किसी को फिल्मों में गीतकार बनना हो तो वह शैलेन्द्र के ऊपर दिए गीत – हम तुझसे मोहब्बत करके सनम, जैसे गीत सुन कर प्रेरणा ले पायेगा, अपना शब्दकोश, भाव-कोश, और पद्य-संरचना की गुणवत्ता बढ़ा पायेगा या ऐसा वह अमिताभ भट्टाचार्य के ऊपर दिए गए गीत – मेरे सैयां जी से आज मैंने ब्रेक अप कर लिया, जैसे गीतों को सुनकर भी ऐसा कर पायेगा? दोनों गीतों की उम्र में कम से कम 65 साल का अंतर है| दोनों ने अपने अपने काल में जिन फ़िल्मों में वे उपयोग में लाये गए उसकी जरूरतों को पूरा किया होगा| फ़िल्मी गीतों के दो रूप और उपयोग होते हैं| एक तो वे फ़िल्म की सीमित आवश्यकताओं की पूर्ती करते हैं, दूसरे वे फ़िल्म की सीमाओं से इतर काव्यात्मक अस्तित्व के रूप में भी श्रोता, पाठक और दर्शक के पास पहुँचते हैं, और बहुत मामलों में तो अन्य गीतकारों के पास भी| इन दोनों तरह की आवश्यकताओं पर खरा उतरने वाले गीत ही महान होते हैं|

अमिताभ बच्चन की बढ़ती आयु के दौरान की लगभग अंतिम दो हिट फ़िल्मों में से एक – “हम” का गीत – जुम्मा, बहुत प्रसिद्ध हुआ| तब जया बच्चन के हवाले से कही बातें मिल जाती हैं कि उन्होंने फ़िल्म के प्रदर्शन से पूर्व ही इस गीत को अमिताभ के फ़िल्मी जीवन के तब तक के सबसे हिट गीत – खाई के पान बनारस वाला (डॉन) जैसी प्रसिद्धि पाने वाला गीत बताया था| इस गीत से कोरियोग्राफर चिन्नी प्रकाश और गायक सुदेश भोसले को बहुत लाभ हुआ| गीतकार – आनंद बक्शी और संगीतकार द्वय : लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, तो पहले से ही बहुत प्रसिद्द थे और नए ज़माने में हिट गीत ने उनके फ़िल्मी जीवन की आयु बढाने में सहयोग दिया होगा|

उसी काल के थोडा बाद में लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल और आनंद बक्शी की तिकड़ी को टक्कर देने बप्पी लाहिड़ी ने गीतकार माया गोविन्द के साथ पार्थो घोष की हिट फ़िल्म दलाल में – गुटुर गुटुर गीत रच दिया|

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आनंद बक्शी की तिकड़ी ने सुभाष घई की बहुचर्चित फ़िल्म – खलनायक, में फिर से हंगामा बरपाया – चोली के पीछे, गीत को रच कर|

सुभाष घई, ऐसा कारनामा एक दशक पहले कल्याणजी आनंदजी और आनंद बक्शी के साथ- विधाता फ़िल्म में “सात सहेलियां ” गीत रचवाकर कर चुके थे| “विधाता” में आश्चर्य का पुट दो बातों से था कि ऐसा गीत दिलीप कुमार अभिनीत फ़िल्म में आया था और इसे किशोर कुमार ने गाया था| दिलीप कुमार के बारे में प्रसिद्द रहा है कि ढाई तीन साल में एक फ़िल्म करने वाले अभिनेता का फ़िल्म निर्माण के हर क्षेत्र में बड़ा सख्त नियंत्रण रहता था और वे ही तय करते थे कि उनकी फ़िल्म में क्या रखा जायेगा और क्या नहीं| “विधाता” में सुभाष घई ने उन्हें चकमा दे दिया|

फ़िल्मी गीतों के गिरते स्तर पर हर काल में चर्चा हुयी होगी| विधाता के समय भी गीत विवादित हुआ और हम, दलाल, और खलनायक के समय भी|

ऐसे भी दौर आये कि आज सुपर स्टार बन चुके एक अभिनेता की शुरुआती फिल्मों में से एक में गीतकार और संगीतकार ने सीधे सीधे अश्लील गाली भरे शब्दों का इस्तेमाल कर दिया था और तेज बजते संगीत की ध्वनि में वह बरकरार रहा| गालियों के विशेषज्ञों ने इस चतुराई को तभी पहचान लिया था चूंकि सोशल मीडिया नहीं था तो यह बात कानाफूसी के स्तर पर ही दब कर रह गयी| आज ऐसा हो जाता तो हंगामा हो जाता|

