हृषिकेश मुकर्जी की उल्लेखनीय फिल्म – आनंद, का शीर्षक फिल्म के एक मुख्य किरदार आनंद (राजेश खन्ना) के नाम पर रखा गया है, जो अपने जीवन के गमों और अपनी परेशानियों को दरकिनार करके अपना जीवन इस ईश्वरीय वरदान वाले अंदाज में जीता रहा कि उसके संपर्क में आने वाले हर इंसान को उसकी उपस्थिति से आनंद ही प्राप्त हुआ| पर आनंद फिल्म का मुख्य किरदार नहीं है, फिल्म का मुख्य किरदार है बम्बई का डा. भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन), जिसकी लिखी किताब के हवाले से दर्शक आनंद को जान पाते हैं, देख पाते हैं और आनंद के जीवन दर्शन के दवारा आनंद प्राप्त कर पाते हैं|
भास्कर एक गंभीर इंसान है जो मेडिकल प्रोफेशन में निरंतर फैलते भ्रष्टाचार, चारों और विस्तार पाती भूख, गरीबी और बीमारियों के कारण और ज्यादा शुष्क मिजाज का हो गया है और उसके अंदर नाकारा तंत्र के प्रति नाराजगी भरी रहती है| उसके जीवन में प्रसन्नता और आनंद के लक्षण तक दिखाई नहीं देते| अंतर्मुखी भास्कर का जीवन बस यूँ ही अपनी डाक्टरी से जुडी व्यस्तताओं से भरा एक रूटीन सा जीवन है| उसमें किसी प्रकार का कोई रस नहीं है| ईमानदारी से वह अपना काम करना चाहता है| पर एक अकेला वह नक्कारखाने में तूती की आवाज है|
वह फिल्म का नायक है पर उसके जीवन पर बनी फिल्म भयंकर बोरियत दर्शकों को प्रदान करेगी| या तो वह चिकित्सा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग कर रहा हो तब कोई रोचक फिल्म उसके जीवन पर बन सकती है, या उसके जीवन में ऐसे वाकये गुजरते हों जो रोचक फिल्म की सामग्री प्रदान करते हों| यहाँ दूसरी संभावना जाग्रत होती है और उसके जीवन में बदलाव आता है दिल्ली से बम्बई आने वाले आनंद के आ जाने से| आनंद, भास्कर से बड़े नायक के तौर पर उभर कर आता है| आनंद को समझने के लिए और उसकी सार्थकता को जानने के लिए भास्कर को जानना, पहचानना और समझना जरूरी है|
फिल्म डा. प्रकाश (रमेश देव) की मार्फ़त भास्कर और दर्शकों को बताती है कि दिल्ली से उन दोनों के मेडिकल कालेज के मित्र डा. त्रिवेदी का एक मरीज जो उसका मित्र भी है, आनंद, बम्बई में प्रकाश और भास्कर के पास आने वाला है| आनंद को आँतों का कैंसर है और आनंद का एक्स-रे देखते हुए भास्कर बड़े ही कैजुअल तरीके से टिप्पणी करता है कि इसमें देखना क्या है, यह आदमी हद से हद चार- छह महीने ही जी पायेगा|
यह टिप्पणी और इसे करने का अंदाज बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये दोनों बातें भास्कर के चरित्र को दर्शाती हैं| मरीज और मर्ज को देखने का उसका तरीका तकनीकी है| जिस मरीज के पास संसाधन नहीं हैं, ऐसे गरीब मरीजों के लिए उसके मन में हमदर्दी जरुर है लेकिन सामान्यतः उसका दृष्टिकोण वैज्ञानिक ज्यादा है| पिता के जमाने के अपने वृद्ध नौकर के सिवा उसके घर कोई अन्य इंसान दिखाई नहीं देता| उसके माता-पिता का कोई जिक्र फिल्म में नहीं है| लगता है उसका कोई नजदीकी रिश्तेदार भी नहीं है और हृषिकेश मुकर्जी की कुछ अन्य फिल्मों की तरह वह नितांत अकेला इंसान