ओ टी टी पर प्रदर्शित श्रंखलाओं में पंचायत की अलग ही महिमा है| इसके अलग स्वभाव और इसमें दिखाए संसार ने दर्शकों को बेहद मजबूती से अपना प्रशंसक बनाया है| नामी गिरामी अभिनेताओं से सजी श्रंखलाओं ने वैसा दर्शक वर्ग नहीं जुटाया जैसा पंचायत ने कर दिखाया है| इसके कुछ कारण समझ आते हैं|

(1) पंचायत : जल्दबाजी, नग्नता और गली गलौज के दौर का एक एंटीडोट

रील्स के दौर में भारतीयों के लिए 2 मिनट का धैर्य एक दुर्लभ प्राप्य बन चुका है| इसी कारण सिनेमा विधा के सभी नमूनों पर भी इस बात का असर पड़ा है| कला के क्षेत्र में विभिन्नता बनी रहे तो एक संतुलन बना रहता है लेकिन ओ टी टी पर तो हर प्रकार का कार्यक्रम एक ही रंग में रंगा होकर आने लगा जहां नग्नता और गाली गलौज ने पारिवारिक कार्यक्रमों को भी डस कर विषैला बना दिया| अभिनेताओं को छोड़ भी दें, अभिनेत्रियाँ भी धड़ल्ले से प्रकृति से ही स्त्री विरोधी गालियाँ परदे पर बकने लगीं| जिन कार्यक्रमों के शीर्षक में ही फैमली शब्द जुड़ा था वैसे कार्यक्रम भी इस गाली और नग्नता के वायरस से बचे नहीं रह सके|

ऐसे में प्राइम विडियो पर टी वी एफ द्वारा निर्मित पंचायत सीरीज का जन्म हो गया और इसने समूचे ओ टी टी में फैले वातावरण के विरुद्ध एक एंटीडोट का काम किया|

सिनेमा ने तो गाँव को बहुत साल पहले तिलांजलि दे दी थी| गाँव का एक सटीक चित्रण पिछली सदी समाप्त होने से तीन साल पहले सुभाष अग्रवाल की फ़िल्म रुई का बोझ में ही देखने को मिला था|

(2) पंचायतसचिव अभिषेक और शहरी दर्शक

जो दर्शक कभी गाँव में नहीं रहे, या अल्पकाल के अवकाश में भी गाँव नहीं गए वे केवल अभिषेक त्रिपाठी, सचिव, ग्राम पंचायत, फुलेरा गाँव, नामक चरित्र की ओर से ही पंचायत श्रंखला में प्रवेश कर सकते थे| वह शहर से अनमने भाव से मजबूरी में शहर से गाँव में नौकरी करने गया था और उसी के जैसे शहरी दर्शकों ने भी इस श्रंखला को अनमने भाव से ही देखना शुरू किया होगा| फिर वार्ड ऑफ़ माउथ की पब्लिसिटी से इसके दर्शक बढ़ते ही चले गए|

(3) अभिषेक और रिंकी

पंचायत में जो घटता है और घट रहा है वह स्वाभाविक तरीके से ही घटता है| अभिषेक शहर से आया है तो उम्र के अनुसार स्त्री जाति में उसकी ट्यूनिंग प्रधान जी की बेटी रिंकी, जो गाँव के अनुसार आधुनिक है, जींस शर्ट पहनती है, थोडा बहुत अंगरेजी बोल समझ लेते है, से ही हो सकती है| तो सीरीज इस एंगल को आगे बढाती है|

फुलेरा गाँव का रंग ऐसा चढ़ जाता है दर्शकों पर कि सीज़न 3 की शुरुआत में गुडगाँव में अभिषेक द्वारा बिताये गए समय का दर्शन दर्शकों के लिए बोरियत लेकर आता है और वह चाहता है कि कैमरा जल्दी से फुलेरा गाँव पहुँच कर वहां के निवासियों के किस्से दिखाए|

पिछली बार वह अनमने भाव से यहाँ आया था लेकिन इस बार रिंकी के आकर्षण के कारण वह प्रसन्न चित होकर यहाँ वापिस आता है|

