अदब आमोज़ है मयखाने का जर्रा-जर्रा
सैंकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना
इश्क पाबंदे वफा है न कि पाबंदे रसूम
सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना।
बड़ा फर्क है सम्प्रदाय, जिसे लोग गलती से धर्म भी कहने लगते हैं, के कर्मकांडों आदि का बड़ी शिद्दत से पालन करने और सच्चे रुप में धार्मिक होने में। बड़ा भारी फर्क है आध्यात्मिक होने और पूजास्थलों और इबादतगाहों के चक्कर बड़ी श्रद्धा से लगाने में। धार्मिक या आध्यात्मिक व्यक्ति तो हो सकता है कि न कभी पूजा करे, न नमाज पढ़े न धार्मिक स्थलों के चक्कर ही लगाये। उसे फिक्र ही नहीं है कि मूर्ति वाला या निराकार ईश्वर ऐसा न करने से उससे नाराज हो जायेगा। धार्मिक या आध्यात्मिक व्यक्ति किताबी परिभाषाओं से जीवन व्यतीत नहीं कर सकता उसे विश्वास होता है कि जीवन पल पल बदल रहा है और पुराने तौर-तरीके ज़िन्दगी द्वारा उठाये गये नये से नये सवालों का समाधान नहीं दे सकते। उसे तो त्वरित और तात्कालिक जवाब देने वाली चेतना से सम्पन्न विवेकशील बुद्धि पर विश्वास होता है।
किताबे बुद्धि विकसित करने में तो सहायक हो सकती हैं परन्तु किसी भी सम्प्रदाय की कोई भी पुस्तक, चाहे उन्हे कितना भी आदर क्यों न दिया जाता रहा हो, धरती पर हरेक मनुष्य की समस्याओं का हल बताने में असमर्थ हैं। जीवन निरंतर विस्तार पा रहा है तब कैसे सैंकड़ों और हजारों वर्ष पूर्व जन्मी और विकसित हुयी किताबी परिभाषायें हर हाल में नये मनुष्य को सटीक सुझाव दे सकती हैं? कुछ बुनियादी बातें हर युग के मानव के साथ रहती हैं और उन बुनियादी बातों में जरुर ऐसे ग्रंथ, जिन्हे धर्म-ग्रंथ भी कहा जाता है, सहायक सिद्ध हो सकते हैं और कुछ मामलों में होते भी हैं।
असल बात है विवेक का जाग्रत होना। अगर विवेक जाग्रत है तो व्यक्ति दूसरे इंसानों पर अत्याचार नहीं कर पायेगा।
किताबी परिभाषाओं से सजे-संवरे लोग अक्सर भेद-भाव का पालन करने लगते हैं। कुछ ऐसा जानबूझ कर करते हैं कुछ अनजाने ही इन सब ऋणात्मक बातों का पालन करने लगते हैं। कर्मकांडों के पिछलग्गू बनकर लोग मानव-मानव में ही अंतर करने लगते हैं और सम्प्रदाय सम्बंधी अपनी परिभाषाओं को दूसरों पर थोपने लगते हैं। उन्हे भीड़ बढ़ानी होती है उस सम्प्रदाय के लिये जिसके वे अनुयायी होते हैं। ऐसा करने से ही उन्हे बल मिलता है, विश्वास मिलता है।
नहीं है ज़िंदगी से बड़ा कोई शिक्षक
नहीं है समय से बड़ा कोई न्यायधीश
नहीं है प्रेम के त्याग से बड़ा कोई त्याग
ज़िंदगी आदमी के द्वारा खींची गयी सीमाओं से निर्धारित नहीं होती, यह मानव द्वारा परिभाषित व्याख्याओं में समाने वाली सीमित आकार वाली चीज नहीं है। यह तो पल-पल नये रुप रखकर आदमी के जीवन के साथ लीला खेलती रहती है और उसे खेलने के लिये विवश करती रहती है।
