दस्तक उन फिल्मों में से है जिन्हे (जिनकी कहानी को) चाहे पढ़ा जाये या देखा जाये वे एक गहरा असर पाठक और दर्शक पर छोड़ ही जाती हैं। उर्दू कथाकारों की मशहूर तिकड़ी (मंटो, कृष्ण चंदर और राजेन्द्र सिंह बेदी) के राजेन्द्र सिंह बेदी ने इस फिल्म को लिखा भी था और निर्देशित भी किया था। अमिय चक्रवर्ती, सोहराब मोदी, बिमल रॉय और ह्र्षिकेश मुखर्जी आदि के लिये कई बेहतरीन फिल्में लिखने वाले राजेन्द्र सिंहे बेदी की एक निर्देशक के तौर पर, दस्तक, पहली फिल्म थी और इसे बिना किसी विवाद या विरोध के उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों में शीर्ष स्थान पर रखा जा सकता है।
दस्तक में परेशानियों की हदों पर रहते एक दम्पति की कहानी को दिखाया गया है। नव दम्पति परेशानियों की उन सीमाओं पर जी रहे हैं जिनके परे एक और कदम रखने पर मानव के सामने टूटने का खतरा पैदा हो जाता है।
दस्तक दिखाती है कि परिवेश मानव जीवन को हद दर्जे तक प्रभावित करता है और एक अकेला मानव कैसे विवश रहता है परिवेश के सामने। अगर सौ में से निन्यानवे भ्रष्ट हो जाते हैं तो वे सौवें व्यक्त्ति का जीना मुहाल कर देते हैं क्योंकि उसकी ईमानदारी उनसे बरदाश्त नहीं होती। वे सहन नहीं कर सकते कि उस काले माहौल में कोई ऐसा भी रहे जिसके वस्त्र अभी तक उजले हों।
चारों तरफ एक खराब माहौल से घिरे एक गरीब पर ईमान वाले व्यक्त्ति की जिन्दगी तब नर्क बन जाती है जब बाजार उसे भ्रष्ट करने पर उतारु हो जाता है।
दस्तक के नव दम्पत्ति हामिद और सलमा को गुमान भी नहीं है कि बम्बई जैसे महानगर में घर न मिल पाने की बहुत सारी परेशानियों को उठाने के बाद जिस मकान में वे रहने आये हैं उसमें सिर्फ एक माह पहले तक एक वेश्या का वास था और वहाँ उसकी महफिलें सजा करती थीं और जहाँ संगीत और नृत्य की आड़ में जिस्मफरोशी का धंधा भी चलता था।
आसपास रहने वाले छोटे मोटे दुकानदार वेश्या के वहाँ रहने से खुश रहते थे क्योंकि उसकी महफिलों की वजह से उनकी दुकानों में भी ग्राहकों की आमद बढ़ी रहती थी और जब से वेश्या वहाँ से चली गयी थी दुकानदारों का व्यापार भी मंदा हो गया था।
हर तरह के बाजार में लोगों को उस बाजार के विशिष्ट रंग रुप में ढ़ालने वाले दलाल भी जरुर घुमते रहते हैं क्योंकि नये से नये ग्राहक और नये से नये माल पर ही उनकी आजीविका भी टिकी रहती है। इस मीना बाजार में भी ऐसे दलालों की कमी नहीं है जो सीधी सादी गृहस्थिन सलमा को वेश्या बनाने पर उतारु हैं। वे उसके पति पर भी चारों तरफ से जोर डालते हैं जिससे कि वह अपनी पत्नी के गले और जिस्म का सौदा करने के लिये राजी हो जाये।
ऐसे खराब माहौल में सलमा की खूबसूरती, उसका जवान होना, और उसका अच्छा और सुरीला गाने का गुण, सब उसके दुश्मन बन कर खड़े हो जाते हैं। शोषक कोई लिंग आधारित वर्ग नहीं होता और अक्सर नारी भी पीछे नहीं रहती नारी का शोषण करने में। वेश्या को अपनी ढ़लती उम्र में नयी लड़कियाँ चाहियें जो अपने जिस्म और गुण बेचकर उसे पैसा कमा कर दें और वह भी सलमा को वेश्या बनाने को अपनी नाक का सवाल बना लेती है।
लाचारियों से जूझते पात्रों को दिखाती फिल्म दर्शक को झकझोरती हुयी चलती है। गरीबी के अभिशाप को रेखांकित करती हुयी फिल्म दृष्य दर दृष्य दर्शक को चैन की सांस नहीं लेने देती।
जीने का संघर्ष इतना बड़ा है कि पहली बार घर आये दामाद के आगमन पर बूढ़ा ससुर खुश भी है पर उसकी गरीबी उसे इतना लाचार भी कर देती है कि एक माह के अवकाश पर आये बेटी और दामाद को वह कुछ दिन बाद ही जाने से रोक पाने का नाटक भी नहीं कर पाता। वह उन्हे खाना तक खिलाने में असमर्थ है और दामाद यह बात जानता है और वह अपने ससुर को और ज्यादा मुश्किल में डाले बिना वहाँ से जाना चाहता है। वह नहीं चाहता कि उसके ससुर उसके सामने अपनी शार्मिंदगी की हालत को स्वीकार करें।
धन एक बहुत बड़ा सत्य है जिसे सामान्य जीवन जीते गृहस्थ लोग झुठला नहीं सकते।