वह रिंकी के उद्दंड व्यवहार के सामने कमजोर पड जाता है, दोनों ही अपने अपने पाले में खड़े एक दूसरे से मन की बात कह नहीं पाते| उनकी संयुक्त कथा पर ही चौथे सीज़न का दारोमदार टिकेगा| अभी भी उनका परस्पर संबंध गति, अवरोधक और ब्रेक्स के बीच के असंतुलन से गड़बड़ाया हुआ है|

(4) प्रहलाद का दुःख

कविता कालातीत रचना होती है लिखी हजारों साल पहले रची गई कविता आज के मानव के भावों को व्यक्ति कर सकती है, उसे सहारा दे सकती है|

जीने के लिए सोचा ही नहीं

दर्द संभालने होंगे

मुस्कराए तो मुस्कराने के

कर्ज उतारने होंगे (गुलज़ार)

इकलौते पुत्र -राहुल, की चिता को मुखाग्नि देने के बाद केश और दाढी मूंछे मुंडवाए, रोते हुए विशाल काया के स्वामी प्रहलाद के साथ पंचायत सीरीज के प्रहलाद के साथ के चरित्र निभाते कलाकार ही नहीं रोये, उस दुःख के सामने सारे देश के कोने कोने में जाने किस किसके आंसू बहे, क्योंकि दर्शकों के ये आंसू हर उस युवा राहुल के लिए थे जो देश की आन, बान , मर्यादा और सुरक्षा के लिए सीमाओं पर दुश्मनों के आक्रमणों को बेअसर करते हुए शहीद हो जाता है, होता ही रहता है क्योंकि दुनिया को हिंसा में रस आता है, दूसरे देश की शान्ति और प्रगति से ईर्ष्या होती है|

एक विधुर ने जिस संतान को अकेले बड़ा किया हो और जिसके साथ हर साल उसकी छुट्टियों में थोडा सा वक्त बिताने का इंतज़ार वह हर वक्त करता हो, एक दिन शहीद का दर्जा पाकर उसकी याद शेष रह जाए और उसे भौतिक रूप में देखा ही न जा सके तो बेटे के सुखद भविष्य के सपने लिए जीते हुए पिता पर कैसे आघात लगते होंगे, यही सब पंचायत ने और प्रहलाद के चरित्र ने देश के सामने सजीव रूप से रख दिया और युद्ध की विभीषिका से परिचितों को और ज्यादा परिचित करवाया| युद्ध पिपासु इंसानों के एक तबके को ऐसे चरित्र को देख कर संवेदना जगानी चाहियें कि उनकी युद्ध की लालसा का असर जीते जागते इंसानों पर कैसा पड़ता है?

इकलौते जवान बेटे को खो चुके विधुर प्रहलाद के जीवन में कोई रस नहीं बचा| यह भी वह नहीं पूछ सकता कि यह दुःख कब ख़त्म होगा? क्योंकि यह दुःख कभी ख़त्म नहीं होगा| उसका दुख जीवन भर का दुःख है| बस वह अन्य कामों में दिल लगाकर इस दुःख के सारांश को दिल में बसाकर जीवन को नए अर्थ दे सकता है|

व्यक्ति दूसरे के दुःख के सामने अपने दुःख को भूल सकता है| गाँव के प्रपंच कब तक प्रहलाद के दुखी मन को भटकाए और अटकाए रह सकते हैं यह महत्वपूर्ण बात है| मोहभंग की स्थिति कब आयेगी इसी पर प्रहलाद के चरित्र का अस्तित्व टिका हुआ है|

(5) फुलेरा का भाईचारा

पंचायत सीरीज जो कर रही है वह लोगों के आपसी संबंध का महत्त्व धीरे से दर्शकों के अन्दर बसा रही है| गाँव बिलकुल भी ऐसे नहीं बचे जैसे गाँव के रूप में पंचायत का फुलेरा गाँव सामने आता है लेकिन गाँव ऐसे और इससे बेहतर हो सकते हैं, उस आशा को पंचायत श्रंखला जीवित अवश्य रख रही है| सिनेमा ने लगातार मैत्री के, भाईचारे के संबंधों को आधुनिकता के नाम पर तोडा है उसे यह श्रंखला चुपके से पुनर्जीवित कर रही है|

