दुष्यंत पर्वतीय अंचल में घूमते-घूमते पहुँच गया| वहां जंगल में उसे सुन्दर, मासूम, और अल्हड़ता से भरपूर जीवन जीती शकुन्तला दिखाई दी| घर में पितृहीन, सौतेली माँ के कटु वचनों से आहत रहती 17-18 साल की गरीब लड़की, जिसके अन्दर आशा अभी जीवित है, क्या स्वप्न देखेगी?
बहारों मेरा जीवन भी सँवारों, बहारों
कोई आए कहीं से, यूँ पुकारो, बहारोंरचाओ मेरे इन हाथों में मेहंदी
सजाओ माँग मेरी, या सिधारो
उसे यही आशा बंध सकती है कि एक दिन उसके सपनों का राजकुमार आकर उसे ब्याह ले जाएगा और उसका जीवन भी प्रसन्नता से भर उठेगा|
दुष्यंत को उससे और उसे दुष्यंत से प्रेम हो भी जाता है|
पुरुष प्रेम प्रेमिका का निर्बाध साथ चाहता है उसे बंधन रास नहीं आते वह हर मंजिल जल्दी पाना चाहता है, वह पूर्ण नियंत्रण चाहता है जीवन की हरेक कला का दशा का|
और कुछ देर ठहर, और कुछ देर न जा
रात बाकी है अभी , रात में रस बाकी है
पाके तुझको तुझे, पाने की हवस बाकीतू जो बाहों में रहे, वक़्त ठहर जाएगा
और कुछ देर ठहर. और कुछ देर न जा
परम्परा से ही गन्धर्व विवाह से पुरुष को लगता है कि अब वह प्रेमिका के प्रति निश्चिंत रह सकेगा| अपने पर उसे पूर्ण विश्वास होता है कि चाँद तारे तोड़ कर लाने के वादे करने वाला वह जल्द ही अपने सारे वादे पूरे करने शकुन्तला को अपने साथ अपनी दुनिया में ले जाएगा|
पर वाह रे जीवन, दुष्यंत को अभी यह एहसास नहीं कि जैसे वह जीवन के अन्य क्षेत्रों में कमजोर है, अपनी मर्जी का मालिक नहीं वैसा ही यहाँ भी होगा ही| उसे यह अहसास ही नहीं कि उसके पीछे शकुंतला की ज़िंदगी और ज्यादा मुश्किलों से भर सकती है| 7 बजे की ट्रेन पकड़ने स्टेशन से तीन किमी दूर ट्रेफिक जाम में 6.50 तक फंसे आदमी को ऐसा लगता है कि वह कुछ करके ट्रेन पकड़ लेगा, या शायद ट्रेन ही देरी से चल रही हो| उसके साथ ऐसा कैसे होगा कि गाडी छूट जाए?
दुष्यंत की दी निशानी लिए, गर्भवती शकुन्तला दुष्यंत के दरबार में पहुँचती है|
दुष्यंत इस काल में रहता है बम्बई/मुंबई में|
पर काल का चक्र ऐसा कि दुष्यंत बहुत सी वजहों से उसे नहीं अपना पाता|
अब एक संभावित माँ क्या करे?
एक जान हो तो उसे त्याग भी दे, पर एक और जान का क्या करे जो उसके जीवन में कुछ प्रेम आने का साक्षी है! सच बयान करती एक पाती छोड़ शंकुंतला रुखसत ले लेती है|
इश्क़ है तो रिस्क है| दुष्यंत पहाड़ों में जाता है जहां शकुन्तला से पहली बार मिला था, पर अब वहां सिर्फ उन दोनों की यादें ही वादियों में हैं, वे नहीं|
दुष्यंत के पास कबूतर तीन बार संदेशे लेकर जाता है|
- आज भरत जन्मा
- आज भरत ने पहली बार चलना शुरू किया
- भरत 15 माह का हो गया है, भाग्य की लीला देखो भरत को माँ के आंचल की छाँव में बढ़ने का अवसर प्रकृति मुझे नहीं दे रही, तुम्हारे घर के बाहर उसे छोड़ रही हूँ, उसका ख्याल रखना|
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“ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां
किलकि किलकि उठत धाय गिरत
भूमि लटपटाय धाय मात गोद लेत
दशरथ की रनियां“
मनुष्य जीवन में वात्सल्य से बड़ा कोई रसीला भाव नहीं| यशोदानंदन/देवकीनंदन कन्हैया की बाल लीला के रस से हजारों साल से अनगिनत स्त्री – पुरुष सराबोर होते आये हैं|
एक शिशु जन्मता है एक प्रेमांश के रूप में, ह्रदय-ह्रदय के मिलन से उसमें चेतना का जन्म होता है|
एक जन्म ले चुके शिशु के ब्रह्मा और विष्णु उसके माता-पिता होते हैं| वही उसके आसमान और वही उसकी छत और मच्छरदानी होते हैं|
ऐसे सब शिशु सौभाग्यशाली हैं जिन्हें अपने इस सुरक्षा कवच के दोनों भागीदारों का साथ उनके विकास के दौरान और अन्तत: वयस्क होने तक मिलता है|
भारतीय संस्कृति इसी साथ की बुनियाद पर टिकी रही है| ये तो अब होने लगा है कि साल भर के शिशु के अस्तित्व भी माता-पिता को अलग होने से नहीं रोक पा रहे क्योंकि वयस्कों के अहंकार उनके वात्सल्य से बढ़ जा रहे हैं और वे भूल जा रहे हैं कि ये स्वतंत्रता उनके पास शिशु जन्म से पहले थी अब नहीं है| प्रकृति उन्हें ये अधिकार नहीं देती कि वे अपनी नासमझी में अपने ही अंश से माँ या पिता की छाया दूर कर लें| प्रकृति जहाँ, किसी घटना या दुर्घटना को निमित्त बना कर स्वयं ऐसा करती है वहां सारी दुनिया बच्चे के दुर्भाग्य पर आह भरती है|
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एक 15 महीने का बच्चा, जो सिर्फ ममा, नहीं, दो, उठो, दूध, बंटू कहना जानता है, बाल रामचंद्र और उनके अनुजों जैसे ही ठुमक कर लड़खड़ा कर चलता है, लेकिन उसे देखने के लिए उसकी माँ नहीं है तो वह कैसे बचेगा? शहर का ट्रेफिक, अपने काम से इधर उधर भागते लोग, अपनी अपनी परेशानियों से घिरे जीवन के संघर्ष की चक्की में पिसे लोग, ऐसे में बिना आश्रय का जीवन जीता शिशु कैसे एक भी दिन जियेगा?