नर नारी का रिश्ता बड़ा अजीब सा है और इसमें नाना प्रकार के उतार चढ़ाव आते रहते हैं। चारों तरफ से अपनी पत्नी के चरित्र पर हुये आक्रमण से और सब लोगों द्वारा अपनी पत्नी को सिर्फ कामुक निगाहों से देखे जाने से हामिद इतना परेशान और कुंठित हो जाता है कि वह भी नारी को भोगने वाला नर बन जाता है और वह भूल जाता है कि वह सलमा का पति है। वह एक नर के रुप में सलमा नामक नारी से बलात्कार कर बैठता है।
एक अकेला ईमानदार और गरीब आदमी क्या करे एक भ्रष्ट समाज में गुजर बसर करने के लिये? कैसे वह अपना जीवन चलाने के लिये साधन भी जुटा ले और अपना ईमान भी बचा ले? परेशान होकर हामिद एक बार चिल्लाता भी है कि क्यों शरीफ आदमी के हाथ, ईमान और अच्छाई आदि शब्दों से बाँध दिये गये हैं। वह चोरी नहीं कर सकता, वह डाका नहीं डाल सकता, वह कोई अपराध नहीं कर सकता।
इतने निराशा भरे और कालिख पुते माहौल में कहीं कहीं कुछ दिये टिमटिमा रहे हैं जो चारों तरफ से परेशानियों और भ्रष्ट लोगों से घिरे दम्पति के जीवन में कमजोर ही सही पर एक सहारा बन कर आते हैं।
मीना बाजार के इस गंदे माहौल में भी एक बूढ़ा है जो हामिद और उसकी पत्नी की परेशानियाँ समझता है और अपने लम्पट बेटे के खिलाफ जाकर भी उनकी सहायता करता है।
हामिद के दफ्तर में काम करने वाली एक युवा सहयोगी है जिसे हामिद से प्रेम तो है पर वह जानती है कि हामिद उसका नहीं है और न ही हो सकता है और उसने अपने प्रेम को करुणा में बदल लिया है। वह अपनी क्षमता भर हामिद की मदद करना चाहती है और करने का प्रयास भी करती है।
सवेरा निकलने से पहले अंधेरा बहुत घना हो जाता है और हामिद और सलमा भी सहन करने की आखिरी सीमा पर पहुँच जाते हैं। एकबारगी वे मुसीबतों से लड़ने का साहस खो बैठते हैं और कुछ समय के लिये स्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं।
स्वांत सुखाय के लिये गाने वाली सलमा एक रईस आदमी के सामने बाजार में गाने वाली एक वेश्या के रुप में गाना गाने बैठ जाती है। सलमा की इज्जत के लिये इतना लड़ने वाला हामिद उसकी हत्या करने पर उतारु हो जाता है।
पर अंधेरा छंटता है और दोनों अपने होश वापिस पा जाते हैं।
हामिद खम ठोकता है कि यदि दुनिया रंडी का कोठा है तो भी वह आखिरी सांस तक इन सबसे लड़ेगा और जियेगा।
मानसिक संतुलन वापिस पा चुकी सलमा हामिद को बताती है एक नये जीवन ने उन दोनों के जीवन के द्वार पर दस्तक दे दी है।
फिल्म की यथार्थवादी प्रकृति पूरी फिल्म में दर्शक को डरा कर, चौंका कर, और मानसिक स्तर पर आघात करके बांधे रखती है।
संजीव कुमार और रेहाना सुल्तान ने दलालों के सताये दम्पत्ति के रुप में अविस्मरणीय अभिनय किया है। संजीव कुमार तो दस्तक से पहले कई फिल्मों में अपने अभिनय के जौहर दिखा चुके थे पर रेहाना सुल्तान की यह पहली फिल्म थी और इस लिहाज से उनके अभिनय प्रदर्शन की गुणवत्ता की कीमत कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अपनी पहली ही फिल्म में इतना प्रभावशाली अभिनय बहुत कम अभिनेत्रियों द्वारा दर्शाया गया है।
हामिद की सहयोगी की छोटी भूमिका में अंजू महेन्द्रू ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। अनवर हुसैन द्वारा निभाई गयी एक दलाल पान वाले की भूमिका में उनका अभिनय उनके चुनींदा अच्छे प्रदर्शनों में से एक है।
मदन मोहन ने कालजयी संगीत की रचना की और लता और रफी दोनों को बेहद अच्छे गाने दिये। दो गाने बैया न धरो बलमा और हम हैं मता ए कूचा ओ बाजार तो मदम मोहन, लता मंगेशकर और मजरुह सुल्तानपुरी के द्वारा रचित बेहद महत्वपूर्ण गानों में शामिल हो गये हैं।
कमल बोस ने कैमरे और प्रकाश के साथ अच्छे प्रयोग किये हैं।
फिल्म की गुणवत्ता देख कर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह राजेन्द्र सिंह बेदी द्वारा निर्देशित पहली ही फिल्म थी क्योंकि उन्होने एक कुशल निर्देशक की तरह अपने द्वारा लिखे गये एक जटिल विषय को संभाला है और मानवीय मनोस्थितियों का विश्लेषण किया है।
संजीव कुमार, रेहाना सुल्तान और मदन मोहन को इस फिल्म में उनके बेहतरीन प्रदर्शन के लिये राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
दस्तक हिन्दी सिनेमा की एक बेहद उल्लेखनीय फिल्म है।
…[राकेश]
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