हाउस वाइफ बनाम हाउस हसबैंड पर बनी यह फ़िल्म बदलते दौर से कदमताल करती एक समसामयिक फ़िल्म है| अब स्त्री घरेलू ही नहीं रही है बल्कि हर वह काम घर से बाहर कर रही है जिसे पुरुष करते आ रहे थे| ऐसे में स्त्री पुरुष के मध्य के संबंध का डायनामिक्स भी बदला है| अब दोनों के मध्य अहं के प्रकार और उसकी भूमिका भी परिवर्तित हो चुकी है|
“मेरी कमाई से घर चलता है, इस घर की मर्द मैं हूँ” करण जौहर द्वारा निर्देशित फ़िल्म- कभी अलविदा न कहना (2006) में दो में से एक नायिका (प्रीती जिंटा) अपने पति (शाहरुख खान) से कहती है| नायिका के ऐसा कहने और इस तरह का रुख रखने से अंततः दोनों में अलगाव हो जाता है जो कानूनी रूप भी धारण कर लेता है|
पति पत्नी की आपसी व्यावसायिक स्पर्धा पर हृषिकेश मुकर्जी ने एक शानदार फ़िल्म अभिमान बना दी लेकिन उसमें भी घर कौन संभालेगा इस प्रश्न की गुंजाइश नहीं थी|
हॉलीवुड की फ़िल्म क्रेमर वर्सेस क्रेमर की हिन्दी में रीमेक अकेले हम अकेले तुम बनी तो उसमें व्यावसायिक स्पर्धा थी और बच्चे का लालन पालन का प्रश्न ही उठा|
अमिताभ बच्चन की शादी जया भादुड़ी से हुयी तो जया बच्चन ने पहले से साइन की हुयी फ़िल्में ही पूरी कीं, और विवाह के बाद एक दो फ़िल्में ही साइन की होंगी|
जया बच्चन के अनुसार एक दिन जब वे शूटिंग के लिए घर से निकल रही थीं तो उनकी बेटी नन्ही श्वेता ने उन्हें रोका और पूछा कि वे कहाँ जा रही हैं?
काम पर|
जैसा जवाब सुनकर श्वेता ने कहा,” लेट पापा गो, यू स्टे एट होम विद अस“|
जया बच्चन के अनुसार वे छोटी बच्ची के मुंह से ऐसा सुनकर सिहर गयीं और उन्होंने फ़िल्में छोड़ने का निर्णय लिया|
अमिताभ बच्चन की माँ, श्रीमती तेजी बच्चन एक रईस खानदान की उच्च शिक्षित आधुनिक स्त्री थीं लेकिन उन्होंने अपने प्रोफ़ेसर पति के वेतन में अपनी घर गृहस्थी संभाली|
अमिताभ बच्चन को काजोल की सराहना करते पाया जा सकता है जहां वे कहते हैं कि अपने करियर के पीक पर काजोल ने अपने घर परिवार और बच्चों पर पूरा ध्यान देने के लिए फ़िल्में करना छोड़ दिया|
गुलज़ार की आंधी में नायक (संजीव कुमार) नायिका (सुचित्रा सेन), बीवी की तरह घर पर रहकर अपनी गृहस्थी संभालो|
पेप्सिको की वैश्विक हेड रही भारतीय मूल की इंदिरा नूई एक रोचक घटना सुनाती हैं| जिस दिन उन्हें पेप्सिको का प्रेसिडेंट और बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का सदस्य बनाया गया, वे अपने ऑफिस से रात को जल्दी घर गयीं (रात के दस बजे) और गैराज में कार रखने के बाद उन्हें सीढ़ियों पर ही उनकी माँ मिलीं जिन्होंने उन्हें बाज़ार जाकर दूध लाने के लिए कहा|
अपने पति की कार खडी देखकर उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि उन्होंने उससे क्यों नहीं कहा दूध लाने के लिए?
माँ ने कहा, वह थका हुआ है|
घरेलू स्टाफ में से किसी से क्यों नहीं मांगा लिया?
मैं भूल गयी उनसे मँगाना| अब तुम जल्दी से कल के लिए दूध ले आओ|
दूध लाकर इंदिरा नूई ने अपनी माँ से अपने प्रमोशन के बारे में बताया कि मैं इतनी बड़ी सूचना आप लोगों को देने के लिए अपना ऑफिस का काम छोड़कर आयी और आपको मुझसे दूध मँगाना है बाज़ार से?
