसकी निगरानी नहीं करने जा रहा, तब उसकी समझ में आता है कि अब वह कैदी नहीं है| सजा काटकर आया नागरिक है|
फ़िल्म में गाँव में जाने के बाद नायक और मृतक के परिवार के मध्य रिश्ते जिस गति और तरीके से बदलते हैं वह रोचक और दर्शनीय फ़िल्म प्रस्तुत करते हैं|
व्यक्ति एक ही मरता है लेकिन उसके मौत का असर उसी के परिवार के अलग अलग सदस्य पर अलग अलग पड़ता है|
माता-पिता का एकमात्र सहारा टूटा तो उनके बेटे की मौत के जिमेदार व्यक्ति को जब जबरदस्ती उनके घर भेजता और ठहरवाता है क़ानून तो, उनकी इसके प्रति नफरत अलग किस्म की है| व्यक्ति जब वे सब काम करने लगता है जो उनका बीटा जीवित रहता तो करता तो उनकी उसके प्रति भावनाएं बदलने लगती हैं|
सबसे कठिन आमना सामना है कैदी और मृतक की पत्नी मालती (मीना कुमारी ) का| मालती के निगाहों में बसी नफ़रत को जिस ठंडक से मीना कुमारी ने दर्शाया है वह देखने की बात है| ऐसी स्थितियां भी आती हैं जब गाँव वाले, मृतक का परिवार ही नहीं बल्कि दर्शक भी नायक के रूप में राजेश खन्ना के चार्म से बंध चुके होते हैं तब एक अकेली मालती के रूप में मीना कुमारी विरोध का परचम लहराए रहती हैं और फ़िल्म में नायक को चैन की सांस नहीं लेने देती कि वह अपने को पाप और दोषमुक्त समझने लगे और जब अंत में नायक का पश्चाताप देख अपने विरोध के अंतिम स्तम्भ को वे गिराती हैं तो नाटकीयता में राजेश खन्ना को कड़ी टक्कर देती हैं| लगभग उसी समय गुलज़ार की मेरे अपने में वे एक दयालू वृद्धा की भूमिका में अभिनय कर चुकी थीं| और यहाँ उससे उलट एक कठोर, चोट खाई, बदले की भावना से भरी स्त्री के रूप में वे परदे पर शोले जलाए रखती हैं| राजेश खन्ना और मीना कुमारी के टकराव के लिये यह एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है|
फ़िल्म की कई विशेषताएं हैं| लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत से सजे गीतों को लिखा आनंद बक्शी ने और इसके एक गीत – वादा तेरा वादा, किशोर कुमार के बेहद सफल और प्रसिद्द गीतों में से एक हैं| इस गीत से वे अपना वॉयस टेक्सचर बदलते हैं और इस करारेपन के साथ अगले कुछ सालों में कई कालजयी गीत अपने गायन के प्रेमियों को भेंट में देते हैं|
फ़िल्म में लगभग एक घंटे बाद नायिका का आगमन परदे पर होता है और मुमताज़ की उपस्थिति परदे पर क्या ऊर्जा बिखेरती थी यह स्वतः ही दर्शक को पता लग जाता है|
फ़िल्म में एक सरप्राइज़ पैकेज के रूप में धनात्मक भूमिका में नज़र आते हैं कन्हैयालाल| वरना गाँव की स्टोरी आधारित फिल्मों में जब तक जमींदार या उसके मुंशी बनकर कन्हैयालाल नायक, नायिका और अन्य गाँव वालों का जीना मुश्किल न कर दें, तब तक दर्शकों को आनंद नहीं आता था| वे अपने हरेक क्षण की उपस्थिति से दर्शक को चौंकाते हैं|
ब्रिटिश तौर तरीकों से अंगरेजी बोलने वाले राजेश खन्ना ने गरीब, कम पढ़े लिखे चरित्रों को इस विश्वसनीयता से फिल्मों में निभाया है कि इस मामले में उन पर संदेह कभी नहीं उठता कि उन पर भूमिका सजेगी या नहीं|
तलवार कट मूंछों से सजे चेहरे से वे ट्रक ड्राईवर की भूमिका में कतई एक विषम चुनाव नहीं लगते| चरित्र की नासमझी, असंवेदनशीलता के स्तर से उठकर एक समझदार एवं संवेदनशील इंसान बनने की यात्रा को उन्होंने बहुत कुशलता से दर्शाया है| उनके अन्दर आते परिवर्तन के साक्षी इन्स्पेक्टर (अभि भट्टाचार्य) ही नहीं बल्कि उनके साथ साथ दर्शक भी होते जाते हैं|
नायक की इसी यात्रा की धुरी पर ही फ़िल्म टिकी हुयी है
जिसे गाँव वाले दुश्मन नाम से जानते थे, उसकी अगवानी करने के लिए सारा गाँव और विशेष कर उसके हाथों मरे युवक का परिवार खड़ा रहता है|
…[राकेश]
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