वी. शांताराम निस्संदेह दृश्यात्मक कल्पना के बेहद उच्च कोटि के सिनेमाई शिल्पी थे| वी.शांताराम की फ़िल्में, अभिनय और संवाद के लिए नहीं बल्कि उनके द्वारा प्रस्तुत दृश्यात्मक कल्पनाओं के लिए हमेशा सराही जायेंगी| एक आम दर्शक या फ़िल्म समीक्षक उनकी फिल्मों पर कैसी भी टिप्पणी कर देगा कि कैसा अटपटा सा अभिनय वे अपने अभिनेताओं से करवाते थे या स्वंय भी कोई बहुत गहराई वाले अभिनेता नहीं थे आदि इत्यादि लेकिन जैसे दृश्य वे कल्पित करते थे अपनी फिल्मों के लिए रचते थे, उसे सिनेमेटोग्राफर्स, और कला संयोजक, आदि तकनीकी लोग सिर्फ सराह ही सकते हैं और उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं| चार्ली चैपलिन जैसे सम्पूर्ण अभिनेता एवं फ़िल्म रचियता भी वी शांताराम की मानुष फ़िल्म के प्रशंसक थे|
दूसरा महायुद्ध/विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रिटिश राज के अधीन भारत में फिल्में बनाने के लिए फ़िल्म का रॉ स्टॉक विदेश से आता था, उसकी आपूर्ति बंद हो गयी| वी शांताराम अपनी एक फ़िल्म की तीन चौथाई शूटिंग पूरी कर चुके थे और उनके पास फ़िल्म का थोडा सा ही स्टॉक बचा हुआ था| उन्होंने अपनी स्क्रिप्ट को ही संपादित करके अत्यंत आवश्यक दृश्यों का लेखा जोखा बनाया और पाया कि उन्हें 20-22 मिनट की फ़िल्म और चाहिए|
रिटेक्स का जोखिम वे नहीं उठा सकते थे| उनके कल्पनाशील दिमाग ने उन्हें उस दौर के हिसाब से अलग समाधान दिया|
उन्होंने खुद को और अपने साथ काम कर अभिनेताओं को एक नाटक की भांति दृश्यों की रिहर्सल की दुनिया में झोंक दिया| उन्होंने निश्चित किया कि वे 17-18 मिनट के क्लाइमेक्स की शूटिंग अनवरत रूप से एक टेक में करेंगे| कैमरे को एक जगह स्थिर कर दिया गया और उन्होंने सभी अभिनेताओं को इस तरह से संचालित किया कि वे कैमरे की सीमा में बिलकुल प्राकृतिक तरीके से आकर अपनी भूमिका निभाएंगे| स्थिर कैमरे से उन्होंने इतना लम्बा शॉट लिया और फ़िल्म के रॉ स्टॉक की अनुपलब्धता से छाई विपत्ति को अपने निर्देशकीय कौशल और फ़िल्म बनाने के तकनीकी ज्ञान से दूर किया|
वी. शांताराम की फिल्मों में संपादन में कट्स की उपस्थिति का पता बहुत ही ध्यान से देखने वाले दर्शकों को चल सकता है और वे भी इसी काम के लिए उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्में या सिर्फ गीत ही देखने बैठें तो वे भी उनके दृश्य संयोजन के वैभव में इतना खो जाते हैं कि बहुत से कट्स को नहीं देख पाते और उन्हें अपनी गणना पुनः शुरू करनी होगी और फिर से वे कोई न कोई कट मिस कर जायेंगे|
हिंदी सिनेमा के अन्य बड़े निर्देशकों जो कि ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मों के बादशाह थे उनकी तुलना में वी. शांताराम ने रंगीन फिल्मों में बड़ी तेजी से अपने को ढाल लिया|
रंगीन फिल्मों में उनके निर्देशन के वैभव को देखा जा सकता है| “झनक झनक पायल बाजे” के नृत्य गीतों का हरेक फ्रेम राजा रवि वर्मा की पेंटिंग लगता है| अभिनेत्री संध्या को नृत्य नहीं आता था और यहाँ उन्हें नृत्य सम्राट गोपी कृष्ण के साथ स्क्रीन साझा करनी थी| तो संध्या और वी शांताराम की मेहनत इसके गीतों के फिल्मांकन में सोचिये!
