हालात और हादसों से गुज़रते हुए आम आदमी बहुत सजग और चौकन्ना हो गया है | हर बात पर वह संदेह करने लगा है |

मैंने एक आदमी से पूछा – दो और दो कितने होते है ?
सवाल सुनते ही वह सकपका गया | सिर से पैर तक हिलने लगा | उसने मेरे को शक की निगाह से नीचे से लेकर ऊपर तक देखा फिर तेज़ कदमों से जाने लगा |
मैंने आगे बढ़ कर उसे रोका और कहा – आपने मेरी बात का जवाब नही दिया |
उसने हाथ जोड़ गिडगिडाते हुए कहा – मैं बहुत मामूली आदमी हूं | मेरे को किसी लफड़े में नही पड़ना है | आप मेरे को माफ़ करें |

मैंने उससे कहा – इसमें लफड़ा क्या ? सीधा सा सवाल है दो और दो कितने होते है ?
उसने कहा – कोई टेढ़ा सा सवाल ले आओ मैं जवाब दे दूंगा | सीधे से सवाल से मेरे को बहुत डर लगता है | सीधे दिखाई देने वाले सवाल बाद में बहुत बड़ा बवाल खड़ा कर देते हैं |

मैंने कहा – भाई मेरे , दो और दो कितने होते है इसमें बवाल कैसा ?
उसने कहा – मेरे को थोड़ा समय दीजिये | मैं जवाब और जवाब के जवाब में होने वाली जवाबी कार्यवाही पर मंथन करना चाहता हूं |

मैं परेशान | इसमें मंथन क्या करना ?
उसने कहा – पहले तो यह पता करना होगा कि इस संबंध में नेहरु जी ने क्या कहा , ट्रंप और पुतिन ने क्या कहा | मेरे को तो यह अंतराष्ट्रीय मामला लगता है |

मैंने कहा – यह क्या हो गया है तुम्हे ? छोटी सी बात को कहां से कहां ले जा रहे हो |
उसने कहा – हर बात पहले छोटी सी बात होती है जो बाद में बहुत बड़ा मामला बन जाती है
मैंने उसको समझाया – मैंने यह सवाल तो तुमसे बस यूं ही पूछ लिया |
उसने कहा – मेरे को तो तुम आदमी गड़बड़ लगते हो | तुमको मालूम है दो और दो कितने होते है | वह सवाल नही पूछना चाहिए जिसके जवाब मालूम हो | तुमको मेरी परीक्षा लेने का कोई हक़ नही |

मैंने कहा – दो और दो कितने होते है यह तुमको मालूम है तो बता क्यों नही रहे हो ?
उसने कहा – दो और दो कितने होते हैं मेरे को मालूम है लेकिन यह पुराने ज़माने का जोड़ है | अब इतने सालों में हो सकता है जोड़ने का फार्मूला बदल गया हो | यह परिवर्तन का दौर है | यह भी हो सकता है संविधान में संशोधन कर नया क़ानून पारित कर दिया गया हो कि अब दो और दो उतने नही होगे जितने अब तक होते आये हैं | जो पुराना ही बोलेगा वह देश द्रोही माना जायेगा | भाई मैं पहले कानून की जानकारी ले लूं फिर बात करता हूँ |

मैंने उसको फिर समझाया – देखो इतना विचारो मत | जो सही है वह कहो |
उसने कहा – सही क्या है यह तय करना शेष है | मेरे को जो मालूम है वह सही है या जो वो सुनना चाहते हो वह सही है |

मैंने उसको पुचकारा और मुस्कुराते हुए कहा – पहले दो और दो जितना होता था आज भी उतना ही होता है |
उसने कहा – आज भी उतना ही होता है तो यह दावा क्यों किया जा रहा है कि हम कहां से कहां पहुच गये | हम तो आज भी वहीँ के वहीँ हैं |

मैंने कहा – दो और दो कितना होता है इसके जवाब को कोई बदल कैसे सकता है ?
उसने कहा – जैसे योजनाओं के नाम बदल दिये , स्टेशनों के नाम बदल दिये , शहरों के नाम बदल दिये |

मैंने दबाव बनाया और कहा – कृपया जवाब दीजिये |
उसने स्पष्ट कहा – जवाब दिया जायेगा | लेकिन पहले मैं अपने तरीके से पता करूँगा कि बहुमत किस तरफ़ है मेरे उत्तर की तरफ़ या उनके उत्तर की तरफ़ |

मैंने अपना सिर पकड़ लिया , हल्के गुस्से में कहा – श्रीमान यह राजनीति का सवाल नही है गणित का सवाल है गणित का |
अब इस बार उसने मेरे को समझाया – यह राजनीति है न गणित यह राजनीति का गणित है | राजनीति के गणित में ज़रूरी नही है कि कल दो और दो जितने होते थे आज भी उतने ही हो |

मैंने उससे पूछा – क्या हम बात का बतंगड़ नही बना रहे हैं ? मेरे एक मामूली से सवाल को तुमने पेचीदा बना दिया | जवाब देकर बात खत्म की जा सकती थी |
इस बार उसने आंख से आंख मिला कर कहा – यह मामूली सा सवाल होता तो बीच बाज़ार उठाया नही जाता | इसके जवाब में तो बहुत बड़ा पेच है |

मैं परेशान – इसमें पेच क्या है ?
उसने कहा – दो और दो मेरे हिसाब से जितना होता है उतना ही पाकिस्तान वालों के हिसाब से भी होता है | अगर मैंने अपना जवाब दिया तो मेरे को पाकिस्तान का एजेंट करार दोगे |

मैं खीज गया | मैंने कहा तुम्हारे दिमाग में गंदगी भरी है |
उसने कहा – बिलकुल ठीक कहा तुमने | लेकिन यह गंदगी मैंने पैदा नही की है यह किसी और का फेका गया मलमा था जो मेरे दिमाग में जम गया है |

मैंने उससे दो टूक बात कही – दो और दो कितने होते हैं यह बता क्यों नही रहे हो ?
उसने कहा – इसमें रिस्क बहुत है | बात जवाब के सही गलत होने की नही है | बात आपको जवाब पसंद आने न आने की है | हो सकता है सही जवाब से आपको सख्त नफ़रत हो | आप सिर्फ़ गलत के ही समर्थक हो | आपने जो तरक्की की है उसकी वजह भी आपकी यही विशेषता हो |

मैंने हँसते हुए उसे विश्वास दिलाया कि वह बेवजह इतना तनाव पैदा कर रहा है | जल्द इस सवाल का जवाब देकर मामले को खत्म करे |
उसने कहा – हो सकता है असली मामला मेरे जवाब से शुरू हो | मेरा सही जवाब आपको पसंद न आये और आपका खून खौल जाये कि मेरे में सही बात करने की हिम्मत कहां से आई ? हो सकता है यह रहस्य जानने के लिये आप मेरी प्यारी सी स्कूल को ही खुदवा दे और डाल दे मेरे शिक्षको को जेल में |

अब वह मेरे से बर्दाश्त नही हो रहा था | मैंने चीखते हुए पूछा – आखिर तुम चाहते क्या हो ?
उसने उतने ही शांत स्वर में कहा – मैं चाहता हूं अन्य कल्याणकारी योजनाओं की तरह इस प्रश्न को भी अनिश्चितकाल तक के लिये लंबित रखा जाये |

© अख़तर अली

साभार : भाग्य दर्पण (मासिक पत्रिका)


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