जीवन में वास्तविक दुःख से घिरा ही न हो तो एक दर्शक, कॉमेडी फ़िल्म को अन्य वर्गों की फिल्मों की तुलना में कभी भी देख सकता है और अक्सर तो कॉमेडी फिल्मों को अन्य वर्गों की फिल्मों पर प्राथमिकता भी सिने दर्शक देते हैं क्योंकि सिनेमा का सबसे बड़ा उपयोग तो मनोरंजन प्राप्त करने में ही है और कॉमेडी फिल्मों से ज्यादा मनोरंजन कौन से वर्ग की फ़िल्में देंगी? कोविड काल के बाद तो मनुष्य के जीवन में हंसी का महत्त्व पहले से ज्यादा ही बढ़ चुका है| सिने दर्शक ओ टी टी पर सर्च करते हुए मनपसंद कॉमेडी फ़िल्में बार-बार देखते हैं|

फ़िल्मी लेखक, निर्देशक और कई बार अभिनेतागण भी कहते पाए जाते हैं कि कॉमेडी (फ़िल्म) रचना बहुत मुश्किल काम है| इस बात को फ़िल्म- भूल चूक माफ़, सिद्ध भी करती है|

अच्छे अनुभवी कलाकारों (रघुबीर यादव, सीमा भार्गव पाहवा, जाकिर हुसैन, संजय मिश्रा, और विनीत कुमार) की उपस्थिति से सजी और नायक नायिका की भूमिका में राज कुमार राव और वामिका गब्बी जैसे अच्छे और सफल सितारा अभिनेताओं के होने के बावजूद फ़िल्म कॉमेडी की सतह से उखड़ी लगती है तो यह सोचना ही पड़ता है कि कहाँ क्या कमी इसमें रह जाती है! इस फ़िल्म के निर्माता पहले “हिन्दी मीडियम” जैसी अच्छी और प्रसिद्द कॉमेडी फ़िल्म बना चुके हैं| पिछले 15 सालों में Maddock Films ने कई प्रसिद्द फ़िल्में अलग अलग विषयों पर बनायी हैं| राज कुमार राव पहले भी उनकी 5 फिल्मों में नायक बन कर आ चुके हैं| “भूल चूक माफ़” में “हिंदी मीडियम” के दीपक डोबरियाल वाले कोण को ही यहाँ हामिद अंसारी वाले कथांश में दुहराया गया है| वहां यह सटीक लगा था पर यहाँ नहीं जमता|

यह फ़िल्म उस वर्ग की फिल्मों में भी जुड़ जाती है जो पुरानी देसी-विदेशी फिल्मों से कथा-कथानक-दृश्य बिना विधिक अनुमति लिए हुए उठा लेती हैं और बड़ी उदारता से उनका उपयोग मूल सामग्री को क्रेडिट दिए बिना कर लेती हैं|

हॉलीवुड की एक फ़िल्म है Groundhog Day (1993), जिसका निर्देशन Harold Ramis ने किया था और मुख्य भूमिकाएं Bill Murray और Andie MacDowell ने निभाई थीं| इस कॉमेडी फ़िल्म में एक टीवी चैनल पर मौसम का हाल बताने वाले मीडियाकर्मी की भूमिका निभाने वाले Bill Murray का जीवन 2 फरवरी के दिन में अटक जाता है, वह जब भी सुबह उठता है, सुबह 2 फरवरी की ही होती है जबकि दिन भर वह भांति भांति के क्रियाकलापों में व्यतीत करता है, लेकिन अगली सुबह उसका दिन पुनः 2 फरवरी की सुबह के 6 बजे के अलार्म पर उठने से ही होता है|

ऐसे प्लॉट्स में एक तार्किक कमी होती है, जिस व्यक्ति का जीवन एक विशेष तारीख़ में अटक कर रह गया है, उसे तो अगले दिन पुनः उसी तारीख़ में ही जागने पर उस तारीख में घटे सभी घटनाक्रमों की जानकारी रहती है लेकिन उससे जो व्यक्ति मिलते हैं उन्हें कुछ याद नहीं रहता और उनके लिए यह तारीख़ उनके जीवन में पहली ही बार आई होती है| ऐसा होने पर उनके अपने जीवन का क्या महत्त्व है? क्या वे एक व्यक्ति विशेष के इर्द गिर्द सहायक भूमिकाएं निभाने के लिए ही जन्मे हैं? यह एक लचर कथा होती है लेकिन तब भी Harold Ramis ने एक हास्य प्रधान फ़िल्म बनाने में सफलता प्राप्त की है और Bill Murray ने अपने सहज अभिनय से फ़िल्म में दर्शाए मसाले को स्वाभाविकता प्रदान करने की पूरी कोशिश की है|