नैन सो नैन नाहीं मिलाओ गीत का फिल्मांकन धरती पर का नहीं लग कर ऐसा लगता है जैसा स्वर्ग और वहां एक देवों और अप्सराओं के बारे में पढ़ते हैं वैसा ट्रीटमेंट इसे दिया गया है| हिन्दू मिथकों के बहुत से अंश इसमें नज़र आयेंगे|
सेहरा में रेगिस्तान में “तुम तो प्यार हो सजनी” गीत के फिल्मांकन ने आगे ऐसी लोकेशन पर गीतों या दृश्यों के संयोजन की कल्पना अन्य निर्देशकों के लिए भी जन्माई|
1971 में आई “जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली” में गीतों के फिल्मांकन में वी शांताराम की निर्देशकीय कल्पना अपने शिखर पर पहुँचती है| हरेक गीत 9-10 मिनट का है जिसमें 2-3 मिनट का प्रील्यूड है जहां सिर्फ अभिनेतागण धुन पर नाच रहे हैं, और लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल और मजरुह सुल्तानपुरी ने लम्बे लम्बे गीत रचे और संगीतबद्ध किये हैं| इस फ़िल्म की म्यूजिक एल्बम लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की टॉप पांच एल्बम में से एक है| कोरस में तो उन्होंने कमाल किया है और बहुत सारे अभिनेताओं से परदे पर एक साथ नृत्य करवाकर उन्हें बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करके वी शांताराम ने भी सिनेमा के परदे पर वैभवता दिखाने में महारत प्रदर्शित की है|
मन की प्यास मेरे मन से न निकली
ऐसे तड़पूं के जैसे जल बिन मछली
गाते हुए लता जी ही मछली की तड़पन को अपनी गायिकी से नहीं उकेरती बल्कि संध्या को वी शांताराम भी मत्स्य नारी ही बना कर परदे पर प्रस्तुत करते हैं| मछली की तड़प और संध्या के थिरकने के बारी बारी से दिखाए दृश्यों से दर्शक उस तड़प से एकाकार हो जाते हैं|
कजरा लगा के, के बिंदिया सजा के
गीत की लम्बाई लगभग 10 मिनट की है और लगभग 3 मिनट धुन पर नागिन बन जमीन पर लेट कर नृत्य करती संध्या को दिखाकर लता जी की गायिकी गीत में आरम्भ होती है| आजकल इस गीत को वीएफएक्स की आधुनिकतम सुविधाओं से परदे पर दिखाया जाता, वी. शांताराम इसे ऐसे फिल्माते हैं जैसा थियेटर में स्टेज पर होता लेकिन नाग-नागिन की जोड़ी और चारों ओर सफ़ेद मोरों के झुण्ड के द्वारा जो वातावरण वी शांताराम रचते हैं किआज भी बच्चे और बूढ़े दर्शक मंत्रमुग्ध होकर इसे दखते चले जाएँ|
तारों में सज के अपने सूरज से
देखो धरती चली मिलने
गीत में अन्तरिक्ष में घूमती हुयी पृथ्वी में से अचानक संध्या का निकल कर नृत्य करने लगने के बीच कहीं कोई गैप ढूंढना मुश्किल है|
दर्जनों सह- नृत्यांगनाओं की भीड़ में नाचते हुए कोरस की ध्वनि के बीच जब कैमरा संध्या के चेहरे पर केन्द्रित हो जाता है और केसरिया रोशनी में चमकती हुयी संध्या गीत की पंक्तियों –
है घटाओं का दो नैन में काजल
धूप का मुख पर डाले सुनहरा सा आँचल
अपने हाथों की उँगलियों की मुद्राओं से झरोखे बनाकर धीरे धीरे अपने नैनों के दर्शन परदे पर कराती हैं और फिर हाथों की कलाओं से ही मुखड़े पर पड़ती धूप की सुनहरे छटा का वर्णन करती हैं तो दर्शक के पास एक ही विकल्प रहता है -> गीत के प्रस्तुतीकरण के जादू में खो जाने का|
आजकल जो दर्जनों सह-नर्तक नायक या नायिका या दोनों के इर्द गिर्द एक जैसा शारीरिक व्यायाम सरीखा करते हैं जो मेकेनिकल लगता है उनकी रोशनी में वी शांताराम के सामूहिक नृत्य प्रदर्शनों में भारतीय शास्त्रीय और पारम्परिक नृत्य शैलियों से बाहर न निकलने की आस्था विचित्र लग सकती है लेकिन जो उनकी शैली को स्वीकार करके उनके गीतों को देखेगा उसके लिए उनके निर्देशकीय तिलिस्म में एक से एक रत्नों का भण्डार मौजूद है|
…[राकेश]
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