खलनायक के गीत की लोकप्रियता, लेकिन गीत के विवादित बोलों के कारण किसी फ़िल्मी पत्रकार ने गुलज़ार साब से भी इस बाबत पूछा था (प्रिंट में छपा) कि उनका इस गीत के बारे में क्या कहना है| गुलज़ार साब ने गीत की ध्यान आकर्षित करने वाली धुन की बात की थी| फिल्मों में सामान्यतः लोग एक दूसरे के काम की आलोचना नहीं करते| गीत के बोलों को लेकर उन्होंने डिप्लोमेटिक बात कही थी|

गीत का स्तर कभी कभी एक सापेक्षित बात भी हो सकती है| अलका याग्निक को जावेद अख्तर के लिखे गीत – तुम्हीं देखो न (कभी अलविदा न कहना) लिए पुरस्कार मिला था तो उन्होंने मंच से ही इस पुरस्कार के लिए धन्यवाद देते हुए शुक्र मनाया था कि “बीड़ी और हुक्के ” के दौर में उन्हें इस गीत विशेष के लिए पुरस्कार मिलना बहुत अच्छा लग रहा है|

उन्हें “बीड़ी जलाई ले” एक स्तर हीन गीत लगा होगा, जबकि रोचक बात यह है कि कॉफ़ी विद करण में उसके कुछ अरसा बाद ही शबाना आजमी और जावेद अख्तर आये तो उन्होंने रश्क जताया कि बीड़ी जलाइले जैसा गीत क्यों न लिखा| शायद वे दोनों कुछ अरसा पहले अलका याग्निक द्वारा की गयी भयानक गलती को सुधार रहे थे|

यह तो सर्वकालिक सार्थक तथ्य है कि फ़िल्मी गीतों का एक स्तर होना चाहिए| भले फ़िल्मी गीत अपने आप में स्वतन्त्र नहीं होते लेकिन यह भी सच हैकि बिना किसी अपवाद के सभी गीतकारों ने सदा ही चरित्र की पृष्ठभूमि से समानता रखते हुए गीत ही नहीं लिखे हैं और एक स्वतंत्रता लेकर गीत खूबूसरत और प्रभावी लगे ऐसे प्रयास किये हैं|

गुलज़ार साब ने सत्या के गीत – गोली मार भेजे में, के सन्दर्भ में कुछ ऐसा कहा था कि हथियारों से खेलते गुंडई करते चरित्र किस प्रकार का गीत गायेंगे? लेकिन यहाँ यह भी सच है कि बहुत बार जिन फिल्मों के लिए वे गीत लिखते हैं उनके चरित्र परदे पर वैसी बुद्धिमानी नहीं दिखाते जितनी बौद्धिकता से भरे गीत वे उन्हें परदे पर प्रस्तुत करने के लिए दे देते हैं| क्योंकि हरेक बार उनका प्रयास तो एक अच्छा गीत रचना ही होता है जिसमें भाषा और अर्थ की महिमा बनी रहे|

गुलज़ार साब ने तो आज तक चोली के पीछे, सात सहेलियां या जुमा चुम्मा दे दे जैसे गीत नहीं लिखे|

कभी मजरुह सुल्तानपुरी द्वारा देव आनंद की पेइंग गेस्ट फ़िल्म के रचे गीत – आँचल में क्या जी, पर भी कुछ लोगों ने उंगली उठाई थी कि उसमें भी दोअर्थी संभावनाएं छिपी थीं| लेकिन उस गीत को सुनकर या देखकर ऐसा कुछ कभी किसी श्रोता और दर्शक को नहीं लगा होगा लेकिन जिस तरह से चोली के पीछे को गया गया है और जिस तरह से सुभाष घई ने उसे फिल्माया उससे स्पष्ट है कि उनका मंतव्य क्या रहा होगा?

गीतकार शैलेन्द्र के जीवन से जुड़े प्रसंगों से संबंधित एक पुस्तक, जिसे उनकी बेटी अमला मजूमदार शैलेन्द्र ने लिखा है, के दिल्ली में हुए विमोचनके दौरान, समारोह के आयोजक – इबादत फाउंडेशन, के चेयरमेन- पृथ्वी हल्दिया, ने मंच से सञ्चालन करते हुए शैलेन्द्र गीतों की प्रशंसा करते हुए आजकल के जो कुछ गीत उनके गीत उनके सामने आये होंगे उनके हल्केपन को एक गीत – ‘मेरे सैयां जी से आज मैंने ब्रेक अप कर लिया’ का उदाहरण दे दिया कि किस तरह के गीत आजकल लिखे जा रहे हैं|

उन्हें तो अंदाज़ा नहीं होगा कि यह करण जौहर की फ़िल्म – ‘ऐ दिल है मुश्किल’ (शीर्षक स्वंय ही बीते दौर के बेहद प्रसिद्ध गीत – ए दिल है मुश्किल जीना यहाँ ज़रा हट के ज़रा बच ये है बॉम्बे मेरी जां, जिसे मजरुह सुल्तानपुरी ने देव आनंद की फ़िल्म – सीआईडी, के लिए लिखा था) का गीत है और इसे अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखा है| उनकी टिप्पणी हलके फुल्के मूड में की गयी थी और उसमें तीखी आलोचना का पुट नहीं था|

