शेरदिल: द पीलीभीत सागा और प्रकृति प्रेमी गुलज़ार :
गुलज़ार घोषित रूप से 90 साल के हो गए हैं| आज भी वे अवसर मिलते ही पूरे संवदेना से हिंदी फ़िल्मी गीतों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए भी वर्तमान में समसामायिक मुद्दों को लोगों के सामने रख देते हैं| उनके गीत श्रोता और पाठक पर आक्रमण नहीं करते बल्कि हौले से ही उनके लिखे बोल अपने अर्थ उसी श्रोता और पाठक के सम्मुख खुलते हैं, जो उन्हें ध्यान से सुने या पढ़े|
ग्लोबल वार्मिंग, वायुमंडलीय प्रदुषण, जल प्रदुषण, धरा पर सूखती जाती नदियों, तेजी से काटे जाते वनों और माइनिंग के कारण नंगे और कमजोर होते पहाड़ों के दौर में वे बिना कोई नारा गढ़े एक ऐसा गीत लेकर आते हैं जो दस साल के बच्चे से लेकर सौ साल तक के व्यक्ति को लुभा सकने में समर्थ है| गीत के बोल जहाँ इतने सरल लगते हैं कि पर्यावरण को विषय के रूप में पढ़ रहे या प्रकृति के सौन्दर्य को जान जाने वाले बच्चे भी आसानी से गीत को सुनते रहें और अपने अर्थ में इतना गूढ़ भी है गीत कि प्रकृति के विशेषज्ञ कवी, और पर्यावरण पर शोध करने वाले विशेषज्ञ भी ऐसा गीत लिख पाने में कठिनाई महसूस कर सकें|
गीत में संवेदना इतनी की प्रकृति की रक्षा की चिंता में गहरे डूबे और प्रकृति से सच्चा प्रेम करने वाले संवेदनशील लोगों की आँखों में नमी कुछ पंक्तियाँ ले आयें तो कोई आश्चर्य की बात न होगी|
गुलज़ार धरा पर ऐसी नाजुकता से बसे लगते हैं कि मानों बुद्ध के तीन क़दमों तक ही देख कर चलने का उपदेश मानते हों जिससे कोई प्राणवान पैरों तले कुचला न जाए| मनुष्य द्वारा अंधे विकास की दौड़ में प्रकृति के विनाशकारी दोहन के काल में प्रकृति की रक्षा बारीक स्तर पर काम करके ही की जा सकती है|
अरे मुठ्ठी मुठ्ठी बोई दे
बीजा
अरे माटी मांगे बूटा
बोई दे रे भैया
अरे बूटा बूटा
बोई दे
उगाई दे
रे भैया
केवल किसान का ही कर्तव्य नहीं है कृषि कार्य के नाते वह बीज बोये, पौधे लगाए, अब यह हरेक मनुष्य का दायित्व हो गया है कि जहां लगा सके वहां वृक्षारोपण करे|
बूटा बूटा उगने दे रे
भूमि अपनी मांगे रे
मांगे उसके गहने रे
जिसे बो दिया उस पौध की रखवाली भी आवश्यक है| पेड़ पौधे, नदी पहाड़ आदि सब धरती के श्रृंगार हैं और गुलज़ार याद दिला रहे हैं कि धरती अपने श्रृंगार की सभी सामग्रियां मांग रही है| गुलज़ार साब ने यहाँ मांगे उसके गहने रे, क्यों लिखा है, यह स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि वे “मांगे अपने गहने रे” भी लिख सकते थे जो व्याकरण की दृष्टि से सही होता लेकिन गुलज़ार गीत में कोई नहीं जानता कि किसी शब्द के विशिष्ट प्रयोग के पीछे उनकी क्या मंशा रही होगी|
पत्ता पत्ता बूटा बूटा
जंगल जंगल रहने दे
जंगल मांगे धूप पानी
धूप पानी बहने दे
हरियाली को बचाए रखना एक अत्यंत आवश्यक दायित्व मनुष्य का है| जंगल को पूर्ण रूप से पनपने, विकसित होने और बने रहने के लिए धूप और पानी की आवश्यकता होती ही है| अगर वायु प्रदुषण धूप को पेड़ों तक पहुचने ही नहीं देगा तो उनका भोजन कैसे बनेगा? अगर जल ही नहीं होगा पौधों और पेड़ों की सिंचाई हेतु तो वे कैसे तो जीवित रह पायेंगे?
इन हरे पेड़ों की
डालियां कट गईं
कुछ पूजा में
कुछ शादियों में
जल गईं
ओ कट गईं
छाँव भी
धूप भी
पेड़ों की
कभी मनुष्य प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहता था और पेड़ों से सूखी लकड़ियाँ लेता था लेकिन फिर भांति भांति के उत्पादों और कर्मों के लिए हरे भरे पेड़ भी काटे जाने लगे| पेड़ की डालियाँ काटने से पेड़ की छाँव और धूप भी कट गईं| एक खूबसूरत दृश्यात्मक अभिव्यक्ति गुलज़ार साब ने रची है यहाँ|
मुझे आवाज़ देती है हवाएं
जंगलों की रे
मुझे दरियाओं का रोना
सुनाई दे रहा है रे
कट गईं
छाँव भी
धूप भी
पेड़ों की
जंगल, दरिया सभी मनुष्य की क्रूरता के विरुद्ध संवेदनशील मनुष्यों के सामने ही चीत्कार कर रहे हैं इस आशा में कि शायद इनके आह्वान पर और मनुष्य जागें और धरती पर प्रकृति को बचाने का उपक्रम करें|
खुश्क होने लग गयी है ये ज़मीं
चल हरे पेड़ों की छाँव बोएंगे
ओढ़ के ये ठंडा ठंडा आसमां
पेड़ के पत्ते बिछाकर सोयेंगे
पेड़ नहीं होंगे तो बारिश को कौन बुलाएगा? सूखती जाती ज़मीं में कौन से पौधे उगेंगे? बीज बोयेंगे, पौधे पनपेंगे, पौधों के वृक्ष बनेंगे| इस सब में समय लगेगा| गुलज़ार साब सीधे पेड़ों की छाँव ही बोने की कल्पना करते हुए आपातकालीन स्थिति की घोषणा करते हैं|
फिर मुझे भूमि की बोली सुनने दे
उगने दे फिर बूटा बूटा उगने दे
दे दे रे भूमि के गहने दे दे रे
धरती पर पेड़ पौधे होते हैं, बेलें फैलती हैं तो पशु पक्षी, कीट-पतंगों, कीड़ों आदि की आवाजों, सरसराहटों, और उनके जीवित होने मात्र से विभिन्न किस्म की आवाजों से धरती गुंजायमान हो जाती है, धरती पर जीवन विभिन्न रूपों में विचरने लगता है और यही विभिन्नता और विविधता वाला जीवन धरती को सौन्दर्य से भर देता है|
एक पर्यावरण विशेषज्ञ पर्यावरण और इसकी रक्षा के ऊपर एक निबंध लिखता जो बहुत प्रभावी हो सकता है, उसमें ऐसे आंकडें हो सकते हैं जो पाठक को हिला दे, और प्रकृति की गंभीर हालत के प्रति जागरूक बना दे| गुलज़ार वैसा ही काम इस अकेले गीत से कर देते हैं|
…[राकेश]
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