माँ ने कहा,” तुम चाहे प्रेसिडेंट हो बाहर ऑफिस में या कुछ और, घर में तुम एक बेटी, माँ, पत्नी और बहू हो सो अपने करियर का क्राउन गैराज में टांगकर तब घर में घुसा करो“|
ऐसे पुरुष प्रधान समाजों में की एंड का फ़िल्म का विचार बहुत अच्छा है| वर्तमान जैसे सामाजिक बदलाव बिमल रॉय या हृषिकेश मुकर्जी के सक्रिय कालों में हुए होते तो उन्होंने बेहद प्रभावशाली फ़िल्में इस विषय पर बना दी होती| किशोर कुमार और संजीव कुमार जैसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं के लिए हाउस हसबैंड की रोचक भूमिका निभाना आकर्षक होता और कोई कालजयी फ़िल्म बन कर सामने आती|
वर्तमान में निर्देशक आर बल्कि ने इस विषय पर फ़िल्म बनाई यह एक महत्वपूर्ण बात है, बस इसे वह समुचित गहराई दे पाते तो और अच्छी बात होती| अभी यह इस विषय पर एक सतही फ़िल्म बन कर सामने आयी है|
संक्षेप में नायक (अर्जुन कपूर) , एक अरबपति पिता का इकलौता बेटा है जिसे अपने पिता की धन दौलत और उनका कारोबार संभालने में कोई रूचि नहीं है| वह हाउस वाइफ रही अपनी दिवंगत माँ से बेहद प्रभावित है और उन्हें वह कलाकार मानता है, जबरदस्त तरीके से घर संभालने वाली कलाकार|
नायिका (करीना कपूर) विवाह के शुरुआती सालों में विधवा हो गयी स्त्री (स्वरूप संपत) की इकलौती बेटी है और उसके सामने उसका करियर ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है| वह पूर्णतया महत्वाकांक्षी है|
संयोग नायक नायिका को मिलाकर उनका विवाह करा देते हैं और उनके संयुक्त प्लान के मुताबिक़ नायक हाउस हसबैंड बन कर घर संभालता है और नायिका अपना करियर बनाती है मार्केटिंग में|
नायक आई आई एम से एम बी ए है लेकिन वह पूर्णकालिक हाउस हसबैंड बनकर प्रसन्न है|
नायिका किस रूप में अपने पति का परिचय अपने ऑफिस के सहकर्मियों को देगी?
सो उसे वह लेखक बता देती है जो अपनी किताब लिखने में लगा हुआ है और इसलिए घर पर है|
जाहिर है यह परिचय नायक के लिए अपमान जनक है| उसकी मानसिक व्यथा को देख नायिका को अपने सहकर्मियों से सच बोलना पड़ता है|
धीरे – धीरे नायक के गुणों के कारण उसका हाउस हसबैंड बनना एक विशेष स्थिति बनता जाता है और अपनी व्यावसायिक सफलताओं के बावजूद नायिका उतना नाम और प्रसिद्धि नहीं पा पाती जितना उसका पति घर बैठे पाता जाता है|
नायक की इस उपलब्धि से नायिका के अन्दर ईर्ष्या उत्पन्न होती है| जो उनके रिश्ते को उतार – चढ़ाव से भर देती है|
फ़िल्म कुछ रोचक संवादों से एक युगल की ऐसी स्थिति के माध्यम से कुछ सार्थक बातें उठाती है|
एक महिला आईपी एस जब अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थीं तब उनके पति का एक साक्षात्कार बहुत प्रसिद्द हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि, लोग मेरा त्याग नहीं देख पाते हैं कि मेरा कितना बड़ा योगदान है उनकी उपलब्धियों में| मैंने उनके जूते तक पॉलिश किये हैं|
एक मंत्री बनी स्त्री के उतने ही पढ़े लिखे पति के लगातार अपनी पत्नी की पार्टी के विरुद्ध दिए जाने वाले साक्षात्कारों में कहीं न कहीं यह भाव तो रहा ही होगा कि मैं भी कुछ हूँ, और स्वतंत्र रूप से हूँ|
जेंडर से ज्यादा पति-पत्नी के मध्य संतुलन ही सबसे बड़ी बात है|
बदलते दौर में पुरानी परिभाषाएं टूटती हैं| जिस शानदार तरीके से स्त्री पुरुष को हरेक क्षेत्र में उतनी या उनसे बेहतर गुणवत्ता की योग्यता दिखा रही है और जिस तरह से नौकरियों का डायनामिक्स बदल रहा है उसमें बहुत संभव है कि स्त्री को नौकरी मिल जाए और पुरुष को न मिले और नौकरी पाई काबिल स्त्रियाँ हमेशा ही तो अपने से ज्यादा बड़ी नौकरियां पाए पुरुष से विवाह नहीं कर पाएंगीं| उन्हें जीवनसाथी के रूप में ऐसा गुणी पुरुष भी बहाने लगेगा जो उनको जीवन में हर कदम पर अपना साथ प्रदान करे|
समाज की समझदारी भी बदलेगी|
पंचायत सीरीज में सरकारी स्तर पर पचायंत प्रधान का पद स्त्री वर्ग के लिए आरक्षित कर दिए जाने से पहले के प्रधान को अपनी पत्नी को ही चुनाव में खडा करने पर विवश होना पड़ा| अगर यह काम तभी हो गया होता जब उनका विवाह हुआ था तो उनके घर में भूमिकाएं बदल गयी होतीं|
एक समकालीन महत्त्व के विषय के रूप में इस विषय पर की एंड का जैसी बहुत सी फ़िल्में बनाने की आवश्यकता है जिससे इस जटिल सामाजिक विषय के कई पहलू सामने आ सकें|
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