कुछ समय बाद मंच पर गीतकार, अभिनेता, और लेखक स्वानंद किरकिरे के बोलने का अवसर आया तो उन्होंने शैलेन्द्र के गीतों पर अपनी बात कहते हुए यह भी जोड़ा कि आजकल भी खूबसूरत गीत लिखे जा रहे हैं, और कि- मेरे सैयां जी से मैंने आज ब्रेक अप कर लिया, भी एक अच्छा गीत है|

कुछ समय बाद पृथ्वी हल्दिया पुनः मंच पर आये तो उन्होंने स्वानंद किरकिरे से कहा कि उन्होंने नए गीतकारों के काम को ज्यादा नहीं देखा सुना है, वे कोशिश करेंगे इस कमी को पूरा करने के लिए और वे स्वानंद किरकिरे के गीतों को अवश्य ही पढेंगे और सुनेंगे|

स्वानंद किरकिरे ने कहा कि चूंकि उन्होंने (पृथ्वी हल्दिया) ने मंच से नए गीतों के बाबत अपनी बात कही थी, तो उन्हें भी मंच से ही उसका जवाब देना लाजिम था|

दोनों में से कौन सही था या ज्यादा सही था, इसे लेकर अलग व्यक्तियों के अलग विचार हो सकते हैं| लेकिन दोनों की बात सभी दर्शकों के मन में गीतों के स्तर को लेकर कुछ प्रश्न तो उठा ही गयी होगी| शैलेन्द्र के बेहद उच्च स्तरीय गीतों के जिक्र जहाँ चल रहे हों वहां अमिताभ भट्टाचार्य का गीत, जो भले ही फ़िल्म की आवश्यकतों की पूर्ती पूर्णतः कर रहा हो, श्रेष्ठ काव्य का नमूना तो नहीं ही समझा जा सकता| अमिताभ भट्टाचार्य को स्वंय भी हिचक महसूस होगी शैलेन्द्र के गीतों की शाम में अपने इस गीत के उल्लेख से| वे अपना लिखा कोई बेहतर गीत ही याद करना चाहेंगे ऐसे मौकों पर|

यहाँ गौरतलब है कि नए ज़माने के सामान्य दर्शक, पुरानी फिल्मों, और उनके गीतों को देखने सुनने लायक नहीं समझते और अक्सर ही उन पर टिप्पणियाँ करते मिल जाते हैं कि कितनी बोर फ़िल्में हैं, पुराने गीत तो बहुत ही कम सुनते होंगे लेकिन जब नए जमाने के संगीतकार उन्हीं गीतों के रिमिक्स बना देते हैं तो उन्हें वे हाथों हाथ लेते हैं, भले ही वे गीतों के बोलों पर ध्यान न देकर नए प्रारूप की बीट्स के आनंद में खो जाया करते हों|

हरेक काल में अच्छे और बुरे गीत बनते ही रहे हैं| महत्त्व उनकी संख्या का रहा है| खेलों में समय के साथ अवश्य नहीं कि उनके स्तर में ह्रास ही हो लेकिन कला के क्षेत्र में ऐसा होना संभव है|

जिन्हें आजकल के सारे गीत शानदार लगते होंगे उनके लिए भी कोई न कोई स्तर अवश्य ही होगा जहां से नीचे के गीत उन्हें कमतर लगते ही होंगे|

शैलेन्द्र और उन जैसे ऊँची श्रेणी के गीतकारों के भी सभी गीत एक ही स्तर के नहीं हो सकते लेकिन इन गीतकारों ने फिल्मों में ऐसे कोई गीत नहीं लिखे जिन्हें सामान्य श्रोता निम्न श्रेणी का बताकर खारिज कर दे| जबकि आजकल के गीतकारों में, सबसे अच्छे और श्रेष्ठ गीतकारों के बारे में ऐसा नहीं सिद्ध किया जा सकता| हो सकता है कि अब सामान्यतः फ़िल्म निर्देशकों को गीत-संगीत की उतनी जानकारी नहीं होती जैसी पहले के फिल्मकारों को होती थी और न उनका आग्रह ही ऐसा रहता है कि उनकी फ़िल्म का संगीत बहुत उच्च श्रेणी का होना चाहिए| ऐसे में सारे गीतकार ही अपने  आप में कठोर परिश्रम करके श्रेष्ठ स्तर के गीत रचने का प्रयास करें यह आवश्यक नहीं है|

अब गिनती के गीतकार ही अच्छे गीत लिख रहे हैं, जबकि कभी यहाँ एक से एक दिग्गज गीतकार एक साथ सक्रिय थे तो उन पर यह दबाव तो रहता ही था कि उनके गीत अन्यों से कमजोर न  दिखाई दें|

…[राकेश]


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