है| मशीनी दिनचर्या के कारण भी और उसकी जीवन शैली और उसके प्रकृति के कारण भी उसका जीवन नीरस है| उसे अकेले रहना अच्छा लगता है या अकेलापन उसने अपने पर थोप लिया है, एकबारगी इसका पता दर्शक को शुरू में नहीं लग पाता| वह डाक्टर होने के अपने कर्तव्य का निर्वाह तो भली भांति करता है पर इससे इतर उसके जीवन में कुछ भी दिखाई नहीं देता| चूँकि कोई नाते रिश्तेदार दिखाई नहीं देते सो किसी से उसका दिल का रिश्ता भी निगाहों में नहीं आता| प्रकाश से ही उसकी मित्रता है पर वह कितनी अतरंग है इसका कोई सुराग नहीं मिलता| भास्कर रिजर्व किस्म का इंसान है सो दूसरे को ही पहल करनी होगी ऐसे इंसान से गहरा रिश्ता बनाने में|
संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यवसाय में डूबे भास्कर के पास ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ की कुंजी नहीं है| वह प्रसन्नचित इंसान नहीं है| भावनाओं के समुद्र में तैरना तो दूर उसने अभी टखने तक पाँव भी नहीं भिगोये हैं| वह जीवित है, सवेंदनशील भी लगता है पर जीने की कीमिया से वह अंजान है| जीवन की कोमलता से उत्पन्न कलाओं से वह अनभिज्ञ है|
उसमें जो कुछ स्वभावगत कमियां हैं, जिन्हें स्वस्थ जीवन की परिभाषा के तहत बीमारियाँ भी कह सकते हैं उनका एंटीडोट बनकर आनंद का प्रवेश उसके जीवन में होता है|
आनंद वह सब कुछ है, जो भास्कर नहीं है|
आनंद प्रेम का दूसरा नाम है| वह जीवन को और जीने के अंदाज को परिभाषित करने वाला इंसान है| आनंद एक निर्मल और निश्छल उपस्थिति है जो अपने इर्दगिर्द सिर्फ और सिर्फ प्रसन्नता का विकिरण हर समय करता रहता है| उसके भौतिक शरीर का क्षय बहुत तेजी से हो रहा है लेकिन उसके आत्मिक बल, और वर्तमान के लम्हों को भरपूर जी लेने की अदम्य इच्छा, इच्छाशक्ति और सामर्थ्य की तीव्रता अदभुत है| ऐसा कोई नहीं जो उसके संपर्क में आकर उसके साथ चंद लम्हे गुजार ले और उसके साथ प्रेम में न पड़े| दर्शक के लिए भी ऐसा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है| वह न केवल फिल्म के चरित्रों के दिलों में जगह बनाता है बल्कि परदे पर आने के चंद पलों के बाद ही दर्शक के दिल और दिमाग का एक हिस्सा बन जाता है| उसके सुख दुख दर्शक के भी सुख दुख बन जाते हैं|
एक दर्शक पचास बार आनंद फिल्म देख ले| चाहे तो एक दिन में लगातार पांच बार देख ले और भले ही उसे फिल्म का अंत भली भांति पता हो पर यह असम्भव है कि आनंद की प्रसन्नता से संक्रमित होकर वह प्रफुल्लता से हँसे नहीं और आनंद के कारण उपजे दुख से उसकी आँखों में नमी न तैर जाए| यह सरासर असंभव बात है|
आनंद मानों भास्कर को जीना सिखाने के लिए ही अपने जीवन के अंतिम कुछ माह व्यतीत करने बम्बई आया है| जिस भास्कर का किसी भी शख्स से गहरा नाता नहीं था वह आनंद की मैत्री में जीने के बाद उसे खोने के डर से रातों को सो नहीं पता, और दिन भर बेचैन रहता है| जिस डा. भास्कर को मरीज का इलाज करने से अलग उससे कोई संबंध रखने में कोई रूचि नहीं थी उसका जीवन दर्शन आनंद पलट कर रख देता है और भास्कर एक अच्छा डाक्टर होने के साथ एक अच्छा और संवेदनशील और पहले से बेहतर इंसान बन जाता है|
