वो कमसिन हैं उन्हें मश्क़-ए-सितम को चाहिए मुद्दत
अभी तो नाम सुन कर ख़ंजर-ओ-पैकाँ का डरते हैं
[~ हाज़िक़]

ओटीटी के भारत में पैर जमाने से दो अच्छे काम सिनेमा के माध्यम में हुए, एक तो बचपन को समाहित करने वाली श्रंखलायें बनीं, हालांकि उनकी संख्या अभी भी बहुत कम है, दूसरे, किशोरावस्था और युवावस्था की शुरुआती अवस्था की कहानियां भरपूर मात्रा में श्रंखलाओं का आधार बन रही हैं| किशोरावस्था और युवावस्था का प्रेम हर उस श्रंखला में उपस्थित है जहाँ भी 14-22 साल के युवा चरित्र कहानी के केंद्र में हैं, भले कहानी स्कूल, कॉलेज या कोचिंग सेंटर्स में स्थित हो|

जिस तरीके से किशोर संसार में मानसिक विचलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि किशोरों के जीवन से जुड़ी ज्यादा से ज्यादा कहानियों को फिल्मों और वैब श्रंखलाओं में जगह मिले| कितने मुद्दे होते हैं जिनमें किशोर अपने माता पिता या घर के अन्य वरिष्ठ सदस्यों से बातचीत नहीं कर पाते| हर परिवार का माहौल भी अलग होता है और देश में नीतिगत स्तर पर इन मसलों पर कुछ भी परिभाषित नहीं है विकसित पश्चिमी देशों की तरह| स्कूल-कॉलेज भी किशोरों की सहायता बहुत नहीं कर पाते, अधकचरे ज्ञान के साथ व्यावसायिक कारणों से शिक्षा संस्थानों से जुड़े हुए काउंसिलरों की जमात अपवाद स्वरूप ही किशोरों की समुचित सहायता कर पाती है| जिस बंधे ढ़र्रे से वे उनके मामलों को संभालने का प्रयास करते हैं वे नाकाफी हैं|

माता-पिता और बड़ों के सन्दर्भ में भी यही सत्य है कि भले वे बच्चों को बड़ा होते हुए देखें लेकिन पुरानी पीढ़ी सौ प्रतिशत कदमताल नई पीढ़ी के साथ नहीं कर सकती| बहुत कुछ ऐसा होता है जो पुरानी पीढ़ी की रेंज से बाहर का होता है और नई पीढ़ी के बदलाव ऐसे में पुरानी को गिरावट के प्रतीक ही लगते हैं| पुरानी पीढ़ी के लिए बच्चों और किशोरों के जगत की बहुत सी बातें अनजानी ही रहती हैं, ऐसे में उनके लिए भी अच्छा है कि साहित्य और सिनेमा बचपन और किशोरावस्था को ज्यादा ज्यादा से खंगाले|

ऐसा करने में जो एक सीमितता आती है वह है साहित्य लिखने और सिनेमा बनाने वाले अपने बचपन और अपनी किशोरावस्था की कहानियां ही प्रस्तुत करते हैं तो एक तरह से वह रचा हुआ भी वर्तमान के बचपन और किशोरावस्था का प्रतिनिधि नहीं होता लेकिन कुछ न होने से होना बेहतर होता है| बच्चे और किशोर इतना सन्देश तो अपने साथ रख ही लेते हैं कि उनसे पहले के जमाने में भी बचपन और किशोरावस्था में समस्याएं होती थीं और उन्हें पार करके ही आज के वयस्क यहाँ तक आये हैं जहाँ वे दिखाई दे रहे हैं|

किशोर संसार बेहद नाजुक अवस्था का संसार है| न वे परिपक्व हुए होते हैं और न ही अपने शारीरिक और मानसिक बदलावों को पूर्णतया समझ पाते हैं लेकिन उन बदलावों को महसूस अवश्य कर पाते हैं, सो जानते हैं कि वे अब अवयस्क नहीं रहे और बचपन को छोड़ आयु की अगली अवस्था में कदम रख रहे हैं| बहुत सी मानसिक उलझनें उनके सामने आती हैं जहाँ उन्हें समझदारी से भरे सुझावों की आवश्यकता होती है| ऐसे में निजी गुण वाले साथीगण ही उनके सबसे नजदीकी सहायक सिद्ध होते हैं और ऐसे में साहित्य, फ़िल्में और वैब श्रंखलायें उन्हें अपने जैसे जगत के दर्शन करा कर उनमें यह भाव भर सकती हैं कि दुनिया में बहुत से किशोर उनके जैसी अवस्थाओं से गुज़र रहे हैं, और वे दूसरों के जीवन और उनकी उलझनों को देख अपने जीवन को संभाल सकते हैं|

