पीयूष मिश्रा थियेटर संसार में स्टेज पर किस स्तर के अभिनेता हैं, थे या रहे हैं, इस बात की तस्दीक उनके नाटकों के दर्शक, उनके साथ नाटक करने वाले उनके साथी रंगकर्मी, उनके नाटकों के निर्देशक, और उनके अध्यापकगण आदि में सम्मिलित लोग ही कर सकते हैं| अलबत्ता उनकी अभिनीत फ़िल्में उनके फ़िल्मी अभिनय को देखने, और जांचने परखने के लिए उपलब्ध हैं|

एक लेखक जब आत्मकथात्मक स्टाइल में उपन्यास की रचना करता है और उसमें अपने वास्तविक जीवन की कुछ घटनाओं को हुबहू अपनी किताब में उपयोग में ले आता है तो लेखक के वास्तविक जीवन से अनजान पाठक उन भागों को भी पुस्तक के अन्य अंशों के समान ही पढता है या पढ़ सकता है| लेकिन जो उन घटनाओं से वास्तव में परिचित रहे हैं वे किताब के उन अंशों का असर अलग ढंग से लेंगे और उन पर लेखक की लेखनी के कौशल से ज्यादा लेखक की घटनाओं को सच्चाई के साथ परोसने की कला का असर ज्यादा (या कम, अगर उन्हें लगे कि लेखक ने घटनाओं को मन मुताबिक़ तोड़ मरोड़ दिया है) पड़ेगा|

पीयूष मिश्रा ने इस किताब के बारे में शुरू में निवेदन किया है कि चूंकि आत्मकथा लिखने की औक़ात नहीं, न मिजाज और न ही मूड है, इसलिए उपन्यास लिखा है और इसे उसी रूप में पढ़ा जाए|

लेकिन वे इसे घालमेल वाला मिश्रित रूप रंग दे देते हैं| जहां वे खुद तो प्रियांश से संताप त्रिवेदी और फिर हेमलेट बन जाते हैं, ओम पुरी को सोम पुरी, नसीरुद्दीन शाह को नदीम शाह बना देते हैं, विशाल और रेखा भारद्वाज को क्रमशः संबल और सुरेखा भारद्वाज, आशीष विद्यार्थी को आयुष विद्यार्थी, मनोज बाजपेयी को समर,और अनुराग कश्यप को अनिकेत कश्यप, बना देते हैं लेकिन एन एस डी के उनके अध्यापक, निर्देशक वास्तविक नामों के साथ बने रहते हैं| भगत सिंह की फ़िल्म में लेखन के क्रेडिट के विवाद के अध्याय में वे निर्देशक को मोटा निर्देशक और जिससे विवाद हुआ उसे पतला लेखक नाम से प्रदर्शित करते हैं, लेकिन जैसा हंगामा उन दिनों था उसकी तुलना में पुस्तक में इसे फौरी तौर पर निबटा देते हैं|

जब उनके आत्मकथात्मक उपन्यास का नायक, दिल से, गुलाल, और मकबूल आदि फिल्मों में काम कर रहा है, “मैंने प्यार किया” में नायक बनने की संभावना बता रहा है, और पाठक दीपक डोबरियाल, मनु ऋषि, मोहन महर्षि, बी एम् शाह, इब्राहिम अल्काजी, रंजीत कपूर, पंडित, और एन एस डी रेप्रेटरी एवं एक्ट वन, आदि के नाम पढता है तो पाठक का भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है कि लेखक महोदय किसी एक नियम से बंध कर क्यों नहीं चले|

उपरोक्त्त कारणों से पुस्तक अपनी मिश्रित प्रकृति के आधार पर पाठक को भ्रमित करती है| पीयूष मिश्रा के पास बहुत सामग्री थी और वे इससे कई पुस्तकों का निर्माण कर सकते थे| यह पुस्तक संस्मरण रूप में असली नामों के साथ प्रभावशाली रहती लेकिन उपन्यास के रूप में यह एक कमजोर किताब बन जाती है| जैसा सबसे पहले कहा कि पीयूष मिश्रा के नाटकों से परिचित लोग ही बता सकते हैं कि वे स्टेज पर जिस ऊँचे स्तर का अभिनेता संताप/हेमलेट अर्थात स्वंय को बता रहे हैं, उसमें कितनी सच्चाई है? क्योंकि फिल्मों में मकबूल और गुलाल को छोड़कर उनकी अन्य फ़िल्में बड़ी मुश्किल से इस बात की गवाही दे पाएंगीं कि वे स्टेज के बेहद प्रसिद्द अभिनेता रहे हैं और दर्शक उनका अभिनय देखने के बाद सराहना से भर कर पागल हो जाते थे| हालांकि ऐसा पहले भी हुआ है, राजेश विवेक के बारे में यह प्रसिद्द था कि स्टेज पर उनकी तूती बोलती थी जबकि फिल्मों में वे साधारण अभिनेता के रूप में ही नज़र आये| दिनेश ठाकुर और बेंजामिन गिलानी के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है| ओम शिव पुरी और मनोहर सिंह भले फिल्मों में नायक न बने हों पर सिनेमा के परदे पर उनके भी उनके अभिनय को अच्छी सराहना मिली और कुछ अच्छी महत्वपूर्ण भूमिकाएं भी मिलीं और उन्होंने मौका मिलते ही जबरदस्त अभिनय भी कर दिखाया|

पीयूष मिश्रा की पुस्तक अभिनय के क्षेत्र पर प्रकाश नहीं डालती कि किसी नवोदित अभिनेता का भला उसे पढ़कर हो|

पीयूष मिश्रा की पुस्तक आदमी एक बार में पढ़ जाता है लेकिन उसे पढ़कर तिश्नगी रह जाती है और एक लेखक की अच्छी किताब पढने का संतोष नहीं मिल पाता, एक रोचक किताब पढने का संतोष अवश्य मिल जाता है| स्पष्ट प्रतीत होता है कि कितने प्रसंगों में स्वतंत्र रूप से विकसित होने की संभावना थी| पीयूष मिश्रा अगर साहित्यिक लेखन वाले लेखक के रुप में गंभीर हैं तो उनके पास संगिनी जैसा गज़ब का चरित्र था या है जो इस किताब में ट्रेलर की तरह आकर बुझ गया है| और कई स्त्री चरित्र (नायक की पत्नी सहित) हैं, जो बस झलकियाँ दिखाकर चले गए जबकि वे अलग अलग एक एक अध्याय के अधिकारी थे, वे सब इतने सुयोग्य तो हैं ही कि हरेक पर अलग अलग कम से कम एक एक लम्बी कहानी को जन्म दिया जाए|

पुस्तक, साहित्य के क्षेत्र में बस एक औसत औक़ात ही बना पाती है| रोचक लेकिन पाठक को एक बहुत अच्छी किताब पढने की संतुष्टि न दे सकने वाली किताब!


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