भावना तलवार द्वारा निर्देशित उनकी पहली ही फिल्म पूरी तरह से भारतीयता में पगी हुयी है। यह देखना सुखद है कि जब नब्बे प्रतिशत हिन्दी फिल्मों का भारतीय समाज से कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि वे बाहर की फिल्मों की डीवीडी देखकर लिखी और बनायी जाती है, एक महिला निर्देशक अपनी पहली ही फिल्म में इतना बड़ा बीड़ा उठा लेती हैं कि अपनी फिल्म के कथानक को को बनारस जैसे हिन्दू सम्प्रदाय के गढ़ में स्थित करती हैं और ब्राह्मणवाद को खंगालती हैं और उचित ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवाद के नाम पर चल रहे पाखंड को गहराई से उजागर करती हैं।
फिल्म न केवल साहस दर्शाती है बल्कि बड़ी खूबसूरती से स्थापित भी कर देती है कि भावना तलवार की आने वाली फिल्मों का इंतजार उत्सुकता भरी दृष्टि से किया जाये। उन्होने इस दौर के विलक्षण अभिनेता पंकज कपूर का बेहद प्रभावी ढ़ंग से उपयोग किया है और उनकी अदभुत अभिनय क्षमता का शानदार प्रदर्शन किया है।
राजनीतिक कारणों से पिछले पच्चीस सालों में उभारे गये हिन्दू उग्रवाद को फिल्म दर्शाती है। भावना तलवार हिन्दू सम्प्रदाय से ताल्लुक रखती हैं और वे इसमें गलत इरादों वाले संकुचित मानसिकता वाले धर्म के झूठे ध्वज उठाये नेताओं द्वारा फैलायी जा रही कलुषता और बुराइयों की तरफ अपनी फिल्म के माध्यम से इशारा करती हैं। यही किसी भी कलाकार का उद्देश्य भी होता है और होना भी चाहिये। भारतीय समाज अच्छे ढ़्रर्रे पर फिर से चलना शुरु कर देगा अगर भारत में बसने वाले सारे सम्प्रदायों, हिन्दु, बौद्ध, इस्लाम, सिख, ईसाई, यहूदी, और जैन आदि को मानने वाले लोगों में से कलाकार सामने आकर अपने अपने सम्प्रदाय में फैल रही कुरीतियों की तरफ इशारे करके समाज को चेताने का काम करें और अंधी साम्प्रदायिक शक्तियों से न डरकर अपनी कला के साथ न्याय करें और समाज, देश और मानवता का भला करें।
बुराई पर परदा डालकर बैठने से कभी भी बुराई दूर नहीं की जा सकती। रोग को दबाकर रखने से उसके बढ़ने का पूरा इंतजाम हो जाता है। उसे रोकने और मिटाने के लिये तो औषधि का इंतजाम करना ही पड़ता है।
पंडित राम नारायण चतुर्वेदी (पंकज कपूर) बनारस के एक प्रकांड पंडित और एक बड़े मंदिर के प्रमुख महंत हैं। शास्त्रों के वे ज्ञाता हैं। जैसा उन्होने पढ़ रखा है और सीख रखा है कि उच्च कोटि के ब्राह्मण को कैसा आदर्श जीवन जीनी चाहिये, वैसा जीवन वे हर पल जीते हैं। आचार-व्यवहार, चिंतन, वाणी आदि जितने भी क्षेत्र हैं मानव जीवन में अभिव्यक्ति के वे उनमें एक आदर्श ज्ञानी के अनुसार जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे एक परिपाटी का अनुसरण कर रहे हैं।