लगभग 17 साल का लड़का मुरली (कृष राव) जो इतने बरस रतलाम में बिताने के कारण, अपने पिता के पटना आकर बसने से नाराज़ है क्योंकि उनके इस कदम से उसे अपने बचपन के दोस्त, जाना पहचाना स्कूल और परिवेश छोड़कर यहाँ आना पड़ा है| किशोर बुद्धि वापिस पुराने शहर जाने के लिए तड़प रही है और भावनाओं पर अनियंत्रण उसे मूर्खता का कदम उठाने पर विवश कर देता है|

जीवन सदा जीते हुए व्यक्ति से उसी के सामने क्या आने वाला है इन बातों को छिपा कर रखता है| सुबह के धुंधलके में जब सूर्योदय हुआ नहीं है, उसे पटना में ठहरने का एक कारण मिल जाता है|

पुराने दोस्तों के लिए परेशान मन को ठौर मिल जाता है अनायास सामने आ गयी एक हमउम्र लडकी से मुलाक़ात में और उसका जीवन के इस पहलू से भी परिचय हो जाता है जिसे पहली नज़र का प्रेम कहा जाता है|

शबाब नाम है उस जाँ-नवाज़ लम्हे का
जब आदमी को ये महसूस हो जवाँ हूँ मैं (~अख़्तर अंसारी)

लड़की को अपने ही स्कूल में अपनी ही कक्षा में देख मुरली की आँखें उसके प्रति घोर आकर्षण में पड़े अपने दिल की चमक के सम्मोहन में स्वप्निल हो जाती हैं| वह प्रेमाकर्षण ही क्या जो एक किशोर के पाँव तले से होश का कालीन न खींच दे|

लड़की का नाम है नंदिनी (अरिस्ता मेहता) और वह तो मुरली के पिता के अधिकारी की ही बेटी नहीं वरन उसके दादा जी ने ही मुरली के पिता को रतलाम से पटना बुलवाया है और मुरली का एडमिशन शहर के सबसे नामी गिरामी स्कूल में करवाया है| साधारणतया तो होना तो यह चाहिए जमाने के दस्तूर के अनुसार कि इतने एहसानों के नीचे दबे अपने पिता को देख, और दोनों परिवारों की आर्थिक स्थिति में बहुत बड़ा अंतर देख, मुरली जी अपने एकतरफा प्रेम आकर्षण पर अंकुश लगा पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दें, लेकिन मुरली की दैनन्दिनी ही नंदिनी की दिनचर्या से बंध जाती है|

किस तरह जवानी में चलूँ राह पे नासेह
ये उम्र ही ऐसी है सुझाई नहीं देता
(~आग़ा शाएर क़ज़लबाश)

दोनों परिवारों के बीच का आर्थिक अंतर, सामजिक स्थितियां और जातिगत विभिन्नता जैसी समस्याएं मुरली के प्रेमाकर्षण की राह का रोड़ा बनने सामने आती हैं लेकिन कभी मुरली के धैर्य और कभी नंदिनी के स्वभाव के कारण मुरली इन सब बाधाओं की नदी पार कर नंदिनी के बेस्ट फ्रेंड होने के स्थान को प्राप्त कर लेता है| उसे लगता है कि बेस्ट फ्रेंड होने के बाद बॉय फ्रेंड होने की मंजिल तो वह आसानी से तय कर लेगा लेकिन यह स्थिति उसे बहुत बड़े बड़े उतार चढ़ाव के रास्तों पर चलाती है|

युवावस्था में ही भावनाओं का खेल भयंकर सिद्ध होता है व्यक्ति के लिए फिर किशोरावस्था में तो स्थितियां स्थायी लगती हैं और पल में तोला पल में माशा वाली मनोस्थिति से किशोर गुजरते हैं| जिनसे दिल का जुड़ाव है उनकी बातें दिलों दिमाग में ज्वार भाटा उठाती रहती हैं|

