मैं महात्मा गांधी के विचारों से बिलकुल सहमत नहीं हूं और मैंने सदा उनकी आलोचना की है। जब उन्हें गोली मारी गई तो मैं सत्रह साल का था, और मेरे पिता ने मुझे रोते हुए देख लिया।
उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा: तुम और महात्मा गांधी के लिए रो रहे हो? तुमने तो सदा उनकी आलोचना की है। मेरा सारा परिवार गांधी-भक्त था। वे सब गांधी का अनुसरण करते हुए जेल जा चुके थे। केवल मैं ही अपवाद था। स्वभावत: उन्होंने पूछा: तुम रो क्यों रहे हो? मैंने कहां: मैं सिर्फ रो ही नहीं रहा हूं,मुझे अभी गाड़ी पकड़नी है क्योंकि मुझे उनकी शवयात्रा में शामिल होना है। मेरा समय खराब मत करो, यही अंतिम ट्रेन है जो समय पर वहां पहुंचाएगी। वो तो भौचक्के रह गए। उन्होंने कहा: मैं भरोसा नहीं कर सकता। तुम तो पागल हो गए हो।
मैंने कहा: हम उसकी बाद में बात कर लेंगे। चिंता मत करो। मैं वापस आ रहा हूं। मैं उसी समय दिल्ली के लिए रवाना हो गया और जब दिल्ली स्टेशन पर मेरी गाड़ी रुकी तो प्लेटफार्म पर मस्तो मेरा इंतजार कर रहा था। उसने कहा; मुझे मालूम था कि तुम आओगे। गांधी की आलोचना करने के बावजूद तुम्हारे भीतर उनके लिए आदर भी है। इसलिए मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे मालूम था कि केवल यही गाड़ी तुम्हारे गांव से होकर यहां आती है। और तुम इसी गाड़ी से आ सकते हो। इसीलिए मैं तुम्हें लेने के लिए आ गया।
मैंने मस्तो से कहा: अगर तुमने गांधी के प्रति मेरे भावों की कभी बात की होती तो मैंने तर्क-वितर्क न किया होता लेकिन तुम सदा कुछ स्वीकार करवाना चाहते थे और तब भावना का फिर कोई सवाल नहीं उठता, फिर तो शुद्ध तर्क-वितर्क की बात है। या तो तुम जीतते हो या दूसरा। अगर एक बार भी तुमने भावना की बात की होती तो मैंने कुछ न कहा होता। क्योंकि तब फिर कोई तर्क-वितर्क न होता। खासकर यह बात रिकार्ड में आ जाए इसीलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जब कि महात्मा गांधी के जीवन संबंधी विचार मुझे नापसंद है। फिर भी उनकी बहुत से विशेषताओं की मैं सराहना भी करता हूं। उनकी बहुत सी बातें है जिनकी मैं तारीफ करता हूं, किंतु जो कहने से रह गई हैं। अब उन्हें रिकार्ड में ले लेते है।
मुझे उनकी सच्चाई बहुत पसंद है। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला। वे चारों और झूठ से घिरे हुए थे फिर भी वे सच पर अडिग रहे। मैं शायद उनके सच से सहमत न होऊं पर मैं यह नहीं कह सकता कि वे सच्चे नहीं थे। उन्होंने जिसको सच माना, फिर उसे नहीं छोड़ा। यह बिलकुल भिन्न बात है कि मैं उनके सच को किसी मूल्य का नहीं मानता पर वह मेरी समस्या है उनकी नहीं। उन्होंनेकभी झूठ नहीं बोला। मैं उनकी इस सच्चाई का अवश्य आदर करता हूं। जब कि उनको उस सत्य के बारे में कुछ नहीं मालूम था जिसकी चर्चा मैं करता हूं। जिसमें छलांग के लिए सदा कहता हूं।वे मुझसे कभी सहमत नहीं हो सकते थे। सोचने से पहले छलांग लगा दो, नहीं वे तो व्यापारी बुद्धि के आदमी थे। दरवाजे से बाहर कदम उठाने से पहले वे तो सैंकड़ों बार सोचते थे,छलांग की बातकहां।
