रिचर्ड एटनबरो की गांधी और बासु भट्टाचार्य एवं राजकुमार संतोषी
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50 और 60 के दशक में हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक दिग्गज फ़िल्म निर्देशक और हर लिहाज से समर्थ निर्माता उपस्थित थे, बड़े काबिल लेखक फिल्मों के लिए कथा, पटकथा, संवाद और गीत लिखते थे और गांधी की मृत्यु हुए भी कुछ साल बीत चुके थे लेकिन किसी भी हिंदी सिनेमा के निर्माता निर्देशक ने गांधी की बायोपिक बनाने की ओर कदम नहीं बढाए और जागृति के गीत – दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, जैसे गीतों को फिल्मों में डालकर ही निर्माता निर्देशक संतुष्ट और प्रसन्न होते रहे| शायद यह भी एक सँभावना है कि अगर कोई निर्माता निर्देशक गांधी पर बायोपिक बनाने का प्रयास भी करता तो उसे सरकार की तरफ से तो कोई सहायता नहीं ही मिल पाती क्योंकि ब्यूरोक्रेसी में फंस कर रह जाता उसका आवेदन और अधिकारी लोग इसी बात से घबरा जाते कि कहीं गांधी की छवि से न खेल जाए फ़िल्म|
उस समय बायोपिक्स बनाने का चलन भी नहीं था| और एक कारण यह भी हो सकता है कि हंगेरियन मूल के निर्देशक गेब्रियल पास्कल ने भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु से गांधी पर फ़िल्म बनाने की लिखित में स्वीकृति ले रखी थी लेकिन एक दो साल बाद ही पास्कल का निधन हो जाने से गांधी पर फ़िल्म बनाने का प्रोजेक्ट कई साल के लिए टलता रहा| यही वे आठ – दस साल थे जबकि कोई समर्थ भारतीय फ़िल्म निर्माता या निर्देशक इस दिशा में कदम बढ़ा सकता था| लेकिन ऐसा नहीं हुआ और साठ के दशक के शुरू में रिचर्ड एटनबरो के पास यह प्रोजेक्ट आया| ब्रिटिश अभिनेता-निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने लुई फ़िशर द्वारा लिखित गांधी की जीवनी पर अपनी फ़िल्म की कहानी को आधारित किया और उसका स्क्रीन प्ले लेकर प्रधानमंत्री पंडित नेहरु से मिले जिन्होंने उनके लिखे स्क्रीन प्ले को स्वीकृति दे दी और किसी भी प्रकार की सहायता पाने के लिए इंदिरा गांधी से संपर्क साधने के लिए कहा|
जल्द ही पंडित नेहरु का निधन हो गया और फिर से कई साल के लिए प्रोजेक्ट टल गया| रिचर्ड एटनबरो अपनी अन्य फिल्मों में व्यस्त हो गए| इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं और कुछ अरसे बाद ही भारत में आपातकाल लग गया था| रिचर्ड एटनबरो को गांधी फ़िल्म बनाने केलिए थोडा फंड मिला तो वे पुनः इस दिशा में सक्रिय हुए और इस बार पी एम इंदिरा गांधी से मिले तो एन एफ डी सी, के माध्यम से उन्हें स्पेशल फंड मुहैया करवाया गया गांधी फ़िल्म बनाने के लिए| सन 1980 में शूटिंग आरम्भ करके रिचर्ड एटनबरो ने फ़िल्म को 1982 में प्रदर्शित कर दिया|
एक बायोपिक उस व्यक्ति के बारे में लोगों की जानकारी को बढाती है क्योंकि एक फ़िल्म विस्तार से उस व्यक्ति के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाती है| एक महान व्यक्ति के नाम से और उसके थोड़े बहुत कार्यों से लोग परिचित हो सकते हैं लेकिन जितना उस महान व्यक्ति के बारे में लोग उसकी जीवनी पर लिखी पुस्तक या जीवनी पर बनी फ़िल्म देखने से जान सकते हैं उतना इन दोनों रचनाओं के अभाव में नहीं जान सकते|
भारत में बैठकर भारत के स्कूलों में पढने वाले किशोरों को यह लगता है जिन भारतीय महापुरषों के बारे में हम जानते हैं ऐसे ही अन्य देशों के बच्चे भी जानते होंगे लेकिन यह उतना ही सच और संभव है जितना कि भारतीय छात्र अमेरिकी राष्ट्रपतियों, और विश्व के अन्य प्रसिद्द नेताओं के बारे में जानते हैं|