उनके जीवन को न काहू से दोस्ती न काहू से बैर का उदाहरण माना जा सकता है। उन्हे अपने जीवन का ध्येय यही लगता है कि इसी आदर्शवादी तरीके से ज़िंदगी व्यतीत करते हुये वे प्रभू की आराधना करते रहें, अपने विधार्थियों को धर्म की शिक्षा देते रहें और अपने यजमानों को धर्म के मार्ग पर चलने की सीख और सलाह देते रहें। उन्हे न किसी संगठन से मतलब है न किसी तरह की राजनीति से। वे अपने जीवन में बहुत व्यस्त हैं। न किसी किस्म के समाज सुधार में उनकी दिलचस्पी है।
एक ढ़ोंगी पंडित को सुधरने की सलाह देते हुये वे कहते हैं,” सूर्योदय तुम्हारी सुविधानुसार नहीं होगा दयाशंकर। सूर्य अनुसार जीवन व्यतीत करना प्रत्येक ब्राह्मण का कर्त्तव्य है।और मंत्रोच्चारण दिखावे के लिये नहीं होना चाहिये… ग्राहक तो मिल जायेंगे, प्रभू नहीं“।
एक अन्य घटना में दया शंकर द्वारा घमंड से कहना कि अब उनके पास अमेरिका से फोन पर पूजा करवाने के आग्रह आते हैं, प. चतुर्वेदी कहते हैं,” जन्म से ब्राह्मण और कर्म से वैश्य और वो भी धर्म का व्यापार, बढ़िया है“।
दया शंकर दुराग्रह से भरे हठ से कहते हैं,” इसमें बुरा क्या है, समय के साथ मनुष्य को बदलना चाहिये“।
प. चतुर्वेदी कहते हैं,” समय के साथ सत्य नहीं बदलता और धर्म ही सबसे बड़ा सत्य है“।
न वे किसी किस्म के वाद-विवाद में अपना समय नष्ट करना चाहते हैं। जब गंगा तट पर भूलवश एक तथाकथित नीची जाति वाला अछूत उनसे टकरा जाता है और राजनीति भड़काने वाले निठल्ले उस व्यक्ति को पीटने लगते हैं और यह सब तमाशा देख रहे एक साधु , प. चतुर्वेदी से पूछते हैं कि लोग आपके सामने उस व्यक्ति को पीटते रहे और आपने उन्हे रोका नहीं, तो वे चुप रहते हैं।
साधु गुरु नानक के हवाले से कहते हैं,
अव्वल अल्लाह नूर पाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर से सब जग उपजा, कौन भले कौन मंदे
और शास्त्रों की दुहाई देते हैं पर प. चतुर्वेदी हाथ जोड़कर नम्रता परन्तु दृढ़ता से कहते हैं,” महादेव की कृपा से हमने भी शास्त्रों का अध्ययन भली-भाँति किया है“। और अभिवादन करके साधु को भ्रम में डूबा हुआ छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं।
साधु अभी भी हिम्मत नहीं हारते हैं और कहते हैं,
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखन की देखी
पर प. चतुर्वेदी हाथ जोड़कर कहते हैं,”महादेव” और अपने रास्ते चल देते हैं।
एक विदेशी फोटोग्राफर उनसे साधु की कही बातों का अर्थ जानना चाहता है तो पंडित जी कहते हैं,” अर्थ जान भर लेना पर्याप्त नहीं है। धर्म का ज्ञान प्राप्त करना है तो जीना पड़ता है उसे“।
पंडित जी के एक शिष्य अहंकार से भरे स्वर में विदेशी युवक से कहते हैं,” संसार भरा पड़ा है ऐसे घर छोड़ योगियों से। अगर आपको धर्म का मर्म ज्ञात करना है तो केवल पंडित जी की शिक्षा पर ध्यान दें“।
शायद साधु निरा गृहत्यागी ही हो पर पंडित जी भी कहीं न कहीं जीवन के मर्म को भूले दे रहे हैं। वे शास्त्रों के बंधन में जकड़े हुये हैं।
