Mr Singh2विवाहेत्तर संबंधों के कैनवास पर उभरते, बनते, बिगड़ते और फिर से कोई नया आकार लेते चित्रों की गाथा कह सकते हैं निर्देशक प्रवेश भारद्वाज की पहली फिल्म को। कभी सधे हुये ढ़ंग से भरे हुये रंग दिखायी देते हैं इस पेन्टिंग में और कभी यह बदरंग लगती है।

एक पुरुष (मि. सिंह) और एक महिला (मिसेज मेहता) अपने अपने जीवनसाथी को धोखे में रख कर आपस में प्रेम प्रंसंग रचाने में व्यस्त रहते हैं। ऐसे विवाहेत्तर संबंध तो कितनी ही कहानियों और फिल्मों में पढ़े और देखे जा चुके हैं पर यहाँ इस फिल्म में मिसेज सिंह और मि. मेहता अपने अपने साथी की बेवफाई के कारण एक दूसरे से मिलते हैं और ये मुलाकातें शीघ्र ही अतरंगता में बदल जाती हैं।

विषय रोचक लगता है पर फिल्म विषय की भूमि को न तो गहरायी से खोदती है और न ही इस भूमि पर पनपने वाली सम्बंधों की फसल की बेहतरी के लिये सतह पर कुछ गुड़ाई आदि ही करती है। प्रवेश भारद्वाज कुछ अरसे तक गुलज़ार से जुड़े रहे हैं अतः उनसे ऐसी अपेक्षा रखनी निरर्थक नहीं कि वे भी स्त्री-पुरुष संबंध पर ऐसी गहराई वाली फिल्म बना पाते जैसी कि गुलज़ार बनाते रहे हैं|

विवाहेत्तर सम्बंधों पर आधारित होने के बावजूद फिल्म से नाटकीयता के तत्व काफी हद तक गायब हैं। मि. मेहता और मिसेज सिंह दोनों बखूबी जानते हैं कि उनके साथी आपस में प्रेम संबंधों में बंधे हुये हैं और मिसेज सिंह मि. मेहता के सामने तो थोड़ा रोने और परेशान होने का प्रदर्शन करती हैं परन्तु वे दोनों ही अपने अपने साथी के सामने उनके प्रेम प्रसंगों को लेकर कोई सवाल खड़ा नहीं करते। मि. मेहता तो अपनी पत्नी से इस संबंध में कोई बात न करने की वजह बताते भी हैं परन्तु मिसेज सिंह के सामने क्या मजबूरी है अपने पति से इस सम्बंध में बात न करने की, फिल्म इस बात को नहीं दिखाती।

कथानक एकदम स्पष्ट दिखाये देते ढ़र्रे पर नहीं चलता। मि. मेहता के अनुसार वे अपनी पत्नी से बेहद प्रेम करते हैं और चूँकि मिसेज सिंह अपने पति से उसके विवाहेत्तर संबंध को लेकर काफी समय तक कोई बात नहीं करती तो वह भी उसकी इस गलती के बावजूद उसी के साथ रहना चाहती होगी।

अगर मि. मेहता और मिसेज सिंह सामान्य तरीके से मिले होते, मतलब उन अवस्थाओं में जबकि उनके साथी आपस में विवाहेत्तर सम्बंधों में लिप्त न होते, तो क्या तब भी उनका सम्बंध इतनी अतरंगता पा सकता था? मिसेज सिंह न केवल मि. मेहता के लिये न्यूड मॉडल बनती हैं वरन उनके बीच देह सम्बंध भी स्थापित हो जाते हैं। और इन सब बातों के बावजूद भी वे एक दूसरे से अपने अपने साथी की बातें और उनके साथ बिताये समय की बातों को साझा करते हैं। तो क्या मि. मेहता और मिसेज सिंह के बीच पनपा रिश्ता जो सारे बंधन तोड़ देता है इसलिये अस्तित्व में आता है कि कहीं न कहीं वे अपने अपने साथी से बदला लेना चाहते हैं? और अगर उनके बीच रिश्ता इसलिये बन जाता है कि वे लगातार एकांत में मिलते रहते हैं और एक दूसरे के साथ काफी वक्त्त बिताते हैं और एक दूसरे को ढ़ंग से समझने लगते हैं तो उनके पास भी अपने अपने साथी को कटघरे में खड़ा करने के लिये नैतिकता के आधार नहीं है। बस इतना फर्क है कि जहाँ उनके साथी ऐसे सम्बंधों को पहले जीते हैं वे उनका अनुसरण करते हैं। मजेदार बात यह है कि उनके साथी तो शायद उनसे उब चुके हैं और तब वे विवाहेत्तर सम्बन्धों की और बढ़ते हैं पर ये दोनों तो अपने अपने साथी से प्रेम करते हैं और तब भी आपस में ऐसा सम्बंध स्थापित कर लेते हैं। ऐसे में उनके सम्बंध को परिस्थितिजन्य ही माना जा सकता है।

