अपने जलने का हमेशा से तमाशाई हूँ
आग ये किस ने लगाई मुझे मालूम नहीं (~ मोहम्मद आज़म)
एक अग्निशामक, दमकलकर्मी, अग्नियोद्धा या फायरमैन को नायक बनाकर उनके खतरनाक कार्य को बारीकी से दिखाने के लिए फ़िल्म – अग्नि, सराहनीय है| भारतीय सिनेमा में अभी तक आग के प्रकोप से लड़ते नायकों वाली फ़िल्म बी आर चोपड़ा द्वारा निर्मित द बर्निंग ट्रेन ही थी|
फ़िल्म अग्नि में आग के विरुद्ध लड़कर आग से घिरे लोगों को बचाने के दृश्यों की तकनीकी गुणवत्ता द बर्निंग ट्रेन से बहुत आगे की है| फ़िल्म फायरमैन्स के जीवट भरे दुष्कर कार्यों, उनके कर्तव्य निर्वाहन में सामने वाली मुश्किलों और कार्य के अनुरूप सराहना न मिलने की समस्या, जो उन्हें मानसिक रूप से निरंतर तोडती रहती है, और उनके कार्य से निजी जीवन पर पड़ते बुरे प्रभावों को गहराई से दिखा पाने में सक्षम रहती है|
फ़िल्म दो मसलों पर कमजोर पड़ती है| एक तो फ़िल्म में जिसे खलनायक दिखाया गया, उसके पास बुराई का दामन थामने की कोई बहुत तथ्यात्मक और तार्किक वजह नहीं थी, कि वह सैंकड़ों निर्दोषों की जान से खेलने पर उतारू हो जाए| इस कमजोर कोण के कारण फ़िल्म अंत में कमजोर हो जाती है और मात्र फायरमैन्स के जोखिम भरे काम की डायरेक्ट टेलीकास्ट सरीखी कवरेज बन कर रह जाती है, एक रोचक कहानी से हटकर|
दूसरा कमजोर पहलू है फ़िल्म में, फायर मैन और उसके साले, जो कि पुलिस में अधिकारी है, के बीच की प्रतिद्वंदिता| भारत में जीजा साले के झगडे में प्राकृतिक रूप से जीजा का पक्ष मानसिक रूप से मजबूत रहता है लेकिन यहाँ फ़िल्म में ऐसा नहीं रहता और पुलिस अधिकारी को कोई परवाह नहीं दिखाई देती कि उसके बहन का विवाह फायर अधिकारी से हुआ है, वह उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करने में हिचकिचाता नहीं| इससे उलट रिश्ता फ़िल्म के कथानक को ज्यादा ठोस आधार देता|
फायर अधिकारी और पुलिस अधिकारी के कर्तव्यों और उनको मिली पहचान के बीच मुकाबले के कोण को बेहद हलके स्तर पर सतह पर ही खरोंचा गया है अतः उसमें गहराई नहीं आ पाती|
इन दो कमियों के कारण जब फ़िल्म में रहस्य खुलने लगता है तो उसमें जान नहीं बचती, दर्शक को सौ प्रतिशत पता होता है अब क्या होने जा रहा है| कितनी बार आग में अपनी जान जोखिम में डालकर किसी और की जान बचान के दृश्यों में रोचकता दर्शक अपनी ओर से खोज पायेगा?
आग के दृश्यों की कवरेज के कारण तकनीकी श्रेष्ठता ही फ़िल्म की नायक दिखाई देती है| अभिनय के हिसाब से प्रतीक गांधी बेहतरीन हैं| दिव्येंदू शर्मा अपने प्रदर्शन में विविध भावों को उस स्तर पर प्रदर्शित नहीं कर पाए, जैसा वे कर सकते थे| सयमी खेर सह नायिका की भूमिका में हैं, वे अच्छी हैं लेकिन 8 ए एम मेट्रो और घूमर जैसी हालिया प्रदर्शित फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाने के बावजूद उन्हें ऐसी कम महत्त्व की भूमिका निभाने की जरुरत क्यों पडी होगी, यह समझना जटिल है| उनकी भूमिका इतनी रोचक और जबरदस्त भी नहीं है कि महत्त्व के हिसाब से भूमिका की लम्बाई का कोई महत्त्व न बचा हो उनके सामने|
अग्नि एक अच्छा प्रयास है और बेहतरीन फ़िल्म बन सकती थी अगर इसकी कथा में ठोस और तार्किक सामग्री समाहित की जाती| एक्सेल एक बहुत बड़ा निर्माता ब्रांड है, वे बहुत मंहगी फ़िल्में और वेब सीरीज बनाते हैं, तो उस लिहाज से उनके पास हर तरह की क्षमता उपलब्ध है पेरिस सबके बावजूद वे कहानी के स्तर पर कमजोर पहलूओं वाली सामग्री को स्वीकार करके फ़िल्म बना देते हैं, यह विचारणीय बात है|
फ़िल्म देखकर संतोष प्राप्त न होकर तिश्नगी का भाव उमड़ता है|
…[राकेश]
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