प्रहलाद के दुःख से सारा गाँव परिचित है, और राजनीतिक खींचातानी में भी विरोधी गुट भी प्रहलाद पर सीधे आकमण नहीं करता और अपने विरोध की बन्दुक प्रधान की ओर ही ताने रखता है|

(6) स्त्री प्रधान का मजबूत होता व्यक्तित्व

पंचायत धीरे से स्त्री पंचायत प्रमुख मंजू देवी (नीना गुप्ता) के संतुलित व्यक्तित्व के माध्यम से नैतिकता का स्थान कीचड बन चुकी राजनीति में बना रही है| जहां उनके पति प्रधान जी (रघुबीर यादव) का पूरा जोर येन- केन- प्रकारेण चुनाव जीतने के ऊपर रहता है मंजू देवी विजय के लिए गलत साधन का उपयोग करने के पक्ष में नहीं रहतीं| जिस तरह से प्रगति हो रही है कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर स्त्री पंचायत प्रधान को चौथे या पांचवे सीज़न में स्थानीय विधायक या उसके कठपुतली उम्मीदवार के विरुद्ध विधायकी का चुनाव लड़ना पड़े| पंचायत के अंकुर जिस जिस जमीन में फूट रहे हैं उससे यही स्वाभाविक राह निकलती दिखाई देती है आगे कि जिससे कि नैतिकता को कसौटी पर कसा जा सके|

लगातार मजबूत होती जाती और धीरे धीरे अपने गुणों को प्रदर्शित करती जाती महिला प्रधान के बदलते हुए चरित्र में नीना गुप्ता सटीक अभिनय भरे सधे क़दमों से आगे बढ़ रही हैं|

(7) प्रधान जी, न्यायोचित दृष्टि और कमजोर होती स्थिति

न्याय का तकाजा होता है कि कुर्सी चाहे ग्राम पंचायत की हो, या प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल की या मंत्री की, या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की या सोशल मीडिया जैसे फेसबुक पर स्थित समूहों के एडमिन पैनल्स की ही क्यों न हो, निर्णय देने वाली कुर्सियों पर पदासीन होने के बाद व्यक्ति की निजी पसंद नापसंद का कोई अस्तित्व नहीं होना चाहिए| अब पदासीन व्यक्ति को न्याय करना होता है भले उसके सामने ऐसे लोग भी क्यों न हों जो उसके विरोधी हों या उसके सबसे चहेते लोग सामने हों, अब उसका दायित्व न्याय करना है पक्षपात नहीं| और इस गुण के मंजू देवी में उपस्थित होने के संकेत पंचायत सीरीज दे रही है|

प्रधान जी द्वारा न्याय की लक्षमण रेखा पार करके पक्षपात की ओर चले जाने से आगे उन्हें पैसिव भूमिका में जाना पड़ेगा अन्यथा आज उनके पक्षपाती तरीकों पर विरोध जताने के बाद भी उनके नजदीकी लोग उनकी पत्नी – पंचायत प्रमुख, सचिव- अभिषेक और उप प्रधान- प्रहलाद, उनका साथ दे रहे हैं लेकिन आगे उन्हें ऐसी राह चुनने पर उनका साथ नहीं दे पायेंगे|

रघुबीर यादव कभी मौन रहकर कभी मुखर होकर अपने चरित्र को लचीला बनाते जा रहे हैं| जैसे जैसे उनके चरित्र की स्थिति कमजोर होकर बिखरती दिखाई देती है उनकी अभिनय क्षमता चरित्र को हरेक मोड़ पर समुचित सहारा देकर उसे रोचक बनाए रखती है|

(😎 हास्य व्यंग्य की भरपूर डोज़ और रोचक चरित्र

सीजन 3 में हास्य के कुछ मौके बेहद शानदार हैं जहाँ सह भूमिकाओं में परदे पर आने वाले अभिनेताओं ने अपने कॉमिक टाइमिंग से गज़ब का हास्य रचा है, विशेषकर विनोद की भूमिका में अशोक पाठक ने कम समझ लेकिन मुंहफट व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को परदे पर साकार करते हुए जो हास्य रचा है वह श्रेष्ठ हास्य का नमूना है| अशोक पाठक की कॉमिक टाइमिंग अद्भुत है इस सीरीज में|