यह आनंद ही है जो भास्कर के लगभग वीरान जीवन में जीने के बेहतर तरीकों के अंकुर उगाता है| भास्कर के दिल की तहों में अँधेरे में दबे कुचले प्रेम को न केवल ऊपर सतह पर लाता है बल्कि उससे भास्कर के जीवन को इस कदर महकाता है कि इसकी सुगंध दूर से ही भास्कर के व्यक्तित्व और उसके जीवन में महसूस होने लगती है|
आनंद जब भास्कर को कायदे से जीना सिखा देता है तब प्रकृति उन घड़ियों को ले आती है जब आनंद को धरा से विदा लेनी है| जिस आदमी का कोई वजूद छह माह पहले भास्कर, और प्रकाश और उनके नजदीकी लोगों में नहीं था वही सब लोग अब आनंद की पास आती मृत्यु से भयभीत हैं| प्रकाश और भास्कर तो डाक्टर हैं और मरीजों को मरते हुए दैनिक स्तर पर देखते रहे हैं पर आनंद की मृत्यु उनकी सहनशीलता से बाहर की बात है| दर्शक के लिए भी आनंद को मरते देखना दुख की बेला से गुजरना है| ऐसे इंसान की आदत हो जाना स्वाभाविक है| वह एक तरह से भास्कर और अन्य चरित्रों के लिए ही नहीं बल्कि दर्शक के लिए भी ‘जीवन कैसे जियें’ इस रहस्य को सिखाने वाला गुरु है और गुरु के साथ रहते एक सुरक्षा कवच को लोग महसूस करके सहजता से जीते हैं पर गुरु से वियोग की बात उन्हें कमजोर बना डालती है क्योंकि अब वे अपने जीवन के स्वयं जी खेवनहार हैं और अब उन्हें स्वंय ही जीवन को उस तरह से जीना है जैसा गुरु ने उन्हें सिखाया है|
आनंद की प्रतीक्षित मौत के बाद उपजे शून्य ने भास्कर के मन को मथा होगा उसे बेहद प्रताड़ित किया होगा और तब किन्ही क्षणों में वह वास्तविकता को स्वीकार कर पाया होगा|
आनंद को लेकर भास्कर के लिए दो विरोधाभासी भावों का सामना करना पूरी तरह स्वाभाविक है| जहां आनंद ने उसके जीवन में जो रस घोला है, उसे जीवन जीने की कला जो सिखाई है उसकी स्मृतियाँ उसे आनंद और उसके साथ व्यतीत किये समय के प्रति शुक्रगुजार ठहराती होंगी –
बीते वक्त का हर लम्हा याद है मुझे
मैं गुजरे वक्त का एहसानमंद हूँ
लेकिन इसी के साथ जब उसे एहसास होता होगा कि आनंद उसे छोड़ कर चला गया है और अब भौतिक रूप से वह आनंद के साथ होने का आनंद कभी नहीं उठा पायेगा तब इस एहसास के दुख से उसका अंतर्मन बुरी तरह प्रताड़ित होता होगा|
गुजरते वक्त की हर चाप से डरता हूँ
न जाने कौन सा लम्हा उदास कर जाए
और स्मृतियों के अच्छे और दुखमयी पहलुओं से गुजरते हुए ही वह आनंद के साथ व्यतीत किये गये समय को लेखनीबद्ध करके जब किताब का रूप देता है तो कभी उसे यह एहसास हो गया होगा कि आनंद और जैसे जीवन से भरपूर लोग कभी नहीं मरते क्योंकि वे हमेशा जिंदा रहते हैं उनके प्रेम में सराबोर हो चुके लोगों के दिलों में|
जब खुल कर जीते नहीं तब इंसान एक तरह से संग्रहकर्ता बन जाते हैं और इच्छाएं संग्रहित करते रहते हैं कि ऐसा हो जाए इसके बाद ये करूँ, वैसा हो जाए तो वह करूँ और अतृप्त इच्छाएं उनके मन-मानस पर बोझ डालकर उन्हें मृत्यु के प्रति अति-भयभीत बना डालती हैं| अभी कितना कुछ नहीं कर पाए अभी कैसे मर जाएँ!
