दर्द हो दुख हो तो दवा कीजे

फट पड़े आसमाँ तो क्या कीजे

एक सिनेमा वैसा होता है जिसके लिए कहा जाता है Clash of the Titans. बड़े बड़े धुरंधर अभिनेता एक साथ अपने अभिनय के जौहर दिखाकर सिनेमा के परदे पर दर्शकों को उत्तेजना की आग की लपटों से घेर देते हैं, उन्हें, भावनाओं की तीव्रता के समुद्र की गहराई में डुबो देते हैं, और उन्हें अपने अभिनय के उतार चढ़ावों के हिंडोले में झुलाते हैं, और मग्न दर्शक उनकी धुनों पर नाचता चला जाता है क्योंकि वह फ़िल्म देखने से पहले जी अपने सरे संदेह बाहर खूंटी पर टांग कर अन्दर सिनेमा घर में आया है, पूर्ण समर्पण के साथ|

दिग्गज अभिनेताओं के मौन पर आदमी अन्दर से सराहना से भर जाता है| उनके द्वारा कहे गए संवादों के जादू से वशीभूत होकर वह बुदबुदा कर बोल उठता है, वाह!

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सलाखों के पीछे काले रंग या गहरे रंग की कमीज और पतलून पहने एक लम्बा आदमी अपने दोनों घुटनों को अपने हाथों से बांधे सिर को झुकाए बैठा है|

ठक ठक ठक

किसी के क़दमों की आहट सुनायी देती है !

कैमरा दूर से ज़ूम होते हुए सलाखों के पीछे बैठे उस व्यक्ति की तरफ जाता है| अपने नाम का संबोधन सुन कर वह अपना सिर ऊपर उठाता है|

– -सीन कट —

दर्शक को ले जाया जाता है एक बड़े कमरे में जहां दरवाजे से लेकर अन्दर तक एक दो लोगों को छोड़ सभी सफ़ेद कपडे पहने हुए हैं| लॉन्ग शॉट में लम्बा आदमी दरवाजे पर आकर ठिठकता दिखाई देता है| दरवाजे पर खड़े किसी व्यक्ति के हाथ उसके कंधे थपथपाते हैं| वह अन्दर घुसता है, उसके पीछे एक पुलिस की वर्दी पहने अधिकारी अन्दर आता है| दोनों के रंगीन वस्त्र करे में उपस्थित श्वेत वस्त्रधारियों के सामने एक विषमता रचते हैं|

लम्बा व्यक्ति थोडा आगे बढ़ता है, और फर्श पर सुखासन में ज्ञान मुद्रा साधे बैठे एक पंडित जी के पास से होते हुए फर्श पर नीचे बैठ जाता है जहां एक स्त्री की मृत काया सफ़ेद चादर ओढा कर लिटाई गयी है, पास ही एकमात्र दीपक जल रहा है|

फ़िल्म देखते जा रहे दर्शकों को पता ही है कि मृत स्त्री इस व्यक्ति की माँ थी|

वह अपनी मृत माँ के माथे पर हाथ फिरता है| थोड़ी दूर एक कोने में खडी अपनी पत्नी की ओर देखता है, जो उसकी तरफ देखने के बाद नीचे देखती है जहाँ उसके पैरों के पास दीवार के सहारे एक अन्य व्यक्ति बैठा हुआ है, दुःख से जिसने अपने चेहरे और सिर को अपनी बाहों में भर रखा है| उसकी पूरी बाहों की कमीज की आस्तीनों के बटन खुले हुए हैं, बाल बेतरतीब बिखरे हुए हैं|

लम्बा व्यक्ति अपनी जगह से उठता है, उस कोने की ओर जाता है जहाँ उसकी पत्नी खडी है, उसकी पत्नी की आँखों में आंसू छलछला रहे हैं, वह अपने पति को सांत्वना देने के लिए उसके सीने से ऊपर कंधे के पास स्पर्श करती है| एक नज़र उसे देख व्यक्ति नीचे बैठ जाता है|

नीचे बैठा, दुःख के सागर में डूबा हुआ पुरुष उसका पिता है| पिता निगाह उठाकर पुत्र की ओर देखता है, दुःख और रोने से उसकी आँखें लाल जो चुकी हैं|

रोते हुए पिता पुत्र की आँखें आपस में मिलती हैं, कुछ देर के लिए बिंध जाती हैं| बेटे के लिए माँ की मृत्यु की सूचना नयी है उसके अन्दर भावनाओं का ज्वार है, अश्रु उसके गालों से ढलक जा रहे हैं निरंतर, पिता की आँखें दुःख से पसरा गयी हैं|

बेटा , पिता के एक हाथ की कोहनी से नीचे के हिसे को अपने दोनों हाथों से थाम लेता है|

बेटे की आँखों में, उसके रुदन में एक आस है, पर पिता का दुःख इतना गहरा है कि वह मूर्तिवत, जडवत बैठा है| जिसने फ़िल्म देख रखी है उसके लिए इस बहाव में भी पिता एवं पुत्र के आपसी संबंधों के डायनामिक्स स्पष्ट हैं|

