पिछली सदी के आख़िरी दशक के मध्य में आबू धाबी में हिन्दी अध्यापन के माध्यम से जीविकोपार्जन करते और लगातार लेखन के माध्यम से जीवन को रचनात्मक सृजन की ऊर्जा से सींचते कृष्ण बिहारी छुट्टियों में भारत आये तो दिल्ली में प्रसिद्द पत्रिका हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव से मिलने अंसारी रोड, दरियागंज स्थित हंस के कार्यालय चले गए|

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कृष्ण बिहारी : एक संक्षिप्त परिचय

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कृष्ण बिहारी देश में आपातकाल लगने से पहले से ही लेखन के क्षेत्र में सक्रियता से उतर चुके थे| पहली कविता और कहानी उन्होंने हाई स्कूल करते हुए ही लिख ली थीं और बारहवीं कक्षा तक आते आते उनकी रचनाएं हिन्दी साहित्य की नामी पत्रिकाओं और दैनिक समाचार पत्रों में छपने भी लगी थीं| स्नातक और परा-स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही पत्रकारिता भी शुरू कर दी| जीवन में ‘जो आये उसे प्राकृतिक रूप से स्वीकार करो‘ के सिद्धांत के अंतर्गत उनके जीवन में गहन प्रेम का आगमन हुआ तो उसके साथ जीवन में उतार चढ़ाव भी आये और प्रेम-गली में विचरण के निजी अनुभव से लबालब भरे होने के कारण उन्होंने प्रेमकहानियों पर आधारित एक पूरी श्रंखला – मेरी मोहब्बत दर्दे ज़ाम, लिख डाली जो खासी चर्चित हुयी| सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, कादम्बिनी जैसी प्रसिद्द पत्रिकाओं में उनका लेखन स्वीकृति पा रहा था|

ऑर्डिनेंस फैक्ट्री, अर्मापुर, कानपुर में रहते हुए उन्होंने जीवन के तमाम रंग देखे और उस जीवन की झलकियाँ उनकी कई कहानियों में बिखरी हुयी हैं| बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा में बहुत सारी घटनाओं और जीवन में आये व्यक्तियों (साधारण और नामचीन) पर विस्तार से लिखा|

कानपुर में रहने के दौरान ही देश की प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुयी सिख विरोधी हिंसा को देख विचलित होकर उन्होंने “यह क्या हो गया देखते देखते” लिखा और अपनी आँखों देखे को आसवित कर एक कहानी – एक सिरे से दूसरे सिरे तक, लिखी| तात्कालिक घटनाओं पर आधारित उनका लेखन हार्डहिटिंग श्रेणी में आता है, जिसे पढ़कर पाठक दो बातों से स्तब्ध रह जाता है| पहली तो यह कि क्या ऐसा भी हो चुका, और दूसरी, कि कैसे कोई लेखक इस नग्न रूप में सच को बयान कर सकता है?

मुज़फ्फरपुर के रेड लाइट एरिया में देहव्यापार करती स्त्रियों के जीवन पर उन्होंने – घूँघरू टूट गए, शीर्षक से एक श्रंखला लिखी| जीवन के बहुत से पहलुओं पर उन्होंने लिखा| यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि एक बेहद अनुभव संपन्न जीवन उन्होंने जिया है इसलिए उनके कथा संसार में उनके चरित्रों में बहुत ज्यादा विविधता मिलती है| इन अनुभवों के कारण वे लेखक बने या एक लेखकीय दृष्टि प्राकृतिक रूप से पाने के कारण जीवन के अनुभवों का विश्लेषण वे गहराई से और भिन्नता से कर सके, यह एक जटिल प्रश्न है| इतना तो स्पष्ट ही है कि जीवन जीने और जीवन से प्राप्त अनुभवों के आधार पर, अपनी कल्पना का समावेश कर लिखने में अपनी पूरी उर्जा अर्पित कर देते हैं| न वे जीने में कोई कसर छोड़ते हैं न लिखने में|

कानपुर छोड़ सिक्किम में अध्यापन करने चले गए तो संयोग से वहां रहते हुए एक दिन राज बब्बर और स्मिता पाटिल से मुलाक़ात हो गयी, वे दोनों किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए वहां आये थे| उन्होंने दोनों के साक्षात्कार ले लिए| स्मिता पाटिल से बातचीत में उनकी सादगी और शख्सियत से प्रभावित हो उन्होंने स्मिता पाटिल के ऊपर एक कविता लिखी| कुछ समय बाद स्मिता पाटिल के आकस्मिक निधन की सूचना मिली तो उनके निधन से उपजे दुःख को भी उन्होंने एक कविता रच कर स्मिता पाटिल को निजी श्रद्धांजलि अर्पित की

