प्रसिद्ध कवि रामावतार त्यागी की एक कविता की पंक्त्तियाँ हैं
जी रहे हो जिस कला का नाम ले ले
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है?
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो,
वही हम बदनाम लोगों ने रची है।
उपरोक्त्त कविता का सार दिखायी देता है फिल्म – पीपली लाइव, के दुखद अंत में।
फिल्म के अंत से शुरु करें तो फिल्म स्पष्टतया दिखाती है कि जिस इंडिया शाइनिंग के बलबूते बहुत सारे लोग अठ्ठाहस लगा लगाकर हँस रहे हैं, गरीबी से ज्यादा गरीब भारतवासियों को छूत के रोग समझ रहे हैं उस इंडिया की चमक भारत में रहने वाले इन्ही गरीब, किसान और मजदूर वर्गों की मेहनत और खून पसीने के बलबूते बरकरार है। इंडिया, भारत में बसने वाले किसान और मजदूर वर्ग को उसके कठिन परिश्रम की कीमत सबसे कम देने वाले देशों में से एक है। इंडिया भूल गया है कि उसका और भारत का रंग रुप और जीन एक ही है।
कैसी विडम्बना है कि इंडिया तो अपने उत्पाद भारत को 100-300% के मुनाफे पर बेचता है पर भारत से उसका उत्पाद उचित मूल्य पर खरीदते हुये उसके सारे शरीर और दिमाग में एलर्जी से उत्पन्न खारिश और खुजली शुरु हो जाती है।
इस देश में आर्थिक असमानता का ऐसा जलवा है कि कम भूमि वाले किसान तो गरीबी में गुजारा करते हैं और कर्जे के बोझ से दबा कुचला जीवन जीते किसानों की संख्या में दिनोदिन बढ़ोत्तरी हो रही है, पर इसी देश में चकबंदी के बावजूद आज भी लगभग हर राज्य में ऐसे धनी मिल जायेंगे जिन्होने सैंकड़ों बीघा भूमि बागों के नाम ले रखी है। इनमें धन कुबेरों से लेकर सितारों तक कई वर्ग के लोग आते हैं। खेती का ठप्पा इन धन कुबेरों के लिये सिर्फ और सिर्फ टैक्स बचाने का माध्यम है।
ऐसी आर्थिक असमानता और अंधे बनकर अस्पष्ट आर्थिक तौर तरीकों वाली प्रक्रियाओं का अनुसरण करने का नतीजा है कि हरेक राज्य में गरीब किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। कम भूमि वाले किसानों की समस्यायें और ज़िन्दगी बेहद जटिल हो गयी हैं।
इस आत्महत्या के लिये विवश होने वाले वर्ग को इंडिया सिर्फ अखबारों एवम टेलीविजन जैसे माध्यम के द्वारा पहचानता है। कुछ दशक पहले इंडिया के बहुत बड़े वर्ग का कुछ सम्पर्क ग्रामीण भारत से बना हुआ था क्योंकि ऐसे लोग शहरों में रहते थे जिनकी शुरुआत गाँवों से ही हुयी थी और कभी कभी वे गाँव चले जाया करते थे। ऐसे लोग जब वृद्ध हो गये या दिवंगत हो गये तो ग्रामीण भारत और इंडिया के बीच की कड़ी भी टूट गयी और शहरी युवावर्ग के लिये गाँव अजनबी होते चले गये। फिल्मों से तो गाँव और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्यायें कब की गायब हो गयी थीं। ऐसे में जब पीपली लाइव गाँव की, गरीब किसानों की निराशाजनक स्थितियों पर अपना ध्यान केंद्रित करती है तो लगता है कि सिनेमा का वास्तविक जीवन से कुछ सम्पर्क बचा रह सकता है।
हमारे देश के लोगों के अंदर या तो संवेदनायें मर चुकी हैं या तेजी से मरती जा रही हैं। दो गरीब किसान भाईयों, बुधिया और नत्था, की विकराल समस्याओं पर उनके इलाके के धनी और प्रभावशाली लोग न केवल हँसते हैं बल्कि एक महानुभाव तो दोनों भाईयों को सलाह दे देते हैं कि जमीन बचाने के लिये उन्हे आत्महत्या कर लेनी चाहिये ताकि सरकार उन्हे एकाध लाख रुपये दे दे। इन लाचार भाईयों का मखौल उड़ाते हुये बेशर्मी से हंसते हुये वह धनी कहता है कि कुछ और कर सको या न कर सको तुम, मर तो सकते ही हो।