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[जिसने फ़िल्म नहीं देखी उसके लिए इसका सार जानना आवश्यक है | बुत बना बैठा पिता एक पुलिस अधिकारी है, और सामने रोते हुए बैठा उसका अपना इकलौता बेटा, उन्हीं सफेदपोश मुजरिमों के यहाँ काम करता है, जिन्हें उसे पकड़ना है| बहुत साल पहले, एक अपराधी ने अपने साथियों को पुलिस की हिरासत से रिहा कराने के लिए, पुलिस अधिकारी के बेटे को अगवा कर लिया था और बेटे ने बचपन में अपने पिता की फोन पर आवाज सुनी कि अपराधी जो चाहें उसके बेटे के साथ कर लें, वह अपने कर्तव्य पथ से डिगने वाला नहीं| बेटे के मन में बचपन से एक ग्रंथि बैठ गयी कि उसके पिता को उसकी परवाह नहीं| पिता के प्रति वह एक विद्रोही बेटे के रूप में बड़ा होता है| उन दोनों के बीच की कड़ी है, पुलिस अधिकारी की पत्नी, जो बेटे और पति दोनों के बेहद करीब है| बेटा माँ से अत्याधिक प्रेम करता है| परिस्थितियां उसे अपने पिता का घर छोड़ने पर विवश कर देती हैं लेकिन उसकी माँ उसे मना कर घर ले आती है लेकिन घर में घुसते ही उस पर एक हत्या का आरोप लग जाता है और पुलिस अधिकारी पिता के सामने ही उसे हथकड़ी लगाकर जेल ले जाया जाता है| यह उसके और उसके पिता के संबंधों पर एक तरह से आख़िरी चोट है|

पति से बेटे की बेगुनाही की विनती करती अपनी माँ को वह फुफकारते हुए रोकता है,”मैं फांसी के तख्ते पर चढ़ जाऊं, मेरे लिए तुम्हें किसी से रहम की भीख मांगने की जरुरत नहीं है|”

उसके जेल में रहते ही उसके पिता के दुश्मनों ने उसकी माँ को मार दिया है|]

अब यह माँ की ह्त्या से उपजे दुःख से भरा वयस्क पुरुष, अपनी पत्नी के देहांत से नितांत दुखी अपने पिता के सामने बैठा है, अपनी झिझक छोड़कर अपने पिता के हाथ का स्पर्श करके उसे सांत्वना दे रहा है, क्योंकि उसे पता है कि आज उसके पिता कितने अकेले हो गए हैं| लेकिन साथ ही वह एक आठ नौ वर्षीय बच्चे के रूप में भी परिवर्तित हो चुका है जिसे आस बंधी हुयी है कि उसे रोता देख उसके पिता उसे अपनी बाहों में भर लेंगे, उसे चुप करायेंगे या दोनों कुछ देर साथ रो लेंगे| खून खून से मिलकर शायद एक दूसरे के दुःख को कुछ कम कर पाए, लेकिन पिता की आँखों में बेपनाह दर्द तो उमड़ता है पर वह सामने रोते हुए बेटे को संभालने के लिए अपने किसी भी हाथ को नहीं खोलता!

क्या वह एक बेहद क्रूर पिता है?

नहीं, वह अपने मूल्यों पर चलने वाला बेहद ईमानदार पुलिस अधिकारी है, अपनी पत्नी और बेटे से भरपूर प्रेम करने वाला संवेदनशील इंसान भी लेकिन बेटे के तौर तरीके, उसे पता है कि बर्बादी की राह पर ले जा रहे हैं इसलिए भी वह दुखी है| पत्नी जीवित थी तो उसे विश्वास था कि कैसे भी वह उनके बेटे को संभाल लेगी, सही राह पर एक दिन ले आयेगी| वह धीरे धीरे अपने बेटे को अपराध और मौत की राह पर फिसलते जाते देखता रहा है| लेकिन तब भी एक क्षीण सी आशा बंधी और बची हुयी थी उसकी पत्नी के रूप में क्योंकि उसे पता था कि उसका बेटा अपनी माँ के लिए किसी भी हद तक चला जाएगा|

आज वह एकमात्र सहारा, उसके और बेटे के बीच की एकमात्र कड़ी टूट गयी है| उसे पता है अब वह अपने बेटे को बर्बादी के कगार पर जाने से नहीं रोक सकता| उसकी पथराई आँखों में दुगना दर्द समाया है| पत्नी से बिछुड़ने का, और बेटे से उसके जीवित रहते स्थायी रूप से दूर हो जाने का| उसका दर्द इतना गहरा है कि उसके शरीर में जड़त्व समा गया है|

जिस बच्चे के लिए उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया था अपनी पत्नी के साथ – माँगी थी जो दुआ वो क़ुबूल हो गयी, वही बड़ा होकर उसे हमेशा के लिए दूर हो चुका है| सामने जो बैठा वह थोड़ी ही देर के मेहमान जैसा है|