जिसे अपने साहस पर बहुत गुमान हो, बिना प्रभावित हुए इस लाजवाब फ़िल्म को देख ले| बहुत कम फिल्मों में ऐसा होता है कि दर्शक फ़िल्म के परदे में घुसने की प्रार्थना करे कि इस बच्चे के लिए कुछ कर दे| नास्तिक भी कुछ दृश्यों में ईश्वर के हस्तक्षेप की इच्छा रखने लगते हैं| 101 बार भी फ़िल्म देखे कोई, हरेक दृश्य याद हो तो भी बच्चे की यात्रा में हर पड़ाव पर उसका मन न भीजे ऐसा मुमकिन नहीं|
भूखे बच्चे के सामने नींद की गोलियों की शीशी फूट जाए और बच्चा गोलियां उठाकर मुंह में डाल ले, किसका ह्रदय इतना कठोर होगा जो दिमाग के कहने से चले कि यह महज फ़िल्म है!
गंभीर किस्म के ह्रदय रोगियों के लिए यह फ़िल्म नहीं है|
इस जैसी कोई फ़िल्म अभी तक तो हिंदी सिनेमा में नहीं बनी| आगे कोई बना ले ऐसी संभावना भी नहीं लगती|
आखिर डेढ़ दो साल के बच्चे से ऐसा सक्रिय अभिनय जो फ़िल्म के लिए सटीक हो, असंभव सा काम है|
चेतन आनन्द (निर्माता, निर्देशक और लेखक) और उनके कैमरामेन जाल मिस्त्री और उनके संपादक जाधव राव ने असंभव सा काम किया है| इतना छोटा बच्चा अभिनय तो करेगा नहीं और कैमरे के लिए तो बिलकुल भी नहीं सो बच्चे के लिए स्थितियां उत्पन्न करके कैमरे ने उसका पीछा किया और फिर संपादन की मेज पर बच्चे का संसार रचा गया|
सिनेमा में तकनीकी विजय के लिए भी इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए| फ़िल्म में कलाकारों का चयन सम्पूर्णता लाता है|
बच्चे की भूमिका में मास्टर बंटी भूतो न भविष्यति जैसा चयन है| इस फ़िल्म से अलग इतना छोटा इतना आकर्षक बच्चा हिन्दी सिनेमा ने कभी नहीं देखा |
माँ की भूमिका में इन्द्राणी मुखर्जी ममतामयी चेहरा, और एक प्रेमिका के रूप में पर्वतीय सौन्दर्य, मासूमियत, सहज विश्वासी प्रकृति, निश्छल हंसी और व्यवहार सभी कुछ परदे पर लाती हैं|
राजेश खन्ना की यह पहली फ़िल्म थी, जो फ़िल्म प्रतियोगिता जीतने के बाद उन्हें मिली थी हालांकि प्रदर्शित पहले राज हुयी| पहली फ़िल्म होने के बावजूद उनका आत्मविश्वास झलकता है और उनकी रोमांटिक अदाएं इस फ़िल्म में ही झलक दिखलाती हैं, आराधना में जाकर वे ज्यादा मुखरता से दिखाई देती हैं| उसमें आख़िरी ख़त का ब्लैक एंड व्हाईट होना और आराधना का रंगीन होना भी एक अंतर है|
गायक भूपिंदर सिंह ने फ़िल्म में अभिनय करते हुए स्वयं ही एक गीत प्रस्तुत किया|
खय्याम का संगीत तो शानदार है ही| कैफ़ी आजमी साहब ने शानदार गीत लिखे|
लता मंगेशकर के दो गीत कालजयी हैं|
15 महीने के बच्चे को जगत में अकेला छोड़ जा रही माँ का आख़िरी ख़त केवल नायक को नहीं सारी दुनिया को संबोधित करता है और जीवन की आपाधापी में संवेदना को लगातार खोते जा रहे इंसानों को बचपन के प्रति संवेदनशील बनता है|
इसे देखकर, बचपन के प्रति कोमल भावनाएं पाकर, दर्शक निर्देशक चेतन आनंद के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है|
….[राकेश]
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