उनको ध्यान के बारे में कुछ नहीं मालूम था और वे उसे समझ सकते थे। इससे उनका दोष नहीं था। उनको अपने जीवन में कोई गुरु नहीं मिला जो उनको निर्विचार मन या शुन्य मन के बारे में बताता। और उस समय भी ऐसे लोग उपस्थित थे। मेहर बाबा ने एक बार उन्हें पत्र लिखा था। स्वयं तो नहीं लिखा था, पर उनकी और से किसी ने गांधी को पत्र लिखा था। मेहर बाबा तो सदा मौन रहते थे, कभी कुछ लिखा नहीं, किन्तु इशारों से अपनी बात समझाते थे। कुछ लोग ही समझ पाते थे कि मेहर बाबा क्या कहते है। मेहर बाबा ने अपने पत्र में गांधी से कहा था कि हरे राम, हरे कृष्ण बोलने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर तुम सचमुच कुछ जानना चाहते हो तो मुझसे पूछो और मैं तुम्हें बताऊंगा। परंतु गांधी और उनके अनुयायी मेहर बाबा के इस पत्र पर बहुत हंसे क्योंकि उन्होंने इसे मेहर बाबा का अंहकार समझा। यह अहंकार नहीं उनकी करूणा थी। किंतु लोग प्राय: इस करूणा को अंहकार ही समझते है। बहुत अधिक करूणा, शायद बहुत अधिक करूणा है इसलिए अहंकार लगता है। गांधी ने मेहर बाबा को तार से धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मैं तो अपने ही रास्ते पर चलूंगा। जैसे कि उन्हें रस्ता मालूम था। उन्हें तो कोई रास्ता मालूम ही नहीं था। फिर चलने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
परंतु गांधी की कुछ बातें मुझे बहुत प्रिय थी उनका मैं आदर करता हूं। जैसे उनकी स्वच्छता और सफाई। अब तुम कहोगे कि इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए आदर, नहीं ये छोटी बातें नहीं है। खासकर भारत में जहां संत, तथाकथित संत सब प्रकार की गंदगी में रहते थे। गांधी ने स्वच्छ, साफ रहने की कोशिश की। वे अत्यधिक साफ अज्ञानी व्यक्ति थे। मुझे उनकी साफ-सफाई, स्वच्छता बहुत पसंद है। सभी धर्मों के प्रति उनका आदरभाव भी मुझे पंसद है। हालांकि हमारे कारण अलग-अलग है। पर कम से कम उन्हेांने सब धर्मों का आदर किया। निश्चित रूप से, गलत कारण की वजह से। उन्हें पता ही न था कि सच क्या है, तो वे कैसे तय करते कि क्या सही है या कोई भी धर्म सही है। सब सही है या कोई भी कभी सही हो सकता है। कोई रास्ता न था। आखिर वे एक व्यापारी थे इसलिए क्यों किसी को दुःखी-परेशान करना, क्यों उपद्रव करना? कम से कम इतनी बुद्धि तो उनमें थी कि वे समझ सके कि गीता, कुरान, बाईबिल और तालमुद सब एक ही बात कहते है। याद रखना ‘’कम से कम’’ इतनी बुद्धि तो थी कि समानता खोज सके। यह कोई कठिन बात नहीं है। किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं, कम से कम, इतनी बुद्धि तो थी पर सच मैं बुद्धिमान नहीं थे। सच में बुद्धिमान तो सदा विद्रोही होते है। और वे कभी विद्रोह न कर सके किसी ट्रैडीशनल का—हिंदू, क्रिश्चियन, या बौद्धों का। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक बार गांधी भी ईसाई बनने का विचार कर रहे थे। क्योंकि यही एक ऐसा धर्म है जो गरीबों की बहुत सेवा करता है। परंतु जल्दी ही उनकी समझ में यह आ गया कि इनकी सेवा सिर्फ दिखावा है, असली धंधा तो पीछे छिपा है। इनका उद्देश्य है लोगो को ईसाई बनाना— सेवा के बहाने ये धर्मपरिवर्तन करते है। क्यों? क्योंकि इससे शक्ति आती है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे पास हों उतनी ज्यादा शक्ति होती है। अगर तुम सारे जगत को ईसाई,यहूदी या हिंदू बना दो तो तुम्हारे पास सबसे ज्यादा शक्ति होगी, जितनी कभी किसी के पास न थी। इसकी तुलना में सिकंदर भी फिका पड जाएगा। यह सब शक्ति का झगड़ा है।
जैसे ही गांधी ने यह देखा—और मैं फिर कहता हूं, वे इतना देखने के लिए काफी बुद्धिमान थे—उन्होंने ईसाई बनने का विचार छोड़ दिया। सच तो यह है कि भारत में हिंदू होना ज्यादा फायदेमंद था ईसाई होने के बजाए। भारत में ईसाई केवल एक प्रतिशत है इसलिए वे कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकते थे। हिंदू बने रहना ही अधिक लाभदायक था, मेरा मतलब है उनके महात्मापन के लिए। किंतु वे काफी होशियार थे कि सी.एफ.