आधुनिक हिंदी साहित्य के संभवतः सबसे बड़े लेखक स.ह.व.अज्ञेय की जीवनी अक्षय मुकुल ने अंगरेजी में लिखी है, ज्ञात नहीं कि अभी तक उसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ है या नहीं| पुस्तक में उन्होंने अज्ञेय के जीवन में समय-समय पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्रियों की चर्चा और खोजबीन अपने तरीके से की है|

जैसे शेखर एक जीवनी की शशि के पीछे अज्ञेय की बुआ की बेटी इंदुमती को उन्होंने प्रेरणा बताया है|

उन्होंने बंगाल की कृपा सेन को अज्ञेय के गज़ब के त्रिकोणीय प्रेम पर आधारित उपन्यास “नदी के द्वीप” की एक नायिका, रेखा, के चरित्र के पीछे की प्रेरणा बताया है| उनके अनुसार कृपा सेन अज्ञेय की प्रेयसी रहीं|

अज्ञेय के साहित्य और जीवन पर अन्य लेखकों ने जो लिखा है, उससे उधार लिया जाए तो जनसत्ता के यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी ने लिखा कि बलराज साहनी ने अज्ञेय के ऊपर दबाव डाला कि अज्ञेय उनकी महिला मित्र संतोष चंडोक (इन्हें किसी किसी ने संतोष मलिक और संतोष कश्यप के नाम से भी संबोधित किया है) से विवाह कर लें| कहीं कहीं संतोष को बलराज साहनी की फर्स्ट कजिन भी कहा गया है|

अज्ञेय ने यह विवाह कर लिया, लेकिन एक माह भी यह विवाह टिक नहीं सका और वे अलग हो गए| कुछ सालों में तलाक की कानूनी औपचारिकता भी पूरी हो गयी|

बलराज साहनी की पहली पत्नी दमयंती का देहांत हो चुका था, परीक्षित साहनी इसी प्रथम विवाह से जन्मे पुत्र हैं| कुछ अरसे बाद बलराज साहनी ने अज्ञेय से तलाक ले चुकीं संतोष से विवाह कर लिया|

यहाँ यह अनुमान असंगत न होगा कि बलराज साहनी की अपनी रिश्तेदार संतोष के संग पहले से नजदीकियां रही होंगी| तब यह मुद्दा अवश्य उठता है कि उन्होंने दमयंती से विवाह क्यों किया था? और अज्ञेय पर ऐसा दबाव क्यों डाला कि वे संतोष से विवाह कर लें?

अब अगर डॉट्स को जोड़ा जाए तो क्या “नदी के द्वीप” के चन्द्र माधव के चरित्र में बलराज साहनी के अंश सम्मिलित हैं?

अगर ऐसा हो भी तो इससे इन सर्जकों की, महान कलाकारों की महानता पर कोई अंतर तो पड़ता नहीं, अपनी कला के बूते वे उतने ही महान समझे जाते रहेंगे| लेकिन इन बातों से अज्ञेय के आगे के जीवन के धागे जिस तरह से बुने जाते हैं, उस पर प्रकाश पड़ता है|

अज्ञेय का प्रेम संबंध अब संतोष की भतीजी कपिला मलिक से होता है और अंततः पचास के दशक के मध्य में उनका विवाह हो जाता है| अज्ञेय उनसे लगभग 17 साल बड़े थे, क्या नदी के द्वीप की गौरा का चरित्र यहाँ इस कोर्टशिप से उभरा होगा? उनके इस वैवाहिक जीवन के 10-15 वर्षों के दौर में उनसे मिलने वाले तमाम साहित्यकारों के संस्मरणों में दोनों के संयुक्त जीवन के बखान और कपिला जी की मेजबानी के किस्से मिलते हैं|

एक दिन अज्ञेय अमेरिका चले जाते हैं बर्कले में पढ़ाने, कपिला वात्स्यायन एयरपोर्ट पर चन्दन का पीला टीका लगा कर उन्हें विदा करती हैं, जमीन से आसमान की ओर उठते विमान की तरफ हाथ हिलाती हैं|

साथ खड़े एन एस डी के राम गोपाल बजाज से एक अन्य हिन्दी लेखक कहते हैं,”अज्ञेय जी अब दिनमान में नहीं लौटेंगे“| तब अज्ञेय दिनमान के संपादक थे|

कुछ के बयानों के मुताबिक़ डेढ़ दो बरस बाद अज्ञेय भारत लौटकर आये तो कपिला जी के घर नहीं लौटे|