Groundhog Day (1993) की मुख्य कथा को उधार लेने वाली भूल चूक माफ़ भी दर्शाती है कि एक मन्नत पूरी न कर पाने के कारण, नायक 29 तारीख की रात को सोता है लेकिन सुबह से पुनः 29 तारीख ही होती है, अब उसको तो इस बात का एहसास है कि 30 के बदले 29 तारीख पुनः आ गयी है लेकिन उसके घरवालों के लिए प्राकृतिक रूप से 29 ही तारीख है, नायक कैलेण्डर में 29 तारीख पर निशान लगा कर सोता है लेकिन सुबह कैलेण्डर पर कोई निशान नहीं मिलता, जबकि बाकी सारी गतिविधियाँ 29 तारीख की हरेक पुनरावृत्ति पर वैसे ही होती जाती है|

फ़िल्म बनारस में स्थापित की गयी है लेकिन ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते कि यह वहां की स्थानीय कहानी हो सकती है, न तो चरित्र ही बनारसी अंदाज़ में बोलते हैं, न ही ऐसा महसूस होता है एक भी दृश्य में कि किसी और शहर में यह कथा स्थापित नहीं की जा सकती थी| शादी में एकदम से पंजाबी गीत (माहिया) बजने लगता है| स्थानीय परिवेश स्थापित न होने की कमी फ़िल्म को ठोस रूप में जड़ें नहीं जमाने देती|

फ़िल्म पहले ही दृश्य से हर दृश्य को आइटम दृश्य के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करती है और इससे शुरू से ही लाउड होना आरम्भ कर देती है| इस अंदाज़ के लिए या तो निर्देशक हृषिकेश मुकर्जी जैसे हास्य फिल्मों के विशेषज्ञ हों या अभिनेता किशोर कुमार और गोविंदा की श्रेणी के हों, तब तो ऐसे तेज गति के कथानक शुरू से ही जम जाते हैं| प्रयास कर करके कॉमेडी अक्सर ही पैर नहीं जमा पाती| प्रयास लेखन और अभिनय दोनों के स्तर पर जब दिखाई देने लगें तो वह सफल कॉमेडी नहीं बन पाती|

फ़िल्म में नायक एक अन्य शख्स हामिद अंसारी को पुल से कूदने से रोकना चाहता है या नदी में कूद कर उसे बचाना चाहता है तो उसके मामा और दोस्त और प्रेमिका को भी यह सीक्वेंस बार बार दिखाई देता है| वे लोग कैसे उसके निजी अनुभव में सम्मिलित हो गए फ़िल्म इस जादू पर प्रकाश नहीं डालती, और कैसे उन्हें नायक की भांति अगले दिन सब कुछ याद रहने लगता है? यहाँ मूल फ़िल्म Groundhog Day (1993) से अलग चलने का प्रयास तो किया गया लेकिन यह भुला दिया गया कि नायक के सिर्फ दोस्तों को ही बीता हुआ याद रहता है, उसके माता-पिता, बहन व अन्य रिश्तेदारों और परिचितों को नहीं| इस मिश्रण से एक भ्रमात्मक फ़िल्म दर्शक को मिलती है|

फ़िल्म की सबसे बड़ी तार्किक कमजोरी है हामिद अंसारी का चरित्र और उसके लक्ष्य| अव्वल तो उसका मुसलमान चरित्र बनाया जाना फ़िल्म पर अलग से थोपा हुआ लगता है| वह मुसलमान न भी होता तो कथानक में क्या अंतर पड़ जाता? सिंचाई विभाग में नौकरी की लिस्ट में 15 अन्य लोग भी थे, उनमें से किसी का नाम काटकर नायक का नाम डाला जा सकता था|

