dhobighatधोबी घाट उर्फ मुम्बई डायरीज एक अच्छी फिल्म है। पहली बार निर्देशन की बागडोर संभाल रही किरण राव की इस फिल्म में रोचक कथ्य है और उसे प्रस्तुत करने का उतना ही रोचक तरीका भी है।

किरण राव के निर्देशन में उनके सिनेमेटोग्राफर – तुषार कांति रे, का कैमरा फिल्म के प्रारम्भ से ही कभी-कभी फिल्म की एक पात्र यास्मीन (कीर्ति मल्होत्रा) के कैमरे में कैद होते जाते या कैद हो गये दृष्यों को साझा करता है।

साहित्य या कला में अपने जीवन से अलग व्यक्त्तियों के जीवन कथ्य या दर्शन आदि से रुबरु होना मानव को अच्छा लगता है। अपने जीवन से इतर और लोगों के जीवन के बारे में जानने की उसमें उत्सुकता रहती है। जो वह नहीं जी सकता या शायद जी नहीं पायेगा उसके बारे में देखने, सुनने और पढ़ने की उत्सुकता उसमें ताउम्र बरकरार रहती है और आदमी कितना ही एकांत प्रिय क्यों न हो इस एक इच्छा को दरकिनार कर पाना हरेक के बस की बात नहीं है, कम से कम जीवन में कुछ समय ऐसा अवश्य रहता है जब यह प्रवृत्ति उसके संग वास करती ही है।

मानव की यह इच्छा ही साहित्य, थियेटर और सिनेमा जैसी कलाओं के लिये पाठक और दर्शक जुटाती है।

धोबी घाट के चार अहम मानव पात्रों में से एक चरित्र अरुण (आमिर खान), चित्रकार हैं। वे एकांतप्रिय हैं। सामाजिक होना उन्हे पसंद नहीं। व्यवसायिक रिश्तों के अलावा उनके अंदर मित्रता जैसे रिश्तों के लिये भी कोई उत्सुकता दिखायी नहीं देती। कह सकते हैं कि कलाकार होने के बावजूद अन्य लोगों के लिये वे एक बंद मकान बन चुके हैं जहाँ इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि खटखटाने पर दरवाजा खुलेगा ही या अगर खुल भी गया तो आगंतुक को अंदर आने के लिये कहा जायेगा या किसी किस्म के स्वागत का भाव दर्शाया जायेगा। फिल्म बताती है कि अरुण का तलाक हो चुका है और उनकी पत्नी बेटी को लेकर सिडनी जा बसी हैं। शायद तलाक भी दुनिया से उनके कट जाने का एक कारण हो।

धोबी घाट मौजूदा समय में मानव के बदलते मूल्यों को और जीवन जीने की उसकी गति को दिखाती है। अरुण की एकांतप्रियता, दुनिया से कटे रहने को और वह किसी से भी नजदीकी नहीं चाहता, लगभग 90 मिनट की फिल्म में इस बात को कैसे प्रभावी रुप से दिखाया जाये?

अमेरिका से भारतीय मूल की शाइ (मोनिका डोगरा) मुम्बई आयी हुयी हैं। वहाँ वे इंवेस्ट्मेंट बैंकिग विशेषज्ञ के रुप में कार्य करती हैं और स्वैच्छिक अवकाश (सबाटिकल) लेकर भारत में खोते जा रहे व्यवसायों पर व्यक्तिगत शोध करने के लिये बम्बई/मुम्बई आयी हैं। उनके पिता मुम्बई में ही बड़े आर्किटेक्ट हैं। शाइ, अरुण की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी देखने पहुँचती हैं और वहाँ अनायास हुयी मुलाकात ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं कि वह रात शाइ, अरुण के घर में व्यतीत करती हैं। शराब का सुरुर और नये परिचय की उत्सुकता मिलकर ऐसा कॉकटेल बनाती है जिसका नशा दोनों को बहा ले जाता है। जहाँ शाइ अगली सुबह इस नये पनपे संबंध के आगे बढ़ने के ख्याल से रोमांचित और उत्साहित हैं वहीं वे अरुण को बीती रात की नजदीकी के लिये शर्मिंदा होते हुये पाती हैं और अपमान महसूस करके अरुण का घर छोड़ देती हैं।

अरुण अकेलेपन की ज़िंदगी ही नहीं जी रहे हैं बल्कि रचनात्मक रुप से वे एक ब्लॉक से गुजर रहे हैं और सृजनात्मक बाँझपन उन्हे भीतर से क्रोधित रखता है और वे प्रयासरत हैं कि कुछ उन्हे सृजन की ओर प्रेरित कर दे।