एंड्रूज़ जैसे ईसाइयों को बौद्धों और जैनों को और फ्रंटियर गांधी जैसे मुसलमान को भी प्रभावित कर सके। सीमांत गांधी पखतून जाति के थे जो भारत के सीमांत प्रदेश में रहती है। पखतून बहुत ही सुदंर ओर खतरनाक भी होते है। ये लोग मुसलमान है, और जब उनका नेता गांधी का अनुयायी बन गया। स्वभावत: वे भी अनुयायी बन गए। भारत के मुसलमानों ने कभी सीमांत गांधी को माफ नहीं किया। क्योंकि उन्होंने सोचा कि उसने अपने धर्म के साथ गद्दारी की है, धोखा दिया है।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उसने क्या किया। मैं कह रहा हूं कि गांधी ने स्वयं पहले जैन बनने के बारे में बारे में भी सोचा था। उनका पहला गुरु जैन ही था। जिसका नाम था श्रीमद्राजचंद्र। और हिंदू अभी भी इस बात का बुरा मानते है कि उन्होंने एक जैन के पैर छुए। उनका दूसरा गुरु था, रस्किन। इससे हिंदुओं को और भी ज्यादा तकलीफ हुई। रस्किन की एक पुस्तक था: अन टू दिस लास्ट। इसने गांधी के जीवन को ही परिवर्तित कर दिया था पुस्तकें चमत्कार कर सकती है। तुमने शायद इस पुस्तक के बारे में सुना भी न हो—अन टू दिस लास्ट। यह एक छोटी सह पुस्तिका है। जब गांधी एक यात्रा पर जा रहे थे, तो उनके एक मित्र ने उनको यह पुस्तिका दी, क्योंकि उसे यह बहुत पसंद आई थी गांधी ने उसे रख लिया था। सोचा भी न था कि पढेंगे। पर रास्ते में जब समय मिला तो उन्होंने सोचा के क्यों न इसे देख लिया जाए। और इस पुस्तिका ने उनके जीवन को ही बदल दिया। उनकी फिलासफी इसी पुस्तिका पर आधारित है। मैं उनकी इस फिलासफी के विरूद्ध हूं, किंतु यह पुस्तक महान है। उसका दर्शन किसी योग्य नहीं है—परंतु गांधी तो कचरा इकट्ठा करते थे। वे तो सुंदर जगहों पर भी कचरा खोज लेते थे। ऐसे लोग होते है, तुम जानते हो, जिन्हें तुम सुंदर बग़ीचे में ले जाओ, वे ऐसी जगह खोज लेंगे और तुम्हें दिखाइंगे कि यह नहीं होना चाहिए। उनकी सारी एप्रोच ही नकारात्मक होती है। ये कचरा इक्ट्ठा करने वाले लोग होते है। वे अपने आप को कला को इक्ट्ठा करने वाला कहते है। अगर मैंने इस पुस्तक को पढ़ा होता, जैसा गांधी ने पढ़ा, तो मैं उस निष्कर्ष पर न पहुंचता जिस पर गांधी पहुंचे है। सवाल पुस्तक का नहीं है। सवाल पढ़ने वाले का है। वही चुनता है ओर इकट्ठा करता हे। हम एक ही जगह पर जाएं तो भी अलग-अलग चीजें इकट्ठी करेंगे। मेरे हिसाब से उनका कलक्शन मूल्य-रहित है। मैं नहीं जानता और कोई नहीं जानता कि उन्होंने मेरे कलक्शन के बारे में क्या सोचा होता। जहां तक मैं जानता हूं वह बहुत ही सिंसियर आदमी थे। इसीलिए मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने ऐसा ही कहा होता जैसा मैं कह रहा है। उनका सारा कलेक्शन जंक है, कचरा है। शायद उन्होंने कहा होता,शायद न कहा होता—यही उनमें मुझे पसंद है। वे उसकी भी तारीफ कर सकते थे जो उनके लिए एलियन, अपरिचित था—और अपनी पूरी कोशिश करते खुले रहने की, उसे एब्जार्ब करने की। वे मोरारजी देसाई की तरह न थे जो कि पूरी तरह बंद, कलोज्ड है। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि वह श्वास कैसे लेते होंगे क्योंकि उसके लिए कम से कम नाक तो खुला चाहिए। किंतु महात्मा गांधी मोरारजी देसाई जैसे आदमी नहीं थे। मैं उनसे असहमत हूं किंतु फिर भी…| वे स्पष्ट और संक्षिप्त लिखते थे। कोई भी उतना सरल नहीं लिख सकता था। और न ही कोई उतनी कोशिश करता था सरल लिखने की। अपने वाक्य को सरल और संक्षिप्त बनाने में वे घंटों लगाते थे। जितना संभव हो उसे उतना छोटा और सरल बनाते। वे जो भी सच मानते थे उसके अनुसार ही जीते थे। यह अलग बात है कि वह सत्य न था, पर इसके लिए वे क्या सामना करते थे। मैं उनकी इस सच्चाई और ईमानदारी का आदर करता हूं। इस ईमानदारी के कारण ही उन्हें अपने जीवन से हाथ धोने पड़े। गांधी की हत्या के साथ भारत का समस्त अतीत खो गया क्योंकि इसके पहले भारत में कभी किसी को गोली नहीं मारी गई थी। कभी किसी को सूली नहीं लगाई गई थी। यह कभी इस देश का तरीका न था। ऐसा नहीं कि यह बडे उदार लोग है। बल्कि इतने अहंकारी, दंभी है कि वह किसी को इस योग्य ही नहीं समझते कि उसे सूली दी जाए। उससे अपने को बहुत ऊपर मानते है।