भावना तलवार और उनके सिनेमेटोग्राफर- नल्ला मुत्थु , बनारस के घाटों को जीवंत कर देते हैं। सुनहरी रोशनी में जगमगाते घाट और गंगा जल की उपस्थिति अपने समग्र रुप में दर्शकों के सामने आती है। बेहतरीन तरीके से भावना तलवार, प. चतुर्वेदी द्वारा गंगा जल में स्नान करने, अछूत द्वारा छू जाने पर उनके द्वारा पुनः स्नान करने और यज्ञोपवीत जनेऊ को गंगाजल में समर्पित करने के दृष्य बारीकी से दर्शाती हैं, उनके प्रयास सराहनीय हैं।
प. चतुर्वेदी चापलूसी भी पसंद नहीं करते। रास्ते में एक हलवाई द्वारा उनके घर पर ताजी बनी मिठाई भिजवाने की बात पर वे उसे यह कहते हुये आगे बढ़ जाते हैं,” भिजवा दीजियेगा, बिटिया पैसे दे जायेगी“।
प. चतुर्वेदी अपनी ओर से किसी का नुकसान नहीं करते परंतु वे अपने खोल से बाहर भी नहीं निकलना चाहते। वे जीवन और इंसान दोनों से निरपेक्ष हो गये लगते हैं।
वे शायद ऐसा समझने लगे हैं कि उन्होने ज़िंदगी को पूरा समझ लिया है और ज़िन्दगी उन्हे सबक सिखाने का ध्येय ठान चुकी है। उनके चेहरे पर हर पल नियम कायदे से ही जीवन जीने के कारण एक तेज तो है परंतु अपने सिद्धांतो पर अडिग रह कर जीवन जीते जीते उनके मुख पर एक कठोरता आ गयी है। उन्हे मुस्कुराते देखना भी दुर्लभ हो चुका है। उनके चेहरे पर तभी प्रसन्नता के रस की सूक्ष्म सी अनुभूति लक्षित होती है जब वे पूजा कर रहे होते हैं, अपनी पुत्री से स्नेह दर्शा रहे होते हैं या अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान कर रहे होते हैं।
पड़ोस के क्षेत्र में साम्प्रदायिक दंगों के विवरण भी उन्हे उनके दैनिक ढ़र्रे से विलग नहीं कर पाते और वे निर्बाध रुप से अपनी स्वीकार की हुयी परिपाटी के अनुसार जीवन को जिये चले जाते हैं।
एक बार अपनी पत्नी पार्वती (सुप्रिया पाठक) द्वारा कहने पर कि यजमान विष्णुदत्त जी (के.के.रैना) के घर अनुष्ठान करने के कारण आज अन्न ग्रहण करने में तो देरी हो जायेगी, पंडित जी कहते हैं,” ब्राह्मण हूँ सदैव आत्मा का आहार प्राप्य है, शरीर का ध्यान तो पशु भी रखते हैं“।
पर वे अपनी पत्नी को सचेत करते हैं,” तुम भोजन अवश्य कर लेना, वैद्य जी ने कहा है तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये ठीक समय पर भोजन कर लेना आवश्यक है“।
दर्शक के लिये एक नियत परिपाटी से जीवन जीते पंडित जी को एक खास रुपरेखा में बाँध लेना मुश्किल हो जाता है। वे एक रोचक व्यक्तित्व बन कर सामने आते हैं और उनके चरित्र में दर्शक की रुचि बढ़ती ही जाती है।
आदर्शवाद के तेज से दमकते ब्राह्मण प. चतुर्वेदी के एक ढ़र्रे पर चल रहे जीवन से प्रकृति को एतराज हो उठता है, वह तो ठान चुकी है कि प. चतुर्वेदी की न केवल परीक्षा लेगी बल्कि उन्हे यह सबक भी सिखायेगी कि ज़िंदगी में बहुत सारे अन्य रंग भी होते हैं उनके शास्त्रीय ढ़ंग से जीवन जीने के अलावा। प्रकृति साजिश रचती है और प. चतुर्वेदी के जीवन में एक नवजात शिशु का आगमन होता है जो कि उनकी धर्मपत्नी के अनुसार उनकी पुत्री को एक औरत यह कहकर दे गयी थी कि वह अभी आ जायेगी।
