गीत फिल्म बनाने के लिये कतई जरुरी नहीं हैं, न अच्छी फिल्म बनाने के लिये और न सामान्य स्तर वाली या एक बुरी फिल्म बनाने के लिये। ये और बात है कि 40 के दशक से ही हिन्दी फिल्मों में कुछ ऐसे काबिले तारीफ़ निर्देशक हुये हैं जिन्होने गीतों का इतना प्रभावी और बेहतरीन उपयोग अपनी फिल्मों में किया है कि न केवल उनके गीत उनकी फिल्म में एक मूड एक वातावरण उत्पन्न करते रहे हैं बल्कि उन गीतों ने फिल्मों के प्रभाव को और बढ़ाया है। गीतों ने उनकी फिल्मों के कथानक को बाधित नहीं किया है बल्कि उनमें भावनाओं की तीव्रता को उभारा है और फिल्मों को और अधिक रोचक बनाया है। अपवादों को छोड़ दें तो हिन्दी सिनेमा की उम्दा फिल्मों का गीत संगीत भी कालजयी रहा है।

हिन्दी सिनेमा में कई संगीत निर्देशक तो बहुत बहुत कमाल के हुये हैं जिन्होने इतना सुन्दर संगीत फिल्मों को दिया है कि कभी कभी ऐसा लगता है कि अच्छी हिन्दी फिल्में कभी भी बिना गीत संगीत के न बनती थीं और न बन पायेंगीं परन्तु ऐसे निर्देशक कम ही हुये हैं जिन्होने गानों के फिल्मांकन में भी कमाल हासिल किया है और गीतों को सिर्फ़ खानापूर्ति करने के लिये फिल्मों में नहीं रखा है।

विजय आनन्द का नाम ऐसे काबिल निर्देशकों की सूची में ऊपर स्थान हासिल करने वाले कुछ चुनींदा नामों में बाइज्जत आता है। उनकी गीतों को फिल्माने की कल्पना प्रशंसनीय थी।

हे मैने कसम ली ”  गीत विजय आनन्द द्वारा निर्देशित और नवकेतन द्वारा निर्मित फिल्म ” तेरे मेरे सपने ” से सम्बंध रखता है। ये फिल्म एक तरह से विजय आनन्द और देव आनन्द की जोड़ी की आखिरी उल्लेखनीय फिल्म है और दोनो भाइयों की जुगलबन्दी ने इस फिल्म के रुप में एक खूबसूरत उपहार सिने प्रेमियों को दिया है। फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र में यह फिल्म अपनी योग्यता दर्शाती है, चाहे वह कथानक हो, अभिनेताओं क अभिनय हो, गीत-संगीत हो, निर्देशन हो या फिल्म से सम्बन्धित तकनीकी पहलू हों।

विजय आनन्द निर्देशक हों, एस डी बर्मन संगीत निर्देशक हों, नीरज गीत लिख रहे हों और गीत को लता और किशोर ने अपनी सुरीली गायिकी प्रदान की हो और उस गीत को पर्दे पर देव आनन्द और मुमताज़ जैसे अभिनेता प्रस्तुत कर रहे हों तो वह गीत परदे पर सिनेमा का जादू क्या होता है उसे साबित करता है।

इस गीत ” हे मैने कसम ली “ में देव और मुमताज़ मानो अभिनय नहीं कर रहे हैं बल्कि वे वास्तविक युवा प्रेमी युगल लगते हैं जिनका अभी हाल में ही विवाह हुआ है। अच्छी हिन्दी फिल्मों पर गौर किया जाये तो वहाँ ये भाव तो मिलता ही है कि चीजें वास्तविक जीवन से जुड़ी हुयी लगें परन्तु साथ साथ ये प्रबन्ध भी रहता है कि सिनेमा के परदे पर द्र्ष्य इतने आकर्षक हों कि दर्शक उन्हे देखकर प्रेरित हों और उनकी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगें और वे सोचने लगें कि काश हमारे जीवन में भी ऐसा ही हो (या न हो अगर फिल्म कोई दुख भरी गाथा दिखा रही है)। जीवन से लिया तो जाये पर उसे इस कदर आकर्षक रुप में प्रस्तुत किया जाये कि वह कला के रुप में जीवन को संवारने लगे।

गौर से गाने को देखा जाये तो विजय आनन्द ने गीत के फिल्मांकन में विवाह रीति को ही रोमान्टिक अन्दाज में प्रस्तुत किया है। ऐसा लगता है मानो प्रेमी विवाह मन्डप में या कहीं भी एक दूसरे के अस्तित्व में खोये हुये प्रेम का इजहार भी कर रहे हैं और कस्मे वादे निभाने की भावनाओं का आदान प्रदान भी कर रहे हैं। जैसे हिन्दु विवाह के समय फेरे लेते समय आधे समय दुल्हा आगे रहता है और दुल्हन पीछे रहती है और शेष फेरों के समय दुल्हा दुल्हन के पीछे रहता है लगभग वैसा ही क्रम इस गाने में भी रखा गया है।