बस आत्महत्या करने की यही सलाह बुधिया और नत्था के लिये सरकार से कुछ धन पा सकने की आशा जगा जाती है। पीपली लाइव का कर्मक्षेत्र खुलासा करता है कि कैसे नेता लोग इन गरीब भाईयों की गरीबी और आत्महत्या करने की मंशा के इर्द गिर्द चालाक राजनीति का घेरा डाल कर अपनी नेतागिरी चमकाने में लग जाते हैं और कैसे मीडिया टी.आर.पी की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में इन भाईयों की एक्सक्लूसिव कवरेज लेने के लिये इन्हे मोहरा बना कर छोड़ देता है।
फिल्म न केवल किसानों द्वारा आत्महत्या करने की समस्या को हास्य व्यंग्य की वेशभूषा में लपेटकर पेश करके दर्शकों के मानस पटल पर चोट करती है बल्कि बहुत बेरहमी से यह फिल्म मीडिया, जो कि कभी लोकतंत्र के लिये बेहद आवश्यक स्तम्भ माना जाता था, को भी दर्शकों के सामने नग्नावस्था में ला खड़ा कर देती है।
एक बड़े चैनल से शहर से पीपली आयी मीडियाकर्मी, जो कि शाइनिंग इंडिया की ही प्रतिनिधि है, जब गाँव में रहने वाले एक छोटे पत्रकार को आदर्शों के कारण दुखी देखती है तो उसे धिक्कारती है क्योंकि यदि वह उस बेवकूफ पत्रकार की भावनाओं को सच मान लेती है तो उसे ग्लानि के भाव से गुजरना होगा और उसकी खाल अब इतनी मोटी हो चुकी है कि ऐसी संवेदनायें उसके अंदर बची ही नहीं हैं। वह ग्रामीण पत्रकार को सावधान करते हुये कहती है,
”ओह कम ऑन राकेश, जैसे डाक्टर, इंजीनियर होते हैं ऐसे ही हम भी जर्नलिस्ट हैं”
ऐसा कह कर वह उन लोगों के विश्वास को भी पंक्चर कर देती है जो अभी भी इस गलतफहमी में जी रहे हैं कि जर्नलिज्म एक मिशन है। यह नहीं है जनाब और यह उस हद तक भ्रष्ट हो चुका है जिस हद तक इसे दूर से देखने वाले सोच भी नहीं सकते।
बड़े स्तर की मीडियाकर्मी के विचार एक भयावह तस्वीर हमारे सामने रखते हैं। अब दूसरे क्षेत्रों की तरह जर्नलिज्म में भी एक अकेले ईमानदार पत्रकार का कोई वजूद नहीं है। जर्नलिज्म की पूरी व्यवस्था और अन्य क्षेत्रों की तरह ही पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है। भ्रष्टाचार इंडिया के हरेक क्षेत्र में जम चुका है परन्तु जीने के लिये कुछ आशा तो चाहिये इसीलिये शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून और प्रेस से आज भी आशायें बँधती हैं कि कहीं न कहीं कोई तो ईमानदार बचा होगा इन क्षेत्रों में जो आम आदमी की जीवन को सबसे ज्यादा और सबसे पहले प्रभावित करते हैं। सबको पता है कि झूठी हैं ये आशायें पर फिर भी ये जिये चली जाती है आम आदमी के जेहन में।
इंडिया, भारत की समस्याओं को देखना नहीं चाहता और अगर भारतीय विरोध करने लगें तो ऐसे भी लोग हैं जो इस ख्यालात के हैं कि विरोध करने वालों को अगर गोली से न भी उड़ाया जाये तो कम से हवालात की सैर तो करा ही दी जाये आखिरकार वे इंडिया की प्रगति रास्ते में बाधा बन कर खड़े हैं।
ऐसे माहौल में हास्य व्यंग्य ही एकमात्र अहिंसक माध्यम है समस्याओं को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने का। बी.डी.ओ हो, ग्राम प्रधान हो, डी.एम हो, एम. एल ए. हो, एम. पी हो, केन्द्रीय मंत्री हो, पुलिस हो, मीडिया कर्मी हो, इन सबके विचारों और कर्मों के द्वारा पीपली लाइव इंडिया के भ्रष्ट वर्तमान को बखूबी दिखाती है। हास्य व्यंग्य की शैली से एक तरह का हंगामें भरा वातावरण बन जाता है चाहे वह साहित्य ही क्यों न हो और पीपली लाइव उस हँगामें भरे माहौल को बहुत जीवंत तरीके से दृष्यों के द्वारा दिखाती है।
कुछ दर्शक होंगे जो पीपली लाइव के द्वारा हास्य व्यंग्य की विधा को अपनाने पर आपत्ति दर्शायेंगे पर ऐसा करना एक भूल ही होगी क्योंकि ऐसे मुद्दो पर गम्भीर फिल्में बनने पर बहुत से लोग उन्हे सिनेमा हॉल तो छोड़िये टीवी पर भी देखने को समय व्यर्थ करना मानते हैं।