जन्म आधारित जाति व्यवस्था में विश्वास करने वाले पंडित जी को उनकी धर्मपत्नी यह कह कर बहला देती हैं कि शिशु ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखता है और उसकी माता के आने तक वे उसकी देखभाल कर लेंगी।
दिन बीतते हैं कोई उस शिशु को नहीं लेने आता और पुलिस भी उसके माता पिता को नहीं खोज पाती। पंडित जी की धर्मपत्नी और पुत्री बच्चे को अपने ही घर में रखने के लिये बहुत उत्सुक हैं और वे दोनों किसी तरह पंडित जी को राजी कर लेते हैं। पंडित जी के मन में काफी संशय है इस बच्चे को इस तरह से अपने घर में रखने के लिये। ऊपर से वे मोह-माया के बंधन में बंधना नहीं चाहते।
विष्णुदत्त जी की पुत्री (ह्रषिता भट्ट) द्वारा पंडित जी के विदेशी शिष्य से प्रेम करने के कारण उपजी समस्या में पंडित जी शास्त्रों के हवाले से विष्णुदत्त जी को सलाह देते हैं कि उन्हे शीघ्र ही पुत्री का विवाह समपन्न करा देना चाहिये और शास्त्रों के अनुसार पिता के क्या कर्त्तव्य हैं यह वे विष्णुदत्त जी को बताते हैं और पुत्री को कहते हैं कि पुत्री होने के नाते उन्हे अपने पिता को सहयोग देना चाहिये।
वे यजमान की पुत्री और विदेशी शिष्य के मध्य प्रेम को पसंद नहीं करते हैं। बाद में जब लड़की घर से भागकर विदेशी युवक के साथ विवाह कर लेती है और विष्णुदत्त जी पूछते हैं,” पंडित जी मैं क्या करुँ। अगर आपकी पुत्री होती तो आप क्या करते“?
पंडित जी शांत भाव से जवाब देते हैं,”अगर मेरी पुत्री होती तो मैं भी कुछ नहीं कर पाता। जो पुत्री अपना वर स्वयं चुन लेती है उसका दायित्व स्वयं उसी पर रहता है“।
उनके विचार एकदम स्पष्ट रहते हैं। तनिक भी भ्रम उन्हे नहीं है अपने किसी निर्णय या विचार के बारे में।
सूक्ष्म लोभ पर भी कर्म का सिद्धांत लागू होता ही होता है। अनायास घर में आ गये शिशु के कारण पुत्र के प्रति पनपे अपने लोभ के वशीभूत होकर पार्वती, पंडित जी को मनाने का प्रयास करती हैं कि उन्हे शिशु को अपने पास ही रख लेना चाहिये जिससे कि शास्त्रों के सबसे बड़े ज्ञाता स्वयं प. चतुर्वेदी ही उसे शिक्षा प्रदान करें।
पत्नी की बातों से पंडित जी के मन में भी पुत्र मोह हल्की सी दस्तक देता है पर उनकी व्यवहारिक और चौकन्नी बुद्धि उनसे कहलवाती है,” तुम बालक को गोद लेने की बात कर रही हो अगर कल को उसकी माता वापिस आ गयी तो“।
पत्नी के आग्रह के समक्ष वे भी झुक जाते हैं। पति-पत्नी के मध्य घटा पूरा दृष्य अदभुत है और जब प. चतुर्वेदी के रुप में पंकज कपूर करवट बदल कर चेहरा उठाकर हल्का सा मुस्कुराकर, आवाज को लम्बा खींचकर बालक को नाम देते हैं,”कार्तिकेय” तब उनका न केवल चेहरा और आँखें बल्कि पूरा शरीर ही इस शब्द को उच्चारित कर रहा होता है।