फिल्म का कथानक एक बात को स्थापित करता है कि आधुनिक समय में जो कमा रहा है वह अपनी बात ऊपर रखने की कोशिश करता है। करण जौहर की विवाहेत्तर सम्बंधों पर बनी फिल्म, “कभी अलविदा न कहना” में भी प्रीती जिंटा (उनके द्वारा निभाया गया चरित्र) अपने विकलांग और बेरोजगार पति से कहती हैं कि घर की मर्द वे हैं क्योंकि वे कमाती हैं और घर का खर्च चलाती हैं।

यहाँ इस फिल्म में भी ऐसा कोई संवाद तो नहीं है परन्तु मिसेज मेहता अपने पति के प्रति अपने व्यवहार से ऐसा दर्शा जरुर देती हैं कि मि. मेहता उनके कमाये पैसों के बल पर अपनी जीविका चला रहे हैं अतः उन्हे उनकी हर बात सुननी और माननी पड़ेगी। मि. मेहता के समय की कोई कीमत मिसेज मेहता की नजर में नहीं है। सप्ताहंत का अवकाश मनाने का कार्यक्रम तय करते हुये वे इस बात को बेहद स्पष्ट तरीके से स्थापित कर देती हैं। मिसेज मेहता को अपनी बात ऊपर रखनी है।

कहानी और चरित्रचित्रण में कमजोरियों के अलावा फिल्म मात खाती है अभिनय के मामले में। फिल्म में अच्छी शुरुआत न होने की कमजोरी से बहुत सारी फिल्में प्रताड़ित रहती हैं और यह फिल्म भी इस कमजोरी से ऊपर नहीं उठ पायी है। मि. सिंह और मिसेज सिंह के घर पर उनके बीच घट रहे दृष्यों में कमी नहीं लगती, कागज पर वे अच्छे लगे होंगे परन्तु दोनों अभिनेता शुरु से ही अपने कमजोर अभिनय से दर्शक के ऊपर फिल्म की पकड़ कमजोर कर देते हैं।

मिसेज सिंह का चरित्र निभाने वाली अभिनेत्री अरुणा शील्डस को विवेक ओबेरॉय द्वारा अभिनीत फिल्म प्रिंस में भी देखा गया था। उस फिल्म की तरह इस फिल्म में भी उनका अभिनय अप्रभावी रहता है। उनके चेहरे पर दृष्यों की मांग के अनुरुप भाव दिखायी नहीं देते और ज्यादातर वे सपाट चेहरे से दृष्यों को निबटा देती हैं। पति पत्नी और प्रेमी प्रेमिका के सम्बंधों पर आधारित होने के कारण इस फिल्म में तो उनके सामने भावनाओं को प्रदर्शित करने का बहुत अच्छा मौका था पर वे इस मौके का कोई भी फायदा नहीं उठा पायीं।

मिसेज मेहता के रुप में लूसी हसन उस उस जगह ठीक ठाक सा प्रभाव छोड़ गयी हैं जहाँ  जहाँ उन्हे एक अहंकारी महिला के भावों को दिखाना था पर बाकी जगह वे अप्रभावी रही हैं।
नावेद असलम भी मि. सिंह के रुप में साधारण किस्म के अभिनय का प्रदर्शन कर पाये हैं।