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अस्सी के दशक के मध्य के बाद कृष्ण बिहारी, आबू धाबी में नौकरी करने गए| विदेश प्रवास से भारत में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन का सिलसिला कुछ धीमा पड़ा होगा|

ग्रीष्मकालीन अवकाश में भारत आने पर सन 1995 में वे हंस के दफ्तर में राजेन्द्र यादव से मिलने पहुंचे| जीवन, साहित्य और लेखन के वृहद विषयों पर होती बातचीत के बीच में ही राजेन्द्र जी ने उनसे उनके उस वक्त के लेखन के बारे में पूछताछ की|

कृष्ण बिहारी जी के पास एक नई लिखी कहानी थी, उन्होंने वह निकाल कर राजेंद्र जी के सामने रख दी|

राजेंद्र जी ने सरसरी तौर पर निगाह मारनी शुरू की लेकिन फिर कहानी ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उसे पूरा पढ़ा और पूछा, यह कहीं छपने तो नहीं दी| न, सुनने के बाद राजेन्द्र जी ने कहा, कुछ कहानियों को रोक कर मैं तुम्हारी यह लम्बी कहानी हंस के अगले अंक में छाप रहा हूँ| मुझे पता है मुझे बहुत गालियाँ पड़ेंगी, इसे छापने के लिए| पर इसे छापूंगा अवश्य|

राजेन्द्र यादव ने हंस के अक्तूबर 1995 के अंक में इस कहानी को छापा और छपते ही इस कहानी ने हंगामा मचा दिया| बहुत से लोग और लेखकगण अश्लील कह कर कहानी और हंस के पीछे पड़ गए|

प्रसिद्धि और कुख्याति एक साथ पाने वाली यह कहानी थी “दो औरतें“|

अगले वर्ष 1996 में प्रसिद्द रंगकर्मी प्रो. देवेन्द्र राज अंकुर, जो एन एस डी (नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा) के निदेशक भी रहे, ने इस कहानी पर आधारित नाटक का मंचन किया|

इस कहानी के ख्याति और कुख्याति के बीच डोलते अस्तित्व ने कृष्ण बिहारी जी के कथा संसार को बार बार प्रभावित किया है|

मनोविज्ञान के धरातल पर बसी इस कहानी का सटीक साहित्यिक मूल्यांकन होना अभी शेष रहता है| देश,काल वातावरण कैसे किसी कहानी को प्रभावित करते हैं, यह इस कहानी में भरपूर देखा जा सकता है| वर्तमान में यह मोबाईल और इन्टरनेट के आगमन से पूर्व के काल की कहानी है, इसके चरित्र भारत में उदारीकरण आरम्भ होने से पूर्व के काल में स्थापित हैं|

जर्मनी जाने वाली उड़ान स्थगित किये जाने से, नई उड़ान का प्रबंध एयरलाइन द्वारा किये जाने से पूर्व, दिल्ली में ही ठहरने पर विवश एक 35-40 साल के व्यक्ति, जो अकेला यात्रा कर रहा था, के 24-36 घंटों के बीच की अवधि के जीवन की यह कहानी अपने उतार चढ़ाव के कारण पाठक को ढंग से साँस भी नहीं लेने देती क्योंकि हर दृश्य या विवरण उसकी उत्सुकता को बढाता चला जाता है कि अब आगे क्या होगा? मध्यवर्गीय नायक के लिए जीवन में यह पहला ही मौका है भारत में किसी फाइव स्टार होटल में ठहरने का|

एक अकेला पुरुष, जिसे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि अगर एयर लाइन इंतजाम कर रही है ठहरने का तो वह कल की उड़ान से भी जा सकता है, ऐसी परिस्थितियों में सहयात्रियों की भीड़ में एक सबसे खूबसूरत महिला को देख सोचने लगता है कि काश यह भी होटल में रुके| उस समय उस जगह अकेले पुरुष की स्वाभाविक मनोस्थिति और इच्छा को कहानी शुरू से ही पूर्ण नग्नता में प्रस्तुत करती है| सुन्दर स्त्री का ठिकाना दिल्ली में है अतः वह वापिस लौट जाती है, नायक को तनिक अफ़सोस करने की स्थिति में छोड़कर| हालांकि आवश्यक नहीं कि अगर वह स्त्री होटल एकोमोडेशन ले लेती तो नायक उससे बात कर ही लेता| यह बस ऐसी परिस्थितियों में खाली दिमाग की एक खुरापाती इच्छामात्र ही थी| लेकिन यह प्रसंग बहुसंख्यक पुरुषों की मानसिकता का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है| शायद यह भी एक कारण रहा हो कि लोग इस कहानी के पीछे पड गए थे, कि कैसे कोई लेखक ऐसे पुरुष वर्ग के सोच विचार को सार्वजनिक रूप से आवरणहीन रूप में प्रस्तुत कर सकता है?