इसके अलावा मान लिया कि हामिद अंसारी की सिंचाई विभाग में नौकरी लग गयी| तो क्या वह विभाग में इंजिनियर लग रहा था कि अपने गाँव में पानी की कमी को पूरा कर देता? इसकी क्या गारंटी है कि नौकरी लगने के बाद इतने बड़े उत्तर प्रदेश में उसकी नियुक्ति उसके अपने गाँव वाले इलाके में ही होगी? ऐसे बेसिर पैर के हिस्से फ़िल्म को लगातार खींचते रहते हैं और फ़िल्म की दिशा निश्चित नहीं होने देते|

नायक, कतई निठल्ला है, न कुछ करता है, न उसमें प्रतिभा ही दिखाई देती है कुछ करने की, न वह करना ही चाहता है, ऐसे किरदार पिछली सदी के अंतिम दशक में गोविंदा की ग्रामीण कथानकों वाली फ़िल्मों में ही चल जाते थे| उस तासीर की फ़िल्में अब बना कर दर्शक को लुभाना बेहद कठिन काम है|

संवाद में कहीं कहीं इतनी लापरवाही बरती गयी है कि कानपुर का शब्द ‘बकैतीबनारस की नायिका बोल रही है और इसका गलत जगह उपयोग करती है| वह ‘बकवास‘ शब्द के स्थान पर इसका उपयोग करती है|

राज कुमार राव कई मर्तबा कॉमेडी में अपनी दक्षता दिखा चुके हैं, लेकिन यहाँ 25 साल के नवयुवक की भूमिका में उनमें ताजगी नज़र नहीं आती| वे अच्छा नृत्य कर लेते हैं, और उन्हें इस कला के प्रदर्शन के लिए दो-तीन नृत्य गीत मिले भी और उन्होंने अपनी प्रतिभा दर्शाई भी लेकिन ऐसा कुछ कहीं नहीं लगता कि वे कुछ नया दर्शकों को दिखा पा रहे हैं इस फ़िल्म में| शुरू में पुलिस कांस्टेबल के सामने नायिका के लिए एकाएक बोलना – बहन है, भी एक और फ़िल्म में दर्शक देख चुके हैं सो उससे सरप्राइज़ फैक्टर भी नहीं जुड़ पाता|

वामिका गब्बी चंचल युवती के चरित्र में बहुत अच्छा वेब सीरीज ग्रहण, जुबिली आदि में कर चुकी हैं और यहाँ दर्शकों को यह खलने लगता है कि यह चरित्र सदा ऊँचे सुर में ही क्यों अपनी उपस्थिति दर्शा रहा है? हर दृश्य में कॉमेडी बरसाने के प्रयास के कारण नायक-नायिका के मध्य प्रेम संबंध कभी भी दर्शक को छू नहीं पाता, न उनके विवाह न हो पाने की अवस्था में दोनों के दुःख से ही दर्शक का नाता जुड़ पाता है|

अनुभवी अभिनेताओं – रघुबीर यादव, सीमा भार्गव पाहवा, जाकिर हुसैन, के पास करने को ज्यादा था ही नहीं, उनकी उपस्थिति का लाभ फ़िल्म नहीं उठा पाती| बनारस के एक विश्वसनीय चरित्र के दर्शन तभी होते हैं जब फ़िल्म में एक पंडित जी के रूप में अभिनेता विनीत कुमार परदे पर अवतरित होते हैं| उनकी उपस्थिति आशा जगाती है कि अब शायद फ़िल्म मजबूत बनेगी| संजय मिश्रा के आने से यह आशा और मजबूत होती है लेकिन दोनों के जिम्मे बमुश्किल 5-5 मिनट आये होंगे, उसमें संजय मिश्रा को तो फ़िल्म के अंत में एक मोनोलॉग मिल भी गया, बाकी अनुभवी अभिनेताओं को फ़िल्म में जाया ही किया गया है|

नायक नायिका सहित फ़िल्म के सारे ही अभिनेता इससे बहुत बेहतर करने में सक्षम अभिनेता हैं और अन्य फिल्मों में इसे बार-बार सिद्ध भी करते रहे हैं| अभिनेताओं की क्षमताओं का भरपूर दोहन फ़िल्म कर ही नहीं पाई|

अच्छी कॉमेडी फ़िल्म बनाना कठिन काम तो है ही, लेकिन प्रयास में भी कमी दिखाई देती है| फ़िल्म के रोमन में लिखे शीर्षक में जैसे चूक को चुक (chuk) लिखा गया है उसी तरह से फ़िल्म के कई हिस्सों को निबटाया गया है|

…[राकेश]


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