महात्मा गांधी के साथ भारत का एक अध्याय समाप्त होता है और नया अध्याय आरंभ होता है। मैं इसलिए नहीं रोया कि वे मर गए। एक दिन तो सभी को मरना ही है। इसमें रोने की कोई बात नहीं है। अस्पताल में बिस्तर पर मरने के बजाए गांधी की मौत मरना कहीं अच्छा है खासकर, भारत में। एक तरह से वह साफ और सुंदर मृत्यु थी। और मैं हत्यारे नाथूराम गोडसे का पक्ष नहीं ले रहा हूं। और उसके लिए मैं नहीं कह सकता कि उसे माफ कर देना क्योंकि उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। उसे अच्छी तरह से पता था कि वह क्या कर रहा है। उसे माफ नहीं किया जा सकता । न ही मैं उस पर कुछ जोर-जबरदस्ती कर रहा हूं बल्कि सिर्फ तथ्यगत हूं। बाद में जब मैं वापस आया तो यह सब मुझे अपने पिताजी को समझाना पड़ा और इसमें कई दिन लग गए। क्योंकि मेरा और गांधी का संबंध बहुत ही जटिल है। सामान्यत: या तो तुम किसी की तारीफ करते हो या नहीं करते हो। लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। और सिर्फ महात्मा गांधी के साथ के साथ ही नहीं। मैं अजीब ही हूं। हर क्षण मुझे यह महसूस होता है। मुझे कोई खास बात किसी कि अच्छी लग सकती है लेकिन उसी समय साथ ही साथ ऐसा कुछ भी हो सकता है जो मुझे बिलकुल पसंद न हो, और तब फिर तय करना होगा। क्योंकि मैं उस व्यक्ति को दो में नहीं बांट सकता। मैंने महात्मा गांधी के विरोध में होना तय किया। ऐसा नहीं कि उनमें ऐसा कुछ न था जो पंसद न था—बहुत कुछ था। परंतु बहुत बातें ऐसी थीं जिनके दूरगामी परिणाम पूरे जगत के लिए अच्छे नहीं थे। इन बातों के कारण मुझे उनका विरोध करना पडा। अगर वे विज्ञान, टेकनालॉजी, प्रगति और संपन्नता के विरूद्ध न होते तो शायद मैं उनको बहुत पंसद करता। वे तो उस सब चीजों के विरोध में थे। मैं पक्ष में हूं—और अधिक टेकनालॉजी, और अधिक विज्ञान, और अधिक संपन्नता के। मैं गरीबी के पक्ष में नहीं हूं, वे थे। मैं पुरानेपन के पक्ष में नहीं हूं वे थे। पर फिर भी, जब भी मुझे थोड़ी सी भी सुंदरता दिखाई देती है। मैं उसकी तारीफ करता हूं। और उनमें कुछ बातें थीं जो समझने योग्य है। उनमें लाखों लोगों की एक साथ नब्ज परखने की अद्भुत क्षमता थी। कोई डाक्टर ऐसा नहीं कर सकता एक आदमी की नब्ज परखना भी अति कठिन है। खासकर मेरे जैसे आदमी की। तुम मेरी नब्ज परखने की कोशिश कर सकते हो। तुम अपनी भी नब्ज खो बैठोगे, या अगर पल्स नहीं तो पर्स खो बैठोगे जो कि बेहतर ही है। गांधी में जनता की पल्स, नब्ज पहचानने की क्षमता थी। निश्चित ही मैं उन लोगों में उत्सुकता नहीं रखता हूं। पर वह अलग बात है। मैं हजारों बातों में उत्सुक नहीं हूं,पर इसका यह अर्थ नहीं कि जो लोग सच्चे दिल से काम में लगे हैं, समझदारी पूर्वक किन्हीं गहराइयों को छू रहे है, उनकी तारीफ न की जाए। गांधी में वह क्षमता थी। और मैं उसकी तारीफ करता हूं। मैं अब उनसे मिलना पसंद करता। क्योंकि जब मैं सिर्फ दस वर्ष का बच्चा था। वे मुझसे सिर्फ वे जे तीन रूपये ले सके। अब मैं उन्हें पूरा स्वर्ग दे सकता था—पर शायद इस जीवन में ऐसा नहीं होना था।
~ Osho (Glimpses Of Golden Childhood)
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