16-18 के बीच की आयु के जीवन को यह श्रंखला पूरी दक्षता से प्रदर्शित करती है| मुरली के चरित्र की आत्मकथात्मक प्रस्तुति के रूप में प्रदर्शित किशोर जीवन के बहुत से पहलुओं को सफलतापूर्वक दिखा जाती है| 40 किस्तों में फैली सीज़न 1 की सामग्री कुछ ज्यादा कसे हुए संपादन से और बेहतर प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी, लेकिन वैब श्रंखलाओं में इनके रचियता कसावट को अक्सर ही नज़रंदाज़ कर देते हैं और विस्तार की ओर ध्यान ज्यादा देते हैं|

श्रंखला किशोर भावनाओं के संसार को पूरी दक्षता से प्रस्तुत करती है और कहीं कहीं तो फीचर फिल्मों से बेहतर सामग्री इसमें दिखाई देती है| किशोरों की आपसी मित्रता, जलन, नापसंदगी, स्नेह, और भाई-बहन के मध्य के रिश्ते की खट्टी मीठी झलकियाँ, माता-पिता और संतान के मध्य के रिश्ते, दादा की पीढ़ी और नई पीढ़ी के मध्य के रिश्ते, भली भांति उभर कर सामने आते हैं| संयुक्त परिवार में प्याज के छिलकों की भाँति परत-परत अलग अलग भाव उपस्थित रहते हैं और यह सब भी श्रंखला कुशलता से दिखा पाती है| एक महत्वाकांक्षी माँ अपनी संतान को महत्वाकांक्षा के मार्ग पर चलाना चाहती है जबकि एक माँ का सुख इसमें है कि उसकी संतान उसके पास ज्यादा से ज्यादा रहे|

अतिशयोक्तियाँ भी उपस्थित हैं श्रंखला में लेकिन कुल मिलकर किशोर संसार को श्रंखला कुशलता से दिखा पायी है|

यूं तो मुरली, नंदिनी और विक्रम (जेम्स घाडगे),के प्रेम त्रिकोण पर श्रंखला आधारित है लेकिन इसमें मुरली के दो संबंध, उसकी दीपू (सचिन कवेथम) से गहरी दोस्ती और मुरली का अपनी छोटी बहन सलोनी (अक्षरा पडवाल) से संबंध, भी केंद्र में आ जाते हैं और इस करतब में सचिन और अक्षरा के बेहतरीन अभिनय की बहुत बड़ी भूमिका है| भावनाओं को दर्शाने में कभी कभार कृष राव, अरिस्ता मेहता और जेम्स घाडगे, अधिकता या कमी का शिकार नज़र भी आते हैं लेकिन सचिन कवेथम और अक्षरा पडवाल पूरे सुर में रहकर अभिनय करते नज़र आते हैं| अभिनय की गहराई की दृष्टि से वे दोनों ही इस श्रंखला के पहले सीज़न के विजेता हैं भले उनके चरित्र केन्द्रीय भूमिका में न भी हों| ये दोनों ही मुरली के चरित्र को विश्वसनीयता और गहराई प्रदान करते हैं|

प्रेम की दुनिया में नंदिनी के सामने अपने एकतरफा प्रेम का प्रदर्शन न कर सकने वाला मुरली, मानसिक तनाव से दूर रहने की वजह से पटना छोड़ दिल्ली उस वक्त्त जाता है जब नंदिनी को उसकी उपस्थिति की बेहद आवश्यकता है| मुरली को दिखाई दे रहा है अब वह पटना में बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन कर रहेगा| बेस्ट फ्रेंड होना उसकी मंजिल कभी भी नहीं था यह उसके लिए एक साधन मात्र था नंदिनी का बॉय फ्रेंड बन जाने का, पर उसका सोचा हुआ यथार्थ में नहीं बदलता तो उसके लिए वहां से हट जाना ही श्रेष्ठ विकल्प ठहरता है|

कम-सिनी में तो हसीं अहद-ए-वफ़ा करते हैं
भूल जाते हैं मगर सब जो शबाब आता है
(~अनुराज़)

पहले सीज़न में कुछ साल बाद की एक झलक दिखाकर दूसरे सीज़न के प्रति उत्सुकता बढ़ा दी गयी है| दूसरा सीज़न अब नवयुवा पीढ़ी के संसार को दिखाएगा, जहाँ कुछ टूटे हुए दिलों की दास्ताँ और इस बीच वास्तविक जगत में कुछ उपलब्धियां और जो मिल न सका उसका दुःख पसरा मिलेगा| क्या अलग हो गयी राहें फिर से मिल पाएंगी किसी मोड़ पर?

…[राकेश]


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