शास्त्रों द्वारा परिभाषित पद्धति से जीवन जीते प. चतुर्वेदी वर्तमान की माँग के अनुसार जीवन जीना उस क्षण जीना प्रारंभ करते हैं जब एक दिन घर में बालक के साथ बस वे ही होते हैं और रोते हुए बालक को चुप कराने के लिये वे झिझकते हुये उसे गोद में उठाकर खिलाने लगते हैं जिससे कि बालक चुप हो जाये। जब उनकी पत्नी और पुत्री आती हैं और देखती हैं कि बालक प्रांगण में बिछी चारपायी पर सोते हुये पंडित जी की छाती से लिपट कर सोया हुया है तब उन्हे संतोष होता है कि अब पंडित जी ने उसे पूरी तरह से पुत्र के रुप में स्वीकार कर लिया है।
बालक बड़े होते होते प. चतुर्वेदी के अंदर वात्सल्य रस को जगाता जाता है और हमेशा धीर गम्भीर रहने वाले पंडित जी अब अपने दत्तक पुत्र के साथ हँसते खेलते जीवन गुजारने लगते हैं।
उनका गोद लिया पुत्र उनके जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाता है और तभी प्रकृति फिर से पासे फेंकती है पंडित जी के मन में जन्मे नये स्नेह और धर्म के प्रति निष्ठा को कसौटी पर तोलने के लिये।
कुटिल दयाशंकर बालक की असली माता को लेकर प. चतुर्वेदी के घर के द्वार पर पहुँच जाता है। बालक की माता को देखकर पंडित जी भौचक्के रह जाते हैं। महिला मुस्लिम है, जो दंगों से बचते बचाते अपना नवजात शिशु पंडित जी की ड्योढ़ी पर उनकी पुत्री को दे गयी थी।
बाउ जी… बाउ जी का चीत्कार करते बालक का रुदन सबके दिल चीर जाता है पर बच्चे को उसे जन्म देने वाली माँ अपने साथ ले जाती है।
पंडित जी के घर की शुद्धि तो गंगाजल और यज्ञ से हो जाती है पर बालक की मनभावन हरकतों से दिलों पर अमिट रुप से बनी छाप कैसे मिटे पायेगी?
पंडित जी के घर की शुद्धि तो गंगाजल और यज्ञ से हो जाती है पर बालक की मनभावन हरकतों से दिलों पर अमिट रुप से बनी छाप कैसे मिट पायेगी?
सोते जागते कानों में बालक की आवाज गूँजती है, आँखों के सामने वह हँसता खेलता हुआ आ धमकता है।
दया शंकर सरीखे कुटिल लोगों को प. चतुर्वेदी के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका मिल जाता है और अपने भटकते हुये अंतर्मन और दुनिया की चालों के जवाब में प. चतुर्वेदी सब प्रकार के व्रतों में कठिनतम चंद्रायन व्रत करने का प्रण कर लेते हैं।
फिल्म बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से पंडित जी के अंतर्द्वंद और उनके द्वारा किये प्रायश्चित को दिखाती है। पंडित जी तब तक प्रायश्चित और साधना करते रहते हैं जब तक कि वे पुनः अपने मन पर काबू नहीं पा लेते।