होटल की पांच सितारा सुविधाओं से भरे जीवन में नायक के जीवन में पहली घटना अवतरित होती है, एक बीस-इक्कीस साल की नवयुवती के रूप में| नायक को उसके पहले दर्शन से स्पष्ट है कि युवती देह व्यापार का प्रतिनिधित्व करती है| लेकिन अकेलेपन और जर्मनी अपने घर लौटने की अस्पष्टता से जूझता नायक स्वंय पहल कर युवती से संवाद स्थापित करता है|

ताम्बई रंग की त्वचा की स्वामिनी खूबसूरत युवती का नाम सक्रांति है| नायक स्वंय ही सक्रांति को अपने होटल प्रवास की अवधि में कुछ समय उसके साथ व्यतीत करने के लिए आमंत्रित करता है, जिसे थोड़ी देर पहले एक असहज स्थति का सामना करने से परेशान, सक्रांति स्वीकार कर लेती है|

क्या नायक अकेला है, और उसे यहाँ कोई नहीं जानता इसलिए वह ऐसा एडवेंचर कर सकता है, इस नाते इस अनुभव में प्रवेश करता है? उसके जीवन में अभी तक देह व्यापार से जुडी किसी स्त्री से बात करने तक का अनुभव नहीं है| यह बात सक्रांति उससे दो चार मिनट बात करके ही बता देती है| घटनाएं इतनी तेजी से घटती हैं कि पाठक अपेक्षा भी नहीं कर सकता और न पूर्वानुमान ही लगा सकता कि आगे के अंश में यह होगा| बहुसंख्यक पाठकों के पूर्वानुमानों को हर दो तीन पंक्तियों के बाद धवस्त करते हुए कहानी आगे बढ़ती है|

संवाद किस कदर निर्मम हो सकते हैं, उसकी दो बानगियां देखें –

(1)

सक्रांति – चीयर्स! एक ऐसे अजनबी के नाम, जो मेरा ग्राहक नहीं है|

नायक – इसका क्या अर्थ है?

सक्रांति- यही कि तुम मेरे लिए मेरे ग्राहक नहीं हो|

नायक – तो मैं कौन हूँ?

सक्रांति- तुम एक ऐसे आदमी हो जिससे मैं अचानक टकरा गयी| ऐसा आदमी जो मेरे व्यवसाय के बारे में कुछ नहीं जानता| तुम्हारी जगह कोई ग्राहक होता न तो न जाने अब तक कितनी मूर्खता की बातें कर चुका होता| ईमानदारी से कहूँ तो तुम पहले आदमी हो जिसने आदर्शवाद की बातें मुझे नहीं सुनाईं| ज्यादातर लोग ऐसी ही बातों से शुरू करते हैं कि मैं कितनी अच्छी हूँ, मैं इस धंधे में कैसे आ गयी? मुझे कोई और काम करना चाहिए| मुझे शादी कर लेनी चाहिए| कुछ तो इतना आगे बढ़ जाते हैं कि मुझे उनसे शादी कर लेनी चाहिए. वे बाद में संपर्क करने के लिए मुझसे मेरा पता पूछते हैं|

क्रोधित स्वर में सक्रांति आगे कहती है – कैसी मूर्खता की बातें हैं ये सब| अरे अपना काम निबटाओ जिसके लिए तुम मेरे पास आये हो| मेरे पास धैर्य नहीं है ऐसे नकली समाज सुधारकों की बकवास सुनने का| अच्छा तुम क्या सोचते हो इसके बारे में?

नायक – मेरे लिए यह एक अजीब स्थिति है| सुबह एलीवेटर में मैं तुम्हें उस विदेशी के साथ उस अवस्था में न देखता तो मैं तुमसे कुछ न कहता| मेरा मानना है कि कोई भी स्त्री बिना किसी कारण के अपनी देह का सौदा नहीं कर सकती| ऐसा करने के पीछे कोई भी कारण हो सकता है|

सक्रांति मुस्करा कर पूछती है – जैसे?

नायक – कोई भी निजी कारण हो सकता है, आर्थिक या पारिवारिक समस्याएं| लेकिन मैं तुम्हारी भावनाओं और निजी जीवन के बारे में बात नहीं करना चाहता| विदेशी आदमी के साथ तुम्हें देखकर और उसके बाद घटित को देख मेरी इच्छा तुमसे बात करने की हुयी तो मैंने की| बस इतनी सी बात है|

सक्रांति- इससे क्या अंतर पड़ेगा अगर तुम मेरे बारे में ज्यादा जान लोगे?

नायक – अंतर पड़ता है| भावनाएं हमारे बीच के संबंध को प्रभावित कर देती हैं| अगर हम केवल एक दिन भी बिना किसी संबंध के बिता सकते हैं तो वह दिन यादगार बन सकता है|

सक्रांति – तो हमारे बीच कैसा संबंध है?