क्या भारतीय छात्र चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रो, हो ची मिंह, अब्राहम लिंकन, जॉर्ज वाशिंगटन, और जॉन ऍफ़ कैनेडी, मार्शल, टीटो, नासिर, गोल्डा मायर, लेनिन,और स्टालिन, आदि के बारे में इनके नाम, ये किस देश के थे, और इनके एक दो कामों के अलावा इनके बारे में जानते हैं? नहीं जानते लेकिन अगर इनके ऊपर बनी गांधी जैसी फ़िल्म वे देख लें तो विस्तार में इन व्यक्तित्वों के बारे में जान सकते हैं|
गांधी के भी बस नाम से ही अन्य देशों के लोग परिचित होते हैं और थोडा बहुत उनके काम के बारे में जानते हैं लेकिन जब वे ही लोग रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म – गांधी देख लेते हैं तो वे गांधी के जीवन के बारे में विस्तार से जानने लगते हैं|
वही भारतीय लोग भी गांधी के बारे में ज्यादा जानते हैं जो गांधी पर लिखी गई अच्छी किताबें पढ़ते रहते हैं| अब अगर कोई लुई फ़िशर की किताब गाँधी और स्टालिन पढ़ लेगा तो उनके तुलनात्मक संसार के बारे में उसकी जानकारी बढ़ जायेगी|
डॉ. आंबेडकर के नाम से और उनके जीवन के चंद तथ्यों से परिचित होना उनसे भली भांति परिचित होना नहीं है, इतना परिचय सिर्फ इस बात को दर्शाता है कि व्यक्त आंबेडकर को पहचानता है| उन्हें जानने के लिए तो उन पर लिखी गयी सामग्री को कायदे से पढना ही पड़ेगा|
बहरहाल रिचर्ड एटनबरो ने गांधी बना कर प्रदर्शित कर दी और फ़िल्म ने दुनिया भर में सफलता प्राप्त की और गांधी के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोग ज्यादा से ज्यादा जानने लगे| फ़िल्म देखकर गांधी को रुचिकर मानकर बहुत से लोगों ने उनके बारे में अन्य स्रोतों जैसे किताबों से और ज्यादा जानकारी ली होगी या लेनी शुरू कर दी होगी| इसे मानने में कतई कोई भी शक नहीं कि रिचर्ड एटनबरो की गांधी ने दुनिया भर में गांधी कोऔर ज्यादा प्रसिद्धि आकर्षित करने में सहायता प्रदान की|
एक भारतीय फ़िल्मी पत्रकार एक साक्षात्कार लेने के सिलसिले में निर्देशक बासु भट्टाचार्य से मिलने उनके घर गया और उनसे बातचीत के वक्त उसने गांधी फ़िल्म पर चर्चा छेड़ दी और उनके विचार पूछे फ़िल्म के बारे में|
बासु भट्टाचार्य ने कहा कि अगर उन्हें बीस करोड़ रूपये का फंड मिल जाए तो वे भी बना दें ऐसी फ़िल्म|
दूसरी बात उन्होंने कही कि यह फ़िल्म गांधी के एक प्रशंसक ने बनाई है अतः यह एक प्रशस्ति फ़िल्म मात्र है और इसमें गांधी के जीवन को आलोचना की दृष्टि से देखा ही नहीं गया है और चुन कर ऐसी सामग्री रखी गई जिससे कि गांधी की छवि एक महामानव की बने| कोई भी ऐसा प्रसंग फिल्म में ऐसा नहीं है जो गांधी के जीवन पर उनके द्वारा लिए निर्णयों पर संतुलित एवं तार्किक दृष्टिकोण रख सके| फ़िल्म गांधी के प्रति भक्तिभाव से भर कर ऐसा ही भक्तिभाव दर्शकों में जगाने के उद्देश्य से बनाई गयी है|
अब इस साक्षात्कार के बरसों बाद जब राज कुमार संतोषी अपनी फ़िल्म चाइना गेट को प्रदर्शित करने वाले थे तब उन्होंने दूरदर्शन पर एक साक्षात्कार दिया| अपनी फ़िल्म का प्रोमोशन करते हुए बातों ही बातों में उन्होंने बासु भट्टाचार्य का नाम लिए बिना उसमें कही बातों का जिक्र किया और कहा कि गांधी जैसी फ़िल्म बीस करोड़ के फंड से नहीं बनती है बल्कि रिचर्ड एटनबरो के बीस सालों के धैर्य और सिनेमा के प्रति उनके पैशन के कारण फ़िल्म इतनी प्रभावशाली बन कर उभरी है| पैसा नहीं बल्कि निर्देशक की कला, सिनेमा के प्रति उसका जूनून और अपनी कला के प्रति ईमानदारी आदि तत्वों से ही एक निर्देशक एक महान फिम बना पाता है|
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