अभिनय के मामले में यह फिल्म प्रशांत नारायण की फिल्म है। उनके अच्छे अभिनय की सराहना इसलिये भी करनी पड़ेगी क्योंकि किसी भी अभिनेता के लिये केवल रिश्तों में आये उतार चढ़ाव पर बनी फिल्म में अपने अभिनय का स्तर बनाये रखना एक बड़ी चुनौती बन जाता है अगर उनके चरित्र से जुड़े अन्य चरित्रों को निभाने वाले अभिनेता साधारण या उससे भी कम स्तर के अभिनय का प्रदर्शन कर रहे हों। और यह फिल्म तो केवल चार चरित्रों के आपस में रिश्तों पर आधारित फिल्म है। प्रशांत ने ऐसे चित्रकार के चरित्र को समझा जो जीविका चलाने के लिये हाल फिलहाल तो अपनी पत्नी पर निर्भर है। अगर उन्हें बाकी तीन कलाकारों से भी अच्छे अभिनय का सहयोग मिला होता तो फिल्म कुछ और ही बन जाती|

फिल्म में अरुणा शील्डस के नग्न दृष्य जरुरत से ज्यादा हैं और वे फिल्म का प्रभाव कम करते हैं। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नग्नता दिखाते उनके दृष्यों को थोड़ा फिल्टर करके दिखाया गया है। मुख्य बात ये है कि वे मि. मेहता द्वारा बनायी जा रही पेन्टिंग के लिये न्यूड मॉडल बनी हुयी हैं और इस बात का ज्यादा असर पड़ता अगर उन्हे उनकी नग्नता दर्शाता एक दृष्य ही दिखाकर सीधे उनकी पेन्टिंग दिखायी जाती। तब सब कुछ दर्शकों की कल्पना के ऊपर छोड़ दिया जाता और ऐसी व्यवस्था फिल्म को ज्यादा प्रभावी बनाती। Titanic  को यहाँ याद करना अप्रासंगिक न होगा| Nudity और Nakedness का अंतर कला भली भांति स्थापित करती आयी है और फिल्म जैसी चलते-फिरते चित्रों वाली विजुअल विधा, जहां सब कुछ सजीव लगता है, में निर्देशक को बेहद संवेदनशीलता, बुद्धिमानी और कुशलता से संतुलन को कायम रखना पड़ता है| कहीं तो कुछ कलात्मक संवेदनशीलता रहती ही है जिसके कारण Bernardo Bertolucci Last Tango in Paris और The Dreamers बना जाते  हैं, Stanley Kubrick Eyes Wide Shut जैसी विषय का गहराई से विश्लेषण करने वाली फिल्म रच देते हैं जबकि बहुत सारे अन्य निर्देशक eroticism और Porn के अंतर में सिर खुजाते ही रह जाते हैं| हिंदी सिनेमा में भी उत्सव भी तो बनी ही थी जहां गिरीश कर्नाड कलात्मक कुशलता से नारी देह के सौंदर्य प्रदर्शन का निर्वाह कर गये|
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उस्ताद शुजात हुसैन खान द्वारा दिया गया संगीत कर्णप्रिय है। हालाँकि एक गीत जगजीत सिंह द्वारा फारुख शेख अभिनीत फिल्म साथ साथ में गाये गाने तुमको देखा तो ये खयाल आया की बहुत ज्यादा याद दिलाता है।

फिल्म के अंत तक यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म ज्यादातर मि. मेहता और मिसेज सिंह पर फोकस रहती है तो ऐसे में फिल्म का शीर्षक मि. सिंह मिसेज मेहता थोड़ा अटपटा लगता है क्योंकि शीर्षक- मि. मेहता मिसेज सिंह ज्यादा उपयुक्त्त लगता।

हिन्दी सिनेमा ने दर्शकों को विवाहेत्तर सम्बंधों पर आधारित कितनी ही कालजयी फिल्में दी हैं और इन बेहद अच्छी फिल्मों के अलावा कुछ अन्य भी अच्छी फिल्में रही हैं जो समय के साथ भुला दी गयीं। पर मि. सिंह मिसेज मेहता अच्छे विषय के बावजूद एक औसत फिल्म बन कर रह जाती है।

निर्देशक की पहली फिल्म है और फिल्म में कमियों का होना बहुत अचरज की बात नहीं है। संभावना तो दिखायी देती ही है प्रवेश भारद्वाज में और ऐसा अवश्य ही प्रतीत होता है कि आगे वे कहीं बेहतर फिल्में बना सकेंगें।

…[राकेश]