बादलों के पीछे से सूरज की किरणें अपना तेज बिखेरती हुयी चारों तरफ़ प्रकाश फ़ैला देती हैं और दर्शक देखता है कि नवदम्पति साइकिल पर सवार होकर चारों तरफ रोमान्स और सौन्दर्य बिखेर रहे हैं। प्रष्ठभूमि ये है कि विवाह के उपरान्त नायक देव आनन्द पाते हैं कि वे सारे दिन अपनी अर्धांगिनी के सौन्दर्य में ही खोये रहते हैं और यदि ऐसा ही चलता रहा तो उन्हे भूल जाना चाहिये कि वे एम डी में प्रवेश के लिये परीक्षा पास कर सकते हैं और मन को कठोर बनाकर वे अपनी पत्नी को उनकी मौसी के घर छोड़ आते हैं पर यहाँ अकेले उनका मन नहीं लगता और पत्नी की अनुपस्थिति पढ़ाई लिखाई को और दुश्वार बना देती है और किताबों के प्रष्ठों से पत्नी का सुन्दर मुखड़ा उभर उभर कर उन्हे खिजाता रहता है और वे उनकी यादों में खो जाते हैं। खुद बड़े अभिमान से और बड़े संयमी दिखकर वे उन्हे मायके छोड़कर आये थे अब एकाएक कैसे उन्हे वापिस ले आयें? सो वे बड़े ही नाटकीय अन्दाज में सारा दोषारोपण मुमताज़ पर मढ़ देते हैं कि वह उन्हे अकेला छोड़ आयी बिना ये ध्यान रखे कि उन्हे डिस्पेन्सरी भी चलानी है और पढ़ना भी है और घर का काम भी करना है।

बहरहाल अपनी तरफ से खूब नाटक करके वे मुमताज़ को वापिस ले आते हैं। ये और बात है कि मौसी (लीला मिश्रा) सब समझती हैं।

गाना उन दोनों की वापसी के समय का है। नया विवाह है और अभी देह का आकर्षण बहुत है और विजय आनन्द का कैमरा पूरे गीत में प्रेम में देह के अस्तित्व को रेखांकित करता है। प्रेमियों की आपस में छेड़छाड़ से गीत शुरु होता है।

साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनीगंधा
प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा ।

एक दूसरे के अस्तित्व में गहरे खोये प्रेमीगण चाहते हैं और कसम लेते हैं

नहीं होंगे जुदा नहीं होंगे जुदा हम्म्म्म्म
हे मैने कसम ली.….

प्यार की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि प्रेमियों को लगता है कि वे हमेशा से ही एक दूसरे के साथ थे और उनका साथ जन्मों जन्मों क है और वे आगे भी हर जनम में साथ ही बने रहने के सपने देखते हैं और वादे करते हैं।

पा के कभी खोया तुझे खोके कभी पाया
जनम जनम तेरे लिये बदली हमने काया
नहीं होंगे जुदा नहीं होंगे जुदा हम्म्म्म्म
मैने कसम ली …….

प्रेमी कालजयी होना चाहते हैं। वे समय के पार जाना चाहते हैं। वे एक दूसरे पर इतने ज्यादा मोहित हैं कि ऐसा सब कुछ कहने और मानने में उन्हे कुछ भी अवास्तविक नहीं लगता। ऐसा प्रेम ही जीवन का मुख्य आधार लगने लगता है और लगता है कि यदि प्रेम संग है तो आगे जीवन ऐसे ही खुशी खुशी बीतेगा और जीवन में तरक्की आयेगी।

साथ ही साथ नव दम्पति के मन के जुड़ाव और उनकी भावनाओं को भी प्रधानता दी गयी है। प्रेमी-दम्पति समझते हैं कि जिस साथी की उनके अस्तित्व को तलाश थी वह मिल गया है।

प्रेमी अपनी भावनाओं को शब्द देता है

एक तन है एक मन है एक प्राण अपने
एक रंग एक रुप
तेरे मेरे सपने

और उसकी इस अभिव्यक्ति पर न्यौछावर हुयी प्रेयसी भी उन्ही भावनाओं को मगन होकर दोहराती है। देखिये विजय आनन्द ने कैसे मुमताज़ के चेहरे पर सूरज की किरणों की लालिमा का तेज बिखेरा है जब वे इन पंक्तियों को गाती हैं। वे आह्लादित हैं। प्रेम में सराबोर हैं। जीवन में प्रेम की इतनी भरपूर बरसात हो रही है कि उनका रोम रोम प्रेममयी होने के कारण खिल उठा है। वे पति को हर कदम पर समर्थन देना चहती हैं। वे उनके ही अस्तित्व का एक भाग पर सबसे महत्वपूर्ण भाग बन गयीं हैं। और ऐसा भाव जीवन को रस में भीगो ही देगा। इससे बड़ा और प्रभावी टानिक कोई नहीं है दुनिया में और न कभी बन पायेगा।

खूबी देखिये विजय आनन्द के निर्देशन की। जब प्रेमी मगन होकर ऐसे भाव प्रदर्शित कर रहे हैं सहसा कैमरा ऊपर चला जाता है मानो समय का प्रतिनिधित्व कर रहा हो और जाँच रहा हो कि क्या प्रेमीगण वास्तविकता बयान कर रहे हैं या भावनाओं में बहकर बड़े बोल रहे हैं। जिन्होने फिल्म देख रखी है वे इस बात को समझ जायेंगे कि कैसे समय देव-मुमताज़ के प्रेम की परीक्षा लेता है।

विजय आनन्द की फिल्मों में कुछ भी होने के पीछे कुछ गहरा भाव छिपा होता है। रोमांस, रोमांच, रहस्य, सामाजिक सरोकार, ड्रामा आदि इत्यादि क्या नहीं मिलता उनकी फिल्मों में?

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