अरुण और शाइ के बीच की एक कड़ी है मुन्ना उर्फ ज़ोहेब (प्रतीक बब्बर), जो व्यवसाय से एक धोबी है। सपनों के शहर में रहने वाले मुन्ना के जीवन में सपने और आशावाद है।

मुन्ना में सलमान खान और उनकी फिल्मों के प्रति दीवानगी है। कपड़े धोने के कार्य के अलावा वे कई और तरह के कार्य करके पैसा कमाते हैं ताकि मल्टीप्लैक्स में अपनी मनपसंद फिल्म देख सकें। वे सलमान खान की तर्ज पर ही दायीं कलाई में उनके जैसा ही ब्रेस्लेट पहनते हैं। सलमान की तरह वे बॉडी बिल्डिंग में लगे रहते हैं और वे एक कसरती शरीर के मालिक हैं। गहरे में उनके अंदर फिल्मों में काम करने की इच्छा है।

अपने शौक पूरा करने के सामने उनके लिये पैसे की कोई अहमियत नहीं है। वे ढ़ंग से पढ़े-लिखे नहीं है। बचपन में ही बिहार में स्थित अपने गाँव से भागकर मुम्बई अपने चाचा के पास आ गये थे। मुन्ना फिल्म के सबसे रोचक चरित्र हैं। वे चारों चरित्रों में सबसे छोटे हैं, सबसे कम पैसे वाले हैं और उनका चरित्र बाकी चरित्रों से ज्यादा परिवर्तनों से गुजरता है। उनमें एक किस्म की स्पष्टवादिता है पर तब भी मौके मौके पर वे विरोधाभासी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं जैसा कि उनकी उम्र का नौजवान कर सकता है।

शाइ के पूछने पर कि घर पर अच्छा नहीं लगता था क्या?

मुन्ना स्पष्ट कहते हैं कि खाने को कम मिलता था, हर वक्त्त भूख लगी रहती थी।

यही मुन्ना, अपने चचेरे भाई-सलीम के साथ मल्टीप्लैक्स में सलमान खान अभिनीत युवराज देखते समय शाइ से मिलने पर शर्माते हैं और कन्नी काट जाना चाहते हैं।

मुन्ना का व्यवसाय और आर्थिक हालात उनके सपनों से भरे दिलोदिमाग को बोझिल नहीं बना पाते और वे आशा से भरे युवा हैं जो ऊँची उड़ान भरना चाहते हैं और सपनों को पूरा करने के लिये प्रयासरत हैं।

शाइ, अरुण के घर से चले आने के बावजूद उनकी तरफ आकर्षित हैं और यह आकर्षण मिल न पाने के बावजूद घट नहीं पाता। इसके पीछे अरुण का रुक्ष और अनपेक्षित व्यवहार भी कारण हो सकता है।

फिल्म के कथ्य की गति में अगला गियर पड़ता है जब अरुण मकान बदल कर दूसरे मकान में चले जाते हैं। ह्रषिकेश मुखर्जी की पहली फिल्म, मुसाफिर, और राजिंदर सिंह बेदी की दस्तक की तरह यहाँ भी वह मकान एक चरित्र के रुप में कार्य करता है और अकेले रह रहे अरुण को मकान कुछ वस्तुयें देता है जो अपने साथ वहाँ पहले रह चुके किन्ही लोगों की दास्तान अपने आप में सिमेटे हुये हैं। समय की गर्द तले छिप चुका इतिहास शायद उभर कर न आ पाता यदि उन वस्तुओं में अरुण को हैंडीकैम की तीन कैसेटस न मिलतीं।

अब अरुण के सामने भूतकाल दृष्यात्मक रुप में सामने आ जाता है और लोगों से कटने वाले अरुण को कैमरे से उन कैसेटस में अपनी ज़िंदगी और मुम्बई को अपनी तरह से देखकर कैमरे में कैद करने वाली यास्मीन में दिलचस्पी हो जाती है। कैसेटस में कैद वीडियो में उपस्थित यास्मीन, अरुण की वर्तमान ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाती हैं। यास्मीन को देखने और सुनने से उनके भीतर के चित्रकार को प्रेरणा मिलती हैं और ने केवल उनके अंदर फिर से सृजनात्मक ऊर्जा बहने लगती है बल्कि वे अंदर से प्रसन्न भी हो जाते हैं।