कवि वेदप्रकाश बटुक के अनुसार अज्ञेय कपिला जी के घर उनसे मिले, अज्ञेय की छोटी बहन भी वहां आयी हुयी थी, कपिला जी ने अच्छे मेजबान की भूमिका निभाई लेकिन अज्ञेय, कपिला वात्स्यायन और अज्ञेय की बहन, तीनों में से एक ने भी एक भी शब्द आपस में नहीं बोला|

अज्ञेय बर्कले के अपने प्रवास में अपने से तीस वर्षीय छोटी इला डालमिया के संग रहे थे, उन्हीं इला डालमिया के भारत लौटने पर वे उनके साथ ही बाकी की उम्र रहने तक रहे|

कपिला जी से उनका विधिवत तलाक नहीं हुआ और कपिला जी भी कपिला वात्स्यायन के नाम से ही अपने को दुनिया के सामने प्रस्तुत करती रहीं|

इला डालमिया संग अज्ञेय का कभी विधिवत विवाह नहीं हुआ, इसे लिव इन का उदाहरण माना जा सकता है| प्रभाष जोशी के अनुसार उनके समकालीनों ने इस बाबत अज्ञेय पर कीचड उछालनी चाही लेकिन अज्ञेय ने बड़ी शालीनता से इस संबंध को पूरी दुनिया के सामने जिया और धीरे धीरे लोगों केअज्ञेय को बदनाम करने के कुप्रयास ठंडे पड़ गए होंगे|

वेद प्रकाश बटुक लिखते हैं कि उस मौन साधने वाली रात्रि के कुछ समय बाद कपिला जी उनके निमंत्रण पर किसी कार्यक्रम में वक्ता की हैसियत से आयीं और उसके बाद शायद जनपथ के पास की किसी लेन में कार में बैठकर उन्होंने लगभग एक घंटे तक अपनी व्यथा उनसे कही| क्या कहा, बटुक जी ने इसका जिक्र नहीं किया|

राजेन्द्र यादव अपने स्त्री प्रसंगों के समर्थन में सदैव अज्ञेय के बहु- प्रेम प्रसंगों, मोहन राकेश के बहुत से प्रेम प्रसंगों, और अपने से वरिष्ठ और अपने समकालीन साहित्यकारों के प्रेम संबंधों की गिनती किया करते थे| उन्होंने “मुड़ मुड़ के देखना” में अपनी विवाह पूर्व और बाद की प्रेयसियों मीता और अन्य स्त्रियों की चर्चा की तो किसी बात पर बिफर कर मन्नू भंडारी जी ने “देखा तो ये भी देखते” लिखकर उनकी सारी परतें उतार कर दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दीं, और यह सत्य भी लिखा कि जब राजेन्द्र जी अपनी प्रेयसी संग पहाड़ों में घूम रहे थे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां भूल कर तब मैं उनकी बहनों के विवाह करवा रही थी अपने वेतन से|

जैसा कुछ लेखिकाओं ने लिखा, कपिला वात्स्यायन जी ने, जो कला की दुनिया का एक बहुत बड़ा नाम रही हैं, ने कभी अज्ञेय के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा|

एक बटुक जी के उस प्रसंग के अलावा कोई ऐसा वृतांत नहीं मिलता जिसमें उन्होंने किसी से अपनी व्यथा कही हो| इसी दिल्ली में जिसमें अज्ञेय इला डालमियां संग रहते थे, वे भी रहती रहीं, उन दोनों को जानने वाले, बहुत से ऐसे होंगे जो उन्हें संयुक्त रूप से जानते थे और दोनों को सम्मान देते थे, उनकी क्या स्थिति ऐसे अलगाव के समय रही होगी?

संतोषअज्ञेय अलगाव के वक्त अज्ञेय पर कई दोषारोपण हुए थे लेकिन अज्ञेयकपिला अलगाव में तो किसी पक्ष से कुछ नहीं हुआ|

यह कोई माता पिता या परिवार द्वारा कराया विवाह तो था नहीं, बरसों तक चले प्रेम संबंध की परिणति विवाह के रूप में हुयी थी तो ऐसा क्या हो गया कि भारत से जाते हुए कपिला जी को कोई आभास नहीं था और अज्ञेय वापिस लौटे तो उस संबंध से बाहर हो चुके थे?