नायक – तुम्हीं ने तो कहा अभी थोड़ी देर पहले – मैं एक अजनबी हूँ और तुम्हारा ग्राहक नहीं हूँ| यदि इससे अलग कोई संबंध हो तो तुम ही बताओ|

सक्रान्ति- नहीं! और कोई संबंध नहीं है|

(2)

सक्रांति – अगर वहां तुम्हारी पत्नी को पता चले कि यहाँ तुम क्या कर रहे हो तो उसे कैसा लगेगा?

नायक – उसे कौन बतायेगा?

सक्रांति – पर अगर वह भी यही करे वहां, तुम्हारी अनुपस्थिति में?

नायक- क्या वह मुझे बतायेगी?

सक्रांति – शायद नहीं|

नायक- हम सब अपनी अपनी कमजोरियों के साथ जीते हैं, प्यार करते हैं| हम अपनी कमजोरियां साझा नहीं करते, अगर हम विश्वास की खातिर एक दूसरे को अपनी कमजोरियां बताने लगें तो जाने कितने रिश्ते मर जाएँ|

सक्रांति – तुम सही कहते हो, हम सब झूठ के साथ रह सकते हैं लेकिन सच के साथ जी पाना बहुत मुश्किल होता है|

नायक – छोड़ो इन बातों को| सच और झूठ की बातों में समय क्यों नष्ट करना

आदर्शवाद से भरा नायक, ऐसी परिस्थितियों में भी निर्णय तो आदर्शवाद और अपने सीधे सादे स्वभाव के वशीभूत होकर लेता है लेकिन बाद में अकेलेपण से जूझते हुए जब समय व्यतीत करना भारी हो जाता है तो उसे अपने ही ओढ़े हुए आदर्शवाद पर गुस्सा आने लगता है| और ऐसे में उसे इच्छापूर्ति हेतु एक और प्रस्ताव मिलता है|

इस बार होटल के उसके कमरे पर दस्तक होती है और वह दरवाजा खोलता है तो खजुराहो के मंदिरों की बाहरी दीवारों पर अंकित अप्सरा सी स्त्री उसके सामने खड़ी मिलती है| उसका शारीरिक सौंदर्य नायक के होश उड़ा ले जाता है|

DÉJÀ VU के अंदाज़ में वह पीछे 12 घंटों में घटी स्थितियों को पुनः जीने के कगार पर खड़ा है| पर प्रकृति से मिले अपने स्वभाव का वह क्या करे? कहा जाता है इतिहास अपने आप को दुहराता है| इस कहानी में तो 24 घंटों के अन्दर ही एक बार घटित स्थितियां पुनरावृत्ति करने आ जाती हैं|

भगवती चरण वर्मा की प्रसिद्द कहानी – वसीयत, के नायक- जनार्दन जोशी को ही हिन्दी साहित्य में “दो औरतें” के नायक जैसा माना जा सकता है| वसीयत में जिस अंदाज़ में और जो बातें तोता जनार्दन जोशी से कहता है, वैसे ही स्वभाव की बातें “दो औरतें” का नायक स्वंय से कहकर गहरी नींद में खो जाने के लिए बिस्तर पर ढेर हो जाता है| नींद खुलती है एयरलाइन्स द्वारा कॉल करने से कि कुछ ही घंटों में उसकी उड़ान है जर्मनी जाने के लिए|

इच्छाओं और आदर्शवाद की तात्कालिक जंग, उसमें लिए गए निर्णय, उन निर्णयों पर थोड़ी देर का संतोष, और फिर उन्हीं निर्णयों को मूर्खतापूर्ण मान, अन्दर जन्मी कुंठा और उस कुंठा में पुनः इच्छाओं के वशीभूत हो, पहले जैसी स्थितियों में खुद को डालने, फिर से कुछ निर्णय लेने, जिसके बारे में पता है कि यह निर्णय कुछ ही देर में कुंठित करने लगेगा, के मिश्रित भावों के बीच घिरे नायक के मनोविज्ञान को कहानी ने बहुत गहराई से खंगाला और प्रस्तुत किया है| इच्छाओं और उनका दमन, उस दमन से जन्मी कुंठा और फिर सभी कुछ जानते हुए भी पुनः आदर्शवाद के ही वाहन पर सवार होकर यात्रा करवाने से कहानी एक मनुष्य की अंदुरनी गठन को उभारती है और इस कंडीशनिंग के सभी पहलुओं को कई कोणों से विश्लेषित करती है| उस लिहाज से हिन्दी साहित्य की यह एक अनूठी कहानी है|

एक शानदार फ़िल्म बनाने के लिए यह एक बेहद रोचक कथा है|

…[राकेश]


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