यास्मीन का इतिहास अरुण में तब्दीली लेकर आता है। शाइ से बाजार में मिलने पर वे खुद आगे बढ़कर उन्हे घर पर कॉफी पीने के लिये आमंत्रित करते हैं।

फिल्म मनुष्य द्वारा अलग अलग परिस्थितियों में किये जाने वाले व्यवहार को कुशलता से दिखाती है। अरुण जब अपने घर पर शाइ के साथ के साथ कॉफी पी रहे हैं तभी मुन्ना वहाँ आते हैं और आमतौर पर मुन्ना को अंदर बुलाकर तसल्ली से बातें करके कपड़े लेने या देने वाले अरुण दरवाजे से ही संक्षिप्त में यह कहकर कि आज कपड़े नहीं हैं बाद में आना, दरवाजा बंद कर लेते हैं।

मुन्ना शाइ को वहाँ अरुण के नजदीक बैठे देखकर पहले ही हैरान हैं और अरुण की बेरुखी उन्हे आहत कर जाती है। मुम्बई के अपने असाइनमेंट के लिये मुन्ना पर निर्भर शाइ भी मुन्ना को वहाँ देखकर कुछ सकपका जाती है और मुन्ना को यूँ जाते देख देखकर उन्हे मुन्ना के प्रति अपने दायित्व का बोध होता है और वे भागकर मुन्ना के पास नीचे पहुँचती हैं और मुन्ना को मनाने की कोशिश करती हैं। मुन्ना के दिल में शाइ के लिये लगाव उत्पन्न हो चुका है और थोड़ी से मनुहार मुन्ना का गुस्सा पिघला देती है।

धीरे-धीरे अरुण, यास्मीन की ज़िंदगी के बीते दिनों के इतिहास से इतना ज्यादा सम्बंधित हो जाते हैं कि यास्मीन के बीते दिनों की खुशियां उन्हे खुश कर जाती हैं वहीं यास्मीन के दुख उन्हे दुखी और कुंठित कर जाते हैं।

अरुण-शाइ- और मुन्ना की ज़िंदगियाँ आपस में उलझ जाती हैं। अरुण को तो शाइ और मुन्ना की दोस्ती के बारे में पता नहीं है पर मुन्ना को शाइ के मन में अरुण के लिये उपस्थित लगाव की जानकारी है और मुन्ना को अरुण से जलन भी होती है। शाइ के लिये मुन्ना के अहसास और मुन्ना की जानकारी में शाइ का अरुण से लगाव ही फिल्म को परिणति तक लेकर जाते हैं।

प्रेम अपने आप हो जाने वाला भाव है परंतु रिश्ता बनाना और उसे कायम रखना मनुष्य के दिमाग से नियंत्रित होता है और सार्थकता देखकर ही रिश्ते बनाये, रखे और खत्म किये जाते हैं। फिल्म शाइ के चरित्र के क्रियाकलापों द्वारा इस बात को रेखांकित करती है।

भारत में जन्मने वाले व्यक्त्ति के लिये जात-पात और ऊँच-नीच का अलग अर्थ है और पश्चिम में जन्मने वाले व्यक्त्ति के लिये अलग। वहाँ व्यवसाय से जाति निर्धारित नहीं होती। दो व्यक्त्तियों के मध्य का आर्थिक अंतर वहाँ भी जीवन को प्रभावित कर सकता है और करता है परंतु निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय लोगों में यह इस तरह से आड़े नहीं आता जैसे कि यह भारत में आता है।

और भारत में ऐसा नहीं है कि कोई दो ही श्रेणियाँ हैं- अमीर और गरीब, या ऊँची जातियाँ और नीची जातियाँ। तथाकथित ऊँची जातियों में भी आपस में भेदभाव है और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि तथाकथित नीची जातियों में आपस में भेदभाव नहीं है। बल्कि यह रोग समाज में ऊपर से नीचे तक हर तबके में मौजूद है। तथाकथित नीची जीति के लोग अपने से नीची जीति के लोगों के साथ भेदभाव करते हैं और भेदभाव का यह सिलसिला समाज की सबसे निचली ईकाई के साथ भी जीवित रहता है।

जातिगत भेदभाव के संदर्भ में भारत के लिये सटीक रुप से कहा जा सकता है कि हमाम में सब नंगे!