उधर बेटे के सामने भी यही दुगना दुःख है| पिता के प्रति सारा विद्रोह तभी तक ताप से भरा हुआ था जब तक माँ जीवित थी, जिसके सामने वह अपने दिल का गुबार निकाल सकता था| उसका दुःख इस नाते भी है कि वह इतने गहन दुःख में भी अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर सकता|

कुछ दुःख स्थाई होते हैं| इन्हें समय भी नहीं भर पाता| माता-पिता या संतान से वियोग का दुःख ऐसे ही स्थाई दुखों में आता है| दुनिया की सारी स्त्रियाँ भी मिलकर किसी की माँ का रूप नहीं ले सकतीं| उसके जीवन में आने वाले तमाम पुरुष पिता सामान हो सकते हैं, पर वे उसके पिता की भरपाई नहीं कर सकते| समय दुःख को कम कर देता है, ऐसा कहा जाता है, समय अन्य व्यस्तताओं में उलझाकर उस दुःख को आदमी के अन्दर कहीं जगह दे देता है जहां से उसके नितांत निजी क्षणों में वह उम्र भर निकल कर बाहर आता रहता है|

पिता (दिलीप कुमार), माँ (राखी) और उनके इकलौते बेटे (अमिताभ बच्चन) का जो छोटा स परिवार रमेश सिप्पी ने अपनी फ़िल्म शक्ति में दिखाया उसमें उन तीनों के आपस में, या किन्हीं दो के संयोग से बने दृश्य इतने जबरदस्त हैं कि वे फ़िल्म की बाकी सभी बातों पर भारी ही नहीं पड़ते बल्कि मार पिटाई के दृश्यों को फिजूल का सिद्ध भी कर देते हैं|

इनके बीच बेटे की पत्नी (स्मिता पाटिल) के आगमन से रिश्तों के डायनामिक्स का ऐसा प्रभावशाली संसार जन्म लेता है कि फ़िल्म भुलाए नहीं भूलती|

संदर्भित दृश्य में राखी की भूमिका सक्रियता की नहीं है लेकिन अमिताभ और दिलीप कुमार के अभिनय के माध्यम से वे हर पल सक्रिय ही रहती हैं इस पूरे सीक्वेंस में|

यह मौन भरा सीक्वेंस है, लगभग साढ़े तीन मिनट का और इस लघु अवधि में परदे पर जितना दुःख छाता है वह बहुत सी फ़िल्में रुदाली के बड़े बड़े दृश्य दिखा कर भी प्रदर्शित नहीं कर पातीं| दिलीपकुमारअमिताभ और स्मिता पाटिल के मौन अभिनय प्रदर्शन से यह सीक्वेंस भारतीय सिनेमा के सबसे महान सिनेमाई क्षणों में परिवर्तित हो चुका है| फ़िल्म को शुरू से अंत तक लगातार देख रहे दर्शक का कलेजा मुंह में आ जाता है और गहन अभिनय की समझ वाले दर्शकों के लिए दिलीप कुमार, और अमिताभ बच्चन का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है|

इस फ़िल्म की शूटिंग से संबंधित एक किस्सा है| अमिताभ बच्चन दिलीप कुमार के अभिनय के बहुत बड़े प्रशंसक रहे हैं| शक्ति के समय तक वे वन मैन इंडस्ट्री का रुतबा हासिल कर चुके थे| जब कैमरे के सामने वे जीवन में पहली बार दिलीप कुमार के साथ अपने दृश्य को शूट करने के लिए खड़े हुए तो वे अपने एक्शंस भूल गये थे और रिटेक्स न देने वाले अभिनेता ने कई रिटेक दिए|

फ़िल्म में दिलीप कुमारराखी और अमिताभ बच्चन का जो आपसी रिश्ता उभरता है वह इतना असली लगता है मानों एक वास्तविक परिवार को परदे पर देख रहे हैं, जबकि शक्ति से एक ही साल पहले राखी अमिताभ की नायिका बनकर फिल्मों में आती थीं, और एकाएक वे उनकी माँ बनी और क्या खूब यह रिश्ता उन्होंने (उन दोनों ने) परदे पर निभाया|

शक्ति को सिर्फ चारों मुख्य अभिनेताओं के आपसी संबंधों के लिए देखा जाये तो यह एक बेहद उच्च स्तर की फ़िल्म है| बिना संवादों के भी केवल उनके एक दूसरे को देखने में ही जादू है| नए अभिनेताओं को पारिवारिक रिश्ते को कैसे परदे पर गहराई देनी हो सीखना हो तो शक्ति के इन चारों अभिनेताओं के दृश्य उनके लिए बेहतरीन सामग्री हैं| बिना बोले कैसे एक दूसरे को भाव संप्रेषित करें, यह सीखना हो तो भी केवल इनके दृष्टिपातों का अध्ययन करे|

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