सामाजिक सरोकार के दृष्टिकोण से देख लें या सिनेमा के दृष्टिकोण से, पीपली लाइव दोनों ही मोर्चों पर बढ़त बना लेती है। इसने सामाजिक सरोकार का ऐसा विशाल तम्बू फैलाया है और उसे व्यंग्य की ऐसी धार दी है कि मुमकिन ही नहीं कि इस तम्बू की छाया से कोई दर्शक बच सके। बुधिया (रघुवीर यादव) और नत्था (ओंकार दास) की विडम्बनाओं को फिल्म दर्शकों तक हँसाते-हँसाते लेकर आती है पर बीच बीच में ऐसे संवेदनशील क्षण भी दिखा देती है मानो चेतावनी देती चल रही हो कि हँस लो आज जितना हँसना है इन घटनाओं से उत्पन्न हास्य पर, परन्तु यही हास्य व्यंग्य अंदर गहरे में घुस कर बैठ जायेगा और आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों असली समस्यायें अपने विशुद्ध रुप में करवटें बदलने लगेंगी और उसके बाद दर्शक को अगर चैन से सोना है और समस्यायों को नजर अंदाज करना है तो उसे किसी तरह के नशे की सहायता से ही ऐसा कर पाना संभव होगा।
पीपली लाइव साफ साफ दर्शा देती है कि समस्याओं पर केवल बोझिलता से भरपूर फिल्में ही नहीं बनती हैं बल्कि ऐसी फिल्में भी बनायी जा सकती हैं जो दर्शक को अपने आकर्षण में बाँध लेने की क्षमता भी रखती हैं। फिल्म की योग्यता बढ़ाने में, अच्छी और प्रभावी कथा/पटकथा, कथानक के अनूकूल और प्रभावित करने वाला वातावरण, सही अभिनेताओं का चयन और उनके द्वारा प्रदर्शित किये गये अच्छे अभिनय का बहुत बड़ा योगदान होता है क्योंकि यही वे तत्व हैं जो दर्शक को वास्तविकता को भूल कर फिल्म द्वारा रचे गये वातावरण की सच्चाई में खोने के लिये प्रेरित करते हैं। इन सब तत्वों में पीपली लाइव अपनी श्रेष्ठता साबित करने में सफल रहती है।
गरीब ग्रामीण का इतना जबर्दस्त चित्रण आज के दौर में कम से कम हिन्दी सिनेमा में तो रघुवीर यादव के अलावा सिर्फ और सिर्फ पंकज कपूर ही कर सकते हैं। फिल्म समीक्षक, मीडिया और खुद फिल्म संसार के नियंत्रक इस बात को ने देख पाते हों या देख कर भी अनदेखा कर जाते हों पर रघुवीर यादव सालों से फिल्म दर एक से बढ़ कर एक अभिनय प्रदर्शन करते आ रहे हैं। यहाँ पीपली लाइव में भी वे बुधिया के रुप में कमाल करते हैं।
ओंकार दास की यह पहली फिल्म है और बहुत कम संवाद उनके जिम्मे आये हैं पर उनकी उपस्थिति मात्र फिल्म को बड़े गहरे अर्थ दे जाती है। नत्था का चरित्र मानो उन्ही के लिये जन्म लेने के इंतजार में था।
ओंकार दास सहित बहुत सारे अभिनेता मरहूम हबीब तनवीर साब के थियेटर ग्रुप की पृष्ठभूमि से आये हैं और उनके अभिनय की गुणवत्ता का यह आलम है कि कई ऐसे अभिनेता हैं जिनके प्रदर्शन के सामने नसीरुद्दीन शाह का अभिनय कतई नहीं चौंकाता जैसा कि उनकी बहुत सारी अन्य फिल्मों में होता है और जहाँ उनकी उपस्थिति एक अनिवार्य तत्व लगती है फिल्म की योग्यता बनाये रखने के लिये। यहाँ नसीरुद्दीन शाह नहीं भी होते तो भी ये सारे कलाकार पीपली लाइव को इतनी ही मजबूती से थामे रहते और यह बहुत बड़ी बात है कि नसीर जैसे वरिष्ठ और मंझे अभिनेता की अनिवार्य नहीं है इस फिल्म में। ऐसे दर्शकों की संख्या बहुत बड़ी हो सकती है जो उनके चरित्र को नहीं बल्कि परदे पर पहली बार देखे जा रहे अभिनेताओं के प्रदर्शन को देखने के लिये उत्सुक हो सकते हैं।
नवाजुद्दीन, शालिनी वत्स, मलाइका शिनॉय, और सीताराम पाँचाल आदि सभी अभिनेताओं ने खूब जम कर अभिनय किया है।
पहली फिल्म के लिहाज से पीपली लाइव अनुषा रिज़वी का एक उल्लेखनीय प्रयास है। सखी सैंया तो खूब ही कमात हैं के लिये अगर वे फिल्म की शुरुआत में ही, जब बुधिया और नत्था की परेशानी भरी जिन्दगी विस्तार से नहीं दिखायी गयी थी, जगह निकाल पातीं तो सिनेमा के दृष्टिकोण से फिल्म की गुणवत्ता और बढ़ जाती और ऐसी कुछ छोटी छोटी कमियाँ दूर की जातीं तो उनकी निर्देशकीय दूरदृष्टि और ज्यादा निखर कर सामने आती।
… [राकेश]
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