देश, काल और वातावरण तीन ऐसे पैमाने हैं जो मनुष्य को प्रभावित करते ही करते हैं। एक माहौल में पले हुए मनुष्य को दूसरे माहौल में ले जायें तो जरुरी नहीं कि पहले माहौल की अच्छाइयाँ उसे दूसरे माहौल की बुराइयों के सामने झुकने से रोक सकें।

अमेरिका में होते शाइ, मुन्ना और अरुण तो इस त्रिकोण की दिशा कुछ और हो सकती थी। वहाँ शायद शाइ अपनी समझदारी की बदौलत अरुण की जटिल ज़िंदगी के बारे में जानने के बाद उस तरफ कदम न बढ़ातीं और शायद मुन्ना के गुण वहाँ कुछ ज्यादा स्पष्टता के साथ दिखायी देते। या अगर भारत में ही मुन्ना को फिल्मों में अवसर मिल जाये तो क्या शाइ मुन्ना से सिर्फ यही कहेंगी कि हम लोग दोस्त हैं न!

व्यवहार में अर्थ- और वर्ग तंत्र मनुष्य के प्रेम-जीवन को भी नियंत्रित करते हैं।

पचास के दशक की हिन्दी फिल्मों में बम्बई शहर का बड़ा महत्व हुआ करता था और अक्सर इस शहर की खासियतों का जिक्र ये फिल्में किया करती थीं। हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों का सपनों के इस शहर के प्रति प्रेम उनकी फिल्मों में दिखायी देता था। साठ के दशक में भी यह चलन चलता रहा परंतु बाद में बम्बई को दिया जाने वाला यह खास महत्व हिन्दी फिल्मों से गायब हो गया।

धोबी घाट में मुम्बई शहर भी अपना अस्तित्व एक चरित्र की भाँति दिखाता है। लोग कैसे रहते हैं, कैसे व्यवहार करते हैं। दिन में कैसा दिखता है यह शहर और रात में कैसा। चूहे मारने का कार्य भी यहाँ पैसा कमाने का जरिया बन सकता है। ड्रग्स का कारोबार कैसे खुलेआम चलता है।

फिल्म जब तक परदे पर चलती है तब तक दर्शक का ध्यान बाँधे रखती है। कई अच्छे अच्छे दृष्य कुशलता से फिल्माये और प्रस्तुत किये गये हैं। क्लाइमेक्स में मुन्ना का भरे ट्रैफिक में दौड़कर शाइ की कार तक पहुँचने का दृष्य फिल्म के मजबूत तकनीकी पक्ष की मजबूत गवाही देता है।

प्रतीक बब्बर, मोनिका डोगरा और कीर्ति मल्होत्रा तीनों ने बहुत अच्छा अभिनय प्रदर्शन कर दिखाया है। प्रतीक ने लम्बी रेस के लिये अपने को प्रस्तुत कर दिया है। छोटी सी भूमिका में किटू गिडवानी विश्वस्नीय हैं। आमिर खान का अभिनय प्रदर्शन अच्छे और औसत के मध्य झूलता है। जहाँ भी अरुण का चरित्र परेशानियों से घिरता है या उसे दृष्य को सक्रिय ढ़ंग से जीना होता है आमिर खान अच्छा अभिनय कर जाते हैं परंतु जहाँ आमिर को अरुण की सामान्य मानसिकता या दिनचर्या को दर्शाना पड़ा है या जहाँ दृष्य में ऐसा कुछ नहीं करना था कि जबरदस्ती उनका चरित्र ध्यान खींचे वहाँ आमिर अरुण के चरित्र को प्रस्तुत करने में जूझते से नजर आते हैं। सालों तक सुपर स्टार बने रहने और उससे भी बढ़कर कठिन भूमिकायें, जहाँ अभिनेता को करने को बहुत कुछ हो, निभाने के बाद सामान्य व्यक्त्ति के चरित्र को प्रस्तुत करना कठिन हो जाता है।

आमिर की फिल्म में उपस्थिति ने इतना तो किया ही होगा कि शुरुआती दिनों में लोग फिल्म देखने गये और आमिर के बहाने से उन्होने एक अच्छी फिल्म देखी।

एक निर्माता के रुप में लगान, तारे जमीन पर, और पीपली लाइव के बाद धोबी घाट बनाकर आमिर खान ने अपने प्रोडक्शन हाऊस को वर्तमान हिन्दी सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण प्रोडक्शन हाऊसेज में से एक बना दिया है।

किरण राव ने धोबी घाट बनाकर अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत अच्छे तरीके से की थी और देखना है कि अपने दूसरी फिल्म के रूप में वे क्या दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं|

…[राकेश]

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