जब भरपूर जी लिए और अतृप्त तमन्नाएं न रहें क्योंकि जैसा जीवन में सामने आया उसे वैसा देखा, समझा और उसके पार हो लिए के सिद्धांत से मन पर कोई बोझ नहीं रहता और तब इंसान मृत्यु से भयभीत नहीं होता| आनंद भी ऐसा ही है, जब जिस बात को करने का कहने का भाव मन में उठा तब वह कर दिया, कह दिया| उसका बंधन भी किसी से नहीं है| अंत में भी वह अपने लिए नहीं भास्कर के लिए थोड़ा और जीना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि बाहर से कठोर दिखने वाला भास्कर अंदर से कमजोर है और अब आनंद के साथ मैत्री के प्रेमपूर्ण बंधन में बंधने के पश्चात उसके लिए आनंद से हमेशा के लिए जुदाई सहन नहीं हो पायेगी|
आनंद लोगों को जीना सिखा जाते हैं और यह कारवां यूं जी आगे बढ़ता चला जाता है और इंसान के अस्तित्व में प्रेम और जीवन को सही ढंग से जीने का ज्ञान भी संरक्षित और संप्रेषित होता चला जाता है|
आनंद, हर दृष्टि से राजेश खन्ना की फिल्म है| अमिताभ बच्चन फिल्म में कुपोषण का शिकार लगते हैं और बीमार व्यक्ति की भूमिका में शारीरिक रूप से ज्यादा सटीक लगते और कैंसर से ग्रसित राजेश खन्ना खाते पीते व्यक्ति नज़र आते हैं तब भी राजेश खन्ना के बेहतरीन अभिनय को देखकर एक भी दृश्य में ऐसा नहीं लगता कि कोई और, कोई भी और अभिनेता उस दौर में, उससे पहले दौर में या उसके बाद के दौर में आनंद की भूमिका को राजेश खन्ना से अच्छा निभा पाता| जबकि पहले और बाद में भी राजेश खन्ना से बेहतरीन अन्य अभिनेता हुए हैं पर यह भूमिका राजेश खन्ना ने सारे अभिनेताओं से हमेशा के लिए छीन ली है और कोई अन्य अभिनेता इसे निभाने की चेष्टा भी करेगा तो वह राजेश खन्ना के अभिनय की स्मृति के स्तर को बढाने का ही काम करेगा|
खासा समय गुजर जाने के बाद राजेश खन्ना के चरित्र आनंद का प्रवेश फिल्म में होता है और अंत में आनंद मर भी जाता है, और उसकी कहानी हमें अमिताभ बच्चन के चरित्र के हवाले से दिखाई जाती है तब भी पूरे समय दर्शक के मानस पर आनंद और इस भूमिका में राजेश खन्ना ही छाये रहते हैं| सिर्फ एक दृश्य में सूट में नज़र आने वाले राजेश खन्ना ने पूरी फिल्म में साधारण कुर्ते पायजामे ही पहने हैं, उनके चेहरे पर मुंहासों की भरमार दिखाई देती है और यह उनके अभिनय का ही कमाल है कि पिछले चार दशकों से ज्यादा समय से यह फिल्म हिन्दुस्तानी दर्शकों को पीढ़ी दर पीढ़ी लुभाती आ रही है| परदे पर वे आनंद ही हैं| अभिनेता और चरित्र के भेद को उन्होंने इस फिल्म में मिटा दिया है|
फिल्म के एक दृश्य में आनंद दुर्गा खोटे के चरित्र से मिलने जाता है और चंद पलों में ही उनका दिल जीत लेता है| बिल्कुल यही काम आनंद की मार्फ़त राजेश खन्ना दर्शकों के साथ करते हैं|
गुलज़ार के संवादों और योगेश एवं गुलज़ार के रचे गीतों की सहायता से आनंद के चरित्र को एक आभामंडल मिलता है जिसका भरपूर लाभ राजेश खन्ना उठाते हैं|
हृषिकेश मुकर्जी ने 1979 में गोलमाल तक एक से बढ़कर एक फ़िल्में बनाई लेकिन यह बिना वजह नहीं कि आनंद हृषिकेश मुकर्जी की फिल्मोग्राफी में सबसे ज्यादा देखी और सराही जाने वाली फिल्म है| उनके दवारा बनायी गई उच्च स्तरीय फिल्मों की भीड़ में भी आनंद दर्शक से एक सहज और गहरा रिश्ता बना लेती है और यह आनंद की भूमिका के कारण ही संभव हो पाता है| राजेश खन्ना भाग्यशाली थे कि उन्हें ऐसा एक कालजयी किरदार उस वक्त निभाने को मिला जब उनकी रचनात्मक ऊर्जा अपने उरूज पर थी|
…[राकेश]
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