सलीम–जावेद द्वारा लिखी गई फिल्मों की सफलता की पतंग आसमान में ऊपर, और ऊपर चढ़ती ही जा रही थी कि पहले ईमान धरम और फिर शान ने उस उड़ान को नीचे गोता लगवा दिया| बीच बीच में डॉन जैसी सुपर हिट फिल्मों ने फिर से उन्हें नई ऊँचाइयाँ उनकी बॉक्स ऑफिस सफलता को प्रदान की लेकिन उनकी फूलप्रूफ सफलता की गारंटी में पंचर तो निस्संदेह हो ही चुका था|
ईमान धरम ने दोनों के या दोनों में से किसी एक के मन में यह ख्याल अवश्य ही रोपा होगा कि उनकी जोड़ी अजेय नहीं है| राजेश खन्ना के लिए हाथी मेरे साथी लिखने वाली जोड़ी ने राजेश खन्ना का चौंधियाने वाली चमक वाला सफलता का दौर और फिर एकाएक उस शिखर से नीचे गिरते जाने वाला काल दोनों देखे थे| राजेश खन्ना के स्टारडम के उतार चढ़ाव जैसा हाल उनके अपने स्टारडम का न हो, इसके लिए उन्होंने भली भांति सोच विचार तो किया ही होगा| फ़िल्मी सितारे अभिनेता से कहीं ज्यादा वास्तविकता का बोध लेखक को हो जाता है क्योंकि वह बुद्धिमत्ता से भरे शब्दों से दिन रात खेलता है|
उनकी जोड़ी की सफलता मिथकीय ही बनी रहे इसके लिए दो ही रास्ते रहे होंगे, या तो वे पुनः ऐसा शानदार प्रदर्शन करें और फिर उस प्रदर्शन को लगातार दुहराते रहें जहाँ उनकी हर फ़िल्म बड़ी सफलता प्राप्त करे| लेकिन ऐसा करना हमेशा संभव नहीं हो सकता| उन्हें तो भली भांति पता चल ही रहा था कि उनकी लिखी हरेक स्क्रिप्ट गुणवत्ता में एक ही स्तर की नहीं थी और उन्नीस बीस का अंतर उनकी हरेक स्क्रिप्ट में आपस में था| बॉक्स ऑफिस पर शान, काला पत्थर और शक्ति जैसी महत्वाकांक्षी फिल्मों द्वारा अपेक्षित सफलता न प्राप्त कर पाने से उन दोनों या किसी एक के मन में अपने उस समय के वर्तमान के बारे में संदेह अवश्य ही जन्माये होंगे|
दूसरा तरीका था, कि किसी भी बहाने से जोड़ी को विश्राम दे दिया जाए क्योंकि उसके बाद एकल प्रयासों से जैसी भी सफलता प्राप्त हो, यह भाव सदा कायम रहता कि दोनों साथ साथ रहते तो कितनी गज़ब की फ़िल्में लिखते!
सलीम साहब ने शायद पहला तरीका सोचा होगा कि फिर से जुटेंगे, और स्क्रिप्ट लेखन की उनकी कला में जो छिद्र उभर आये हैं, उन्हें सीकर पूरी ऊर्जा से और ताजगी से काम करेंगे| सफलता और असफलता तो खेल का हिस्सा हैं|
लेकिन जावेद साहब का सोचना दूसरे ट्रैक वाला होगा तभी एक दिन उन्होंने सलीम साहब से रास्ते अलग करने की बात कह ही दी|
यह कोई मिनट में लिया फैसला नहीं हो सकता जैसा सलीम साहब ने भी कहा कि जावेद साहब को ऐसा तो है नहीं कि एक दिन मेरी चाल या वेशभूषा या अन्य कोई बात पसंद नहीं आई और उन्होंने तुरंत अलग होने का फैसला कर लिया|
ऐसे फैसले एक मिनट में नहीं होते बल्कि बहुत लम्बे सोच विचार के नतीजे के तौर पर लिये जाते हैं|
अलग होने के बाद जावेद साहब के पास फिल्मों की कोई कमी नहीं थी, और वे गीत लिखने की दिशा में भी बढ़ चुके थे| जबकि सलीम साहब इस अलगाव के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे सो उनके पास कुछ समय के लिए कोई फ़िल्म नहीं थी| सलमान खान भी कई साल पहले इस बात को अपने एक साक्षात्कार में कह चुके हैं और अपने पिता के उस काल के कठिन दिनों की बात कर चुके हैं|
अगर सलीम जावेद की जोड़ी के पास दर्जन भर ब्लॉक बस्टर फिल्मों का इतिहास था तो दोनों के पास बराबर बराबर या कम से कम 40:60 के अनुपात में तो फ़िल्में आनी ही चाहिए थीं| लेकिन इस केस में एक के पास फ़िल्में थीं, और एक के पास एक भी नहीं| इससे सीधा सा अनुमान यही लगता है कि फ़िल्म उद्योग के कुछ लोग भी इस जोड़ी को तोडना चाहते रहे होंगे और तभी बहुतों का समर्थन जावेद साहब को तो तुरंत मिला पर सलीम साहब को नहीं मिला|
सलीम साहब के बेटे अरबाज इस डॉक्यूमेंटरी में कहते हैं कि उनके पिता को घर पर बहुत सा समय उन लोगों के साथ बिताने के लिए मिला| इतना सरल नहीं होता जीवन में किसी इतनी बड़ी घटना का असर| जब तक सलीम साहब ने नाम नहीं लिख डाली और वह प्रदर्शित नहीं हो गई , उनके और उनके परिवार के लिए समय बेहद कठिन रहा होगा| केवल भावनात्मक, मानसिक, और आर्थिक स्तर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर पर भी उन्होंने एक कठिन समय का सामना किया होगा| आखिरकार हिंदी सिनेमा का ग्लैमर से भरा शो बिजनेस चढ़ते सूरज को ही सलाम करता है| जिन सलीम जावेद को पूरा फ़िल्म उद्योग दूर से सलाम करता होगा उनमें केवल जावेद साहब की ही व्यावसायिक सफलता आर्थिक और सम्मान के क्षेत्र में बढ़ रही थी और सलीम साहब इस परिदृश्य से पूरी तरह गायब थे, तो क्या इसका असर सलीम साहब और उनके परिवार पर नहीं पड़ा होगा?
