ओशो बुनियादी तौर पर ही राजनीतिज्ञों के खिलाफ थे और सारी उम्र वे उनके खिलाफ बोलते ही रहे। उन्हें निशाना बनाते रहे। उनके ऊपर चुटकले बनाकर लोगों को शासकों की इस जाति के सामने मानव को आँखें मूँद कर समर्पण न कर देने के लिये चेताते रहे। अगर दुनिया में किसी एक राजेनीतिज्ञ को ओशो ने पसंद किया तो वे प. नेहरु ही थे।
अपने संस्मरणों में प. नेहरु के बारे में ओशो कहते हैं –
… जीवन में पहली बार मैं हैरान रह गया। क्योंकि मैं तो एक राजनीतिज्ञ से मिलने गया था। और जिसे मैं मिला वह राजनीतिज्ञ नहीं वरन कवि था। जवाहर लाल राजनीतिज्ञ नहीं थे। अफसोस है कि वह अपने सपनों को साकार नहीं कर सके। किंतु चाहे कोई खेद प्रकट करे, चाहे कोई वाह-वाह कहे, कवि सदा असफल ही रहता है यहां तक कि अपनी कविता में भी वह असफल होता है। असफल होना ही उसकी नियति है। क्योंकि वह तारों को पाने की इच्छा करता है। वह क्षुद्र चीजों से संतुष्ट नहीं हो सकता। वह समूचे आकाश को अपने हाथों में लेना चाहता है।…
…एक क्षण के लिए हमने एक दूसरे की आंखों में देखा। आँख से आँख मिली और हम दोनों हंस पड़े। और उनकी हंसी किसी बूढ़े आदमी की हंसी नहीं थी। वह एक बच्चे की हंसी थी। वे अत्यंत सुदंर थे, और मैं जो कह रहा हूं वही इसका तात्पर्य है। मैंने हजारों सुंदर लोगो को देखा है किंतु बिना किसी झिझक के मैं यह कह सकता हूं कि वह उनमें से सबसे अधिक सुंदर थे। केवल शरीर ही सुंदर नहीं था उनका।…
…अभी भी मैं विश्वास नहीं कर सकता कि एक प्रधानमंत्री उस तरह से बातचीत कर सकते है। वे सिर्फ ध्यान से सुन रहे थे और बीच-बीच में प्रश्न पूछ कर उस चर्चा को और आगे बढा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे चर्चा को सदा के लिए जारी रखना चाहते थे। कई बार प्रधानमंत्री के सैक्रेटरी ने दरवाजा खोल कर अंदर झाँका। परंतु जवाहरलाल समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने जान बूझ कर दरवाजे की ओर पीठ की हुई थी। सैक्रेटरी को केवल उनकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी।
परंतु उस समय जवाहरलाल को किसी की भी परवाह नहीं थी। उस समय तो वे केवल विपस्सना ध्यान के बारे में जानना चाहते थे।…
…जवाहरलाल तो इतने हंसे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। सच्चे कवि का यही गुण है। साधारण कवि ऐसा नहीं होता। साधारण कवियों को तो आसानी से खरीदा जा सकता है। शायद पश्चिम में इनकी कीमत अधिक हो अन्यथा एक डालर में एक दर्जन मिल जाते है। जवाहरलाल इस प्रकार के कवि नहीं थे—एक डालर में एक दर्जन, वे तो सच में उन दुर्लभ आत्माओं में से एक थे जिनको बुद्ध ने बोधिसत्व कहा है। मैं उन्हें बोधिसत्व कहूंगा।…
…मुझे आश्चर्य था और आज भी है कि वे प्रधानमंत्री कैसे बन गए। भारत का यह प्रथम प्रधानमंत्री बाद के प्रधानमंत्रियों से बिलकुल ही अलग था। वे लोगों की भीड़ द्वारा निर्वाचित नहीं किए गए थे, वे निर्वाचित उम्मीदवार नहीं थे—उन्हें महात्मा गांधी ने चुना था। वे महात्मा गांधी की पंसद थे।
और इस प्रकार एक कवि प्रधानमंत्री बन गया। नहीं तो एक कवि का प्रधानमंत्री बनना असंभव है। परंतु एक प्रधानमंत्री का कवि बनना भी संभव है जब वह पागल हो जाए। किंतु यह वही बात नहीं है।
तो मैं ने सोचा था कि जवाहरलाल तो केवल राजनीति के बारे में ही बात करेंगे, किंतु वे तो चर्चा कर रहे थे काव्य की और काव्यात्मक अनुभूति की।…
~ स्वर्णिम बचपन / Glimpses of Golden Childhood
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