विधायक द्वारा बीपी की गोली लिए जाने का वर्णन करते हुए विनोद की संवाद अदायगी देख सुनकर, दृश्य में पूरी तरह से खोये दर्शक को हंसी का दौरा पड़ सकता है|

पंचायत रोचक चरित्र और उन चरित्रों में अभिनेताओं, दोनों पक्षों को गढ़ रही है| भूषण की भूमिका में दुर्गेश कुमार दमदार तरीके से एक ऐसे चरित्र को उभार रहे हैं जो शातिर तो पूरा है, और परिश्रमी भी खूब है , जिद का पक्का भी है लेकिन जिसके पास तीव्र बुद्धि नहीं है इसलिए वह हर बार मात खा जाता है और एक कॉमिक विलेन बन कर रह जाता है|

भूषण की पत्नी क्रान्ति देवी की भूमिका में सुनीता राजवर परदे पर भूषण से कदमताल करती स्त्री चरित्र को साकार कर सीरीज में रोचकता बनाए रखती हैं| वे अपनी गोल गोल आँखों का उपयोग ऐसी ही कुशलता से करती हैं जैसा कभी हिंदी फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री मनोरमा किया करती थीं| आँखों का जबरदस्त उपयोग करने में उन्हें टक्कर देती आयीं हैं एक चरित्र जगमोहन की दादी की भूमिका में आभा शर्मा| वे श्रंखला में अपने चरित्र की चतुराई से हास्य भी बिखेरती हैं और संवेदनशील दृश्यों में छोटे छोटे संवाद प्रभावशाली तरीके से बोलकर उन संवादों के दर्शन को भी उभरती हैं|

बम बहादुर (अमित मौर्य) और उसे पीटने आये दो सींक सलाई गुंडों के बीच तालाब के किनारे बैठ बतियाने का भरपूर फ़िल्मी दृश्य हरेक दर्शक का दिल लूट लेगा| जब इस दृश्य को काटकर इसे रील के रूप में उपयोग में लाने लगेंगे लोग तो यह डिजिटल संसार में तूफ़ान ला देगा| जैसे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और हुमा कुरैशी के बीच परमिशन और सिनेमा देखने जाने वाले दृश्य की रोचक बातचीत है वैसी ही रोचकता इस दृश्य में आती है|

दुनिया में कौन सा दर्शक होगा जो इस एक दृश्य पर लट्टू न हो जाएगा जिसमें बम बहादुर द्वारा एक गुंडे से यह पूछने पर कि इस काम के बदले उन्हें पैसा मिलेगा?

एक गुंडा इस अचानक किये प्रश्न से अचरज में पड़कर जैसे खुद से ही कहता है,” मिलना तो चाहिए”|

अमित मौर्य ने बम बहादुर के चरित्र को आसानी से और जल्दी भुला न सकने वाला चरित्र बना दिया है| चेहरे पर एक भोली मुस्कान, माथे पर बिखरे बाल, छोटा कद, और तब भी बड़े बड़े बोल कहकर जिस तरह से अपने चरित्र की स्पष्ट और ईमानदार सोच का प्रदर्शन अमित मौर्य करते हैं, वह लाजवाब है|

पंचायत का हरेक सीज़न किसी न किसी नए रोचक चरित्र को उभार देता है|

तीसरे सीज़न में राजनीति की बिसात बिछाने की तैयारी हुयी है और चौथी में इलाके का सांसद भी फूलेरा के इस रोचक संसार में अपने उपस्थिति दर्शाये बिना रह नहीं पायेगा|

अब मुकाबला बड़े स्तर पर खिसकता जा रहा है|

अभिषेक-रिंकी सबंध का भविष्य, प्रहलाद के निजी जीवन का भविष्य, प्रधान जी एवं मंजू देवी के राजनीतिक भविष्य एवं स्थानीय विधायक संग उनका राजनीतिक दंगल, और भूषण एवं क्रान्ति देवी कितनी जीवटता से विरोध में डेट रहते हैं इस बात का भविष्य, सीरीज की आगे की दिशा तय करेंगे|

जीवन की कलाओं की भांति पंचायत के भिन्न सीजंस दर्शकों को भिन्न अनुभव देते रहेंगे|

…[राकेश]


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