जब तक सलीम साहब ने नाम लिख कर अपनी दूसरी पारी अकेले ही स्थापित नहीं कर ली और उनके बड़े बेटे सलमान खान को मैंने प्यार किया से बहुत बड़ी सफलता नहीं मिल गयी, समय सलीम साहब और उनके परिवार के लिए बेहद कठिन रहा होगा|
लेकिन इस सीरीज में सलीम-जावेद अलगाव को ऐसे निबटा दिया गया जैसे यह एक गैर मामूली घटना हो और इसका दोनों के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा और दोनों ने बड़े दार्शनिक भाव से इसे लिया था|
सलीम-जावेद की लिखी फिल्मों में दृश्यों में बड़ी जान होती है| दृश्य भले उन्होंने अन्य फिल्मों से लिए हों, लेकिन वे उन्हीं दृश्यों को शोधित करके जोरदार तरीके से प्रस्तुत करने में बेहद कुशल थे, और उनके जीवन पर बनी इस श्रंखला से वैसा प्रभावशाली असर गायब है| इसमें सम्मिलित बहुत से दृश्य अन्य कार्यक्रमों में दर्शक पहले ही देख चुके हैं| सलीम साहब और जावेद साहब का पुनर्मिलन कोई बहुत पुरानी बात नहीं है| जब वे सामाजिक तौर पर अलग ही थे उस काल के भी उनके और सलमान खान के वीडियो साक्षात्कार होंगे तब भी क्या वे इसे आसान तरीके से अपने अलगाव को लेते थे? या कि सलमान खान उसे कैसे देखते थे क्योंकि इस अलगाव का सबसे ज्यादा असर सलीम साहब की सबसे बड़ी संतान के रूप में सलमान खान ने ही देखा और झेला होगा|
आज जबकि सलीम साहब और जावेद साहब दुबारा हाथ मिला चुके हैं, इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि वे सच्चाई स्वीकार करें कि हाँ कभी ऐसा काल भी था जब उनके अलगाव ने उनके बीच कडवाहट घोली थी? दोनों विद्वान व्यक्ति हैं और दार्शनिक स्तर पर पहुँच चुके हैं और जीवन के हर बीती घटना को जैसी थी वैसी ही बता कर उसका विश्लेषण भी कर सकते हैं| आज जो असर यादों के द्वारा याद आएगा वह वही तो नहीं ही होगा जो उनके जीवन पर उनकी जोड़ी के टूटने से पड़ा होगा?
कभी जावेद साहब ने कहा था कि वे अपने पिता से इस कदर नाराज़ रहते थे कि उन्होंने एक तरह से कसम खा रखी थी कि वे शायरी नहीं करेंगे| उनके पिता ने कहा था कि जब मैं नहीं रहूँगा तब समझ पाओगे|
पिता के देहांत के बाद ही जावेद साहब ने शायरी की ओर कदम बढाए और सिलसिला के गीत लिखे| जावेद साहब का यह विद्रोही अंदाज़ भी सीरीज से सिरे से गायब है| और यह बात भी कि सलीम साहब जोड़ी द्वारा गीत लिखने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि यह उनका क्षेत्र नहीं था अतः यहाँ जावेद साहब को अकेले ही काम करना था, क्या जावेद साहब के शायरी की ओर बढे कदमों की उनके सलीम साहब से अलगाव में कोई भूमिका नहीं थी? दर्शक को नहीं पता, क्योंकि सीरीज इस पहलू को छूती ही नहीं|
सीरीज असल में किसी भी महत्वपूर्ण पहलू को नहीं छूती, और लगभग 10 साल तक हिंदी सिनेमा को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली लेखक जोड़ी के कार्य का गहरा अध्ययन लेकर ही नहीं आती|
यह सलीम जावेद के रंगीन सिनेमा के नाम पर फीके रंगों वाले सिनेमा का प्रदर्शन लगती है| जो जैसा बीता उसे बचाते हुए, जैसा दूर से दुनिया को दिखाई देना चाहिए केवल वही दिखाया गया है| उनकी किसी बेहतरीन फ़िल्म के ऊपर भी कायदे की कोई बातचीत नहीं हो पायी|
कुछ क्षण हैं जो छूते हैं जैसे जावेद साहब का खाने के मुद्दे पर बोलते हए भावुक हो जाना|
सलीम-जावेद के महत्त्व को देखते हुए यह एक औसत सीरीज के रूप में ही सामने आती है| और सलीम-जावेद के रचनात्मक संसार के प्रति दर्शकों को प्यासा ही छोड़ देती है|
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