ज़हीन आप के दर पर सदाएँ देते रहे
जो ना-समझ थे वो दर-दर सदाएँ देते रहे (~वरुन आनन्द)
संजीव कुमार और गुलज़ार की शानदार सिनेमाई जोड़ी की अंतिम दो प्रस्तुतियों में से एक है “नमकीन“|
नमकीन में एक गीत है – राह पे रहते हैं, जो गुलज़ार–पंचम–किशोर कुमार–संजीव कुमार की चौकड़ी का संभवतः अंतिम संयुक्त महान रचनात्मक कार्य होगा|
संजीव कुमार एक ट्रक ड्राईवर – गेरुलाल, की भूमिका में हैं, जो हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से पहाडी गाँव में एक अजनबी की तरह आते हैं| गेरुलाल को कुछ दिनों के लिए वहां बसेरा बसाना है और उन्हें यह अस्थायी रैन- बसेरा मिलता है एक ऐसे घर में जहाँ एक वृद्ध स्त्री (वहीदा रहमान) अपनी तीन बेटियों (शर्मीला टैगोर, शबाना आजमी और किरण वैराले) के साथ जीवन के दिन कटते हुए देख रही है, उस कटते समय के वर्तमान को वह कितना समझ पाती है यह एक अबूझ पहेली है क्योंकि उसका दिमाग न तो स्थिर है न ठिकाने पर ही है| कुछ उसे याद रहता है बाकी सब भूल जाती है|
गेरुलाल की पहचान बस एक ट्रक ड्राईवर की ही है| वहा कहाँ का रहने वाला है, उसका कोई घर बार है या नहीं, कोई सगे संबंधी हैं या नहीं, इसके कोई लक्षण उसके व्यक्तित्व से नहीं झलकते| वह एक आदर्श मुसाफिर सरीखा है जिसका जीवन अपने काम के अनुसार इधर-उधर जाना ही है| अस्थिरता उसके जीवन का अभिन्न अंग है|
ऐसे अस्थिर और अनपेक्षित जीवन में इस गाँव में चार स्त्रियों वाले घर में कुछ महीने का ठौर उसके मन को बांध लेता है|
जब स्थिरता उसके मन को भाने लगती है, और वह भविष्य के कुछ सुखद सपने देखना शुरू ही करता है कि परिस्थितियां करवट ले उसे फिर से ट्रक में ड्राइविंग सीट पर बिठा कर उस गाँव से दूर भेजने पर उतारू हो जाती हैं|
उस गाँव से कहीं और की यात्रा पर चलना शुरू कर देने के समय का यह गीत है – राह पे रहते हैं, यादों पे बसर करते हैं, खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं …|
गेरुलाल का शरीर तो यंत्रवत ट्रक में उपस्थित है और बरसों के अनुभव के आधार पर ट्रक को चलाये जा रहा है लेकिन उसका मन कहीं निकट बीते में अटका हुआ है|
इस मन के कहीं अटके रहने और शरीर को ट्रक चला देने के द्वैत को जिस गहराई से संजीव कुमार ने निभाया है वह अभिनय की दुनिया का एक स्वर्णिम प्रदर्शन है| मन के पीछे वहीं गाँव के उस केवल स्त्रियों वाले घर में अटक जाने के कारण जीवन के इस मोड़ पर आगे बढ़ जाने की निरपेक्षता का पालन उनसे नहीं हो पा रहा, अब वे जीवन के घटनाओं से अछूते रहकर काम करने जाने की मानसिकता का पालन नहीं कर पा रहे, अब संवेदना ने उनके अस्तित्व को ग्रसित कर लिया है| जो छूट रहा है पीछे उस हानि का दुःख उनके वजूद पर छा गया है वह दुःख उनके चेहरे और आँखों से लगातार टपक रहा है|
मन के कहीं खोने से वे पूर्णतया जाग्रत अवस्था में नहीं हैं| इस खुमारी की सी अवस्था को संजीव कुमार ने अपने एअभिने की बारीकी से जीवंत कर दिया है|
परदे पर बहुत से अभिनेता सोकर उठने के दृश्य निभाया करते हैं, दुनिया में बहुत कम अभिनेता ऐसे मिलेंगे जो नींद से उठने के क्षणों को पूरी सच्चाई से निभा सकें, क्योंकि उसके लिए या तो उन्हें वाकई सोकर जागना होगा या उनमें वैसी कला हो कि नींद से बस जागने के बाद के कुछ सेकेंड्स उनकी स्मृति में इतने घनीभूत हों कि वे उन्हें कैमरे के सामने जी पायें| संजीव कुमार उन बिरले अभिनेताओं में रहे हैं जो इन क्षणों को परदे पर बिना सोये जी सकते थे| वे खुमारी को बिना जमुहाई आदि बाहरी गतिविधियों का सहारा लिए दर्शा सकने में कामयाब थे|
किशोर कुमार का गाया गीत पार्श्व में चलता रहता है और यादों में खोये गेरुलाल को लिए ट्रक चला जाता है|
बीच में धूप की किरण की चौंध विंड स्क्रीन से छनकर अन्दर आती है तो उनकी तन्द्रा कुछ क्षणों के लिए टूटती है और वे आँखें उठाकर सूरज देव की चमक को देखते हैं और पुनः अपनी यादों में खो जाते हैं|
अभिनेता को अभिनय की ट्रेनिंग में कई राहों से यही सिखाया जाता है कि जिन परिस्थितयों में उसे धकेला गया है उसमें ऐसा जियो या प्रतिक्रिया दो कि उसके द्वारा किया गया प्रदर्शन एकदम सच्चा लगे|
संजीव कुमार यहाँ उसका सौ प्रतिशत सच्चाई वाला नमूना प्रस्तुत करते हैं|
ट्रक के टायर रोड पर उपस्थित किसी गड्ढे से गुजरते हैं तो झटकों के कारण गेरुलाल यादों के घेरे से निकल कर वर्तमान में आते हैं| इस वर्तमान में आने की उनकी प्रक्रिया को देखना अभिनय की ऊंचाई के दर्शन करना है|
उनके समकालीन नायकीय अभिनेताओं के अभिनय की रेंज से यह बाहर का अभिनय है| वे अन्य तत्वों में बेहतर कर सकते होंगे पर यहाँ जो संजीव कुमार ने किया वे वैसा नहीं कर सकते थे, उनकी पूरी अभिनय पारियों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि इतनी बारीकी वे दिखा पाए हों| इसलिए संजीव कुमार का महत्त्व उनके जाने के बरसों बाद भी बना हुआ है|
संजीव कुमार होने के एकदम अलग मायने हैं|
…[राकेश]
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