कुछ तो ऐसा था ही जो कपिला जी को चुभा वर्ना वे बटुक जी से अपनी व्यथा क्यों कहतीं?

एक संवेदनशील कवि होने के नाते अज्ञेय ने क्या उनकी पीड़ा को कम करने की कोशिश की या उन पर ही छोड़ दिया कि वे विदुषी हैं स्वंय ही समझ जायेंगीं?

अक्षय मुकुल भी इस प्रश्न से जूझते हैं और अज्ञेय द्वारा इन संबंधों को न चला पाने का जिम्मेदार स्त्री पक्ष को ही मान लेना बताते हैं, और अपने को वे स्वयं ही दोषमुक्त मान लेते हैं|

इला डालमिया के लिए एक जगह लिखा है किसी लेखक ने कि वे लेखिकाओं से अज्ञेय को बचाती थीं उनकी बढ़ी आयु में|

एक लेखक जोड़ी ने बयान किया है कि वे अज्ञेय से मिलने उनके बंगले गए तो इला डालमिया ने अज्ञेय के आराम के समय की बात कह उस वक्त उन्हें टाल दिया| अज्ञेय उनसे मिलने पर हमेशा उनसे मिलने आने की बात कहते थे| उन्हें इला डालमिया के रुख के कारण अज्ञेय से मिलना सहज प्रतीत नहीं होता था, और इसलिए एक लबे अरसे तक वे दोनों अज्ञेय से मिलने नहीं गए| किसी समारोह में मिलने पर अज्ञेय द्वारा इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि उनके लिए कितना मुश्किल है उनके घर आना| इस बारे में अज्ञेय ने कहा,”आपने बड़ी जल्दी हथियार डाल दिए|”

अज्ञेय ह्रदय रोग के शिकार हो चुके थे अपने अंतिम बरसों में और इला डालमिया उनके स्वास्थ्य की वजह से उनके आराम का पूरा ख्याल रखने हेतु खान-पान और श्रम और आराम पर पूर्ण नियंत्रण रखती होंगी लेकिन अज्ञेय का जीवन साधारण मनुष्य का जीवन नहीं है, वे बहुत बड़े लेखक रहे लेकिन वे ऐसे लेखक रहे जिनका बहिष्कार उनके सक्रिय काल में उस समय के मठाधीश लेखकों ने, उनके समूहों ने किया और उनकी धीर गंभीर छवि के कारण भी बहुत कम लोग उनसे मिल पाने की हिम्मत कर पाते होंगे| इसलिए भी अज्ञेय को यह बहुत भाता होगा कि नियमित लिख रहे लोग उनके पास आयें, उनसे मिलें, उनसे बातें करें, बड़ी उम्र में ऐसा होना स्वाभाविक है| अपने अंतिम बरसों में वे वही नहीं रहे होंगे जो वे चालीस के दशक में थे या पचास के या साठ के या जब तार सप्तक काव्य संग्रहों की रचना में व्यस्त रहे होंगे| ऐसा मेल मिलाप उनके लिए उतना ही आवश्यक रहा होगा जितना आराम करना|

यहाँ जो आश्चर्य की बात यह है कि जो उन्हें लगता था कि उचित है उसे वे इला डालमिया से क्यों न कह पाए? सारी ज़िंदगी वैयक्तिक स्वतंत्रता खोजने वाले अज्ञेय उनसे क्यों न कह पाए कि उनके घर अतिथि बन कर आए सज्जनों से मिलने, न मिलने, कितनी देर मिलना है आदि का निर्णय उनका होगा, इला डालमिया का नहीं|

केवल इला डालमिया की व्यवस्था से परेशान उस जोड़ी से यह कह देने से कैसे समस्या सुलझी होगी कि आपने बड़ी जल्दी हथियार डाल दिए?

जब उनका स्वागत ही नहीं है घर में तो वे कैसे बार-बार अज्ञेय से मिलने जाते?

अज्ञेय की इस जीवनी और उनके ऊपर लोगों के संस्मरणों की बाढ़ के बावजूद अज्ञेय के जीवन में बहुत कुछ अनसुलझा, अनसमझा रह ही जाता है, क्या जैनेन्द्र के माध्यम से उन्होंने अपने लिए जो नाम चुन लिया “अज्ञेय ” वह एक ईश्वरीय विधि थी यह घोषित करने के लिए कि इस महान रचनाकार को कभी भी पूरा पूरा नहीं जाना जा सकेगा?

….[राकेश]


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