पर अभी तक तो प्रकृति ने उनकी सिर्फ दो ही परीक्षायें ली हैं। अंतिम और सबसे बड़ी परीक्षा आती है साम्प्रदायिक दंगों के रुप में। कार्तिकेय, जिसे उसकी असली माँ मुस्तफा नाम से पुकारती है, को लेकर उसकी माँ पंडित जी के घर फिर से आती है, ताकि उसके पुत्र को शरण मिल सके। पंडित जी फिर से धर्म-संकट में हैं। एक तरफ उनकी शास्त्रों पर आधारित जीवन पद्धति है और दूसरी तरफ इंसानियत का तकाजा है। शुरु में शास्त्रीय जीवन शैली जीतती दिखायी देती है पर मन के संघर्ष अंदर ही अंदर पंडित जी और उनकी पत्नी को मथते रहते हैं। पत्नी के मासूम सवाल पंडित जी को हिला कर रख देते हैं।
मन का अंधेरा छंटता है। भोर आती है।
क्षत-विक्षत शव, लहू लुहान भूमि, हिंसा का ताण्डव करने को उतारु घोर साम्प्रदायिक रुप से अंधे लोगों की भीड़ और ऐसे में एक हठी ब्राहमण अपने गोद लिये हुये मुसलमान पुत्र को छाती से चिपकाये हुये भीड़ को चीरे चला जा रहा है। नफरत से अंधी भीड़ चाहे तो खड़ाऊँ पहन कर खट खट करते जाते इस निहत्थे ब्राहमण और उसके दत्तक पुत्र की हत्या कर दे पर आत्म विश्वास से भरा, मानव धर्म के तेज से दमकता ब्राहमण झुकेगा नहीं अधर्म के समक्ष। शास्त्रों में लिखे वचन, वहाँ वर्णित ज्ञान आदि तो उसे पहले से ही ज्ञात रहे हैं पर आज वह मानव जीवन में सच्चे धर्म की सच्चाई से भी वाकिफ हो चुका है। अब वह किसी दुनियावी दबाव के आगे नहीं झुक सकता। कोई भी उसे भयभीत नहीं कर सकता। वह आत्म साक्षात्कार कर चुका है।
नैनं छिदंति शस्त्राणी, नैनं दहति पावक
न चैनं क्लेदयां तापो, नैनं शोशयति मारूतः
ऐसे श्लोक आज मात्र शास्त्रों में लिखे श्लोक नहीं हैं आज सब कुछ आँखन देखी बन चुका है। सही मायने में आज एक जाग्रत विवेक के स्वामी बन चुके हैं पंडित चतुर्वेदी।
उपनिषदों के माध्यम से उन्होने पढ़ा है – नेति-नेति! पर आज हिसंक भीड़ को देखते हुये वे सारी बुराइयों की ओर इशारा करके कहते हैं –
यह..यह…और यह धर्म नहीं है।
आज वे स्पष्ट रुप से उदघोषणा करते हैं –
मानवता धर्म है।
निदा फाजली ने लिखा था कभी
ये कंकर पत्थर की दुनिया
जज्बात की कीमत क्या जाने
दिल मंदिर भी है दिल मस्जिद भी है
ये बात सियासत क्या जाने।
बड़े कवि हैं उन्होने सच के एक रुप को जानकर ही ऐसा कहा होगा परंतु सच एक बहुत बड़ी निराकार वस्तु है और उस बड़े सच का एक छोटा सा अंश यह भी है कि वास्तव में दिल सम्प्रदाय की संकुचित विचारधारा का अनुयायी नहीं होता।
किसी सम्प्रदाय में जन्म लेना मनुष्य के हाथ में नहीं। हिन्दु के घर में जन्मे व्यक्ति की कंडीशनिंग उसके दिल को मंदिर बना देती है और मुसलमान के घर में जन्मे व्यक्ति की कंडीशनिंग मस्जिद, ईसाई का दिल गिरजा हो जाता है, सिख का दिल गुरद्वारा, बौद्ध का दिल मठ और यहूदी का सिनेगॉग।
अगर व्यक्ति का जन्म ऐसी जगह हो जहाँ इनमें से किसी भी इमारत का अस्तित्व ही न हो तब इनमें से कोई भी इमारत उसके दिल में बस न पायेगी।
असल मसला तो अंत में इंसान का इंसान से और इंसान का प्रकृति से नाते का रह जाता है।
दिल तो सफेद कैनवास है जिस पर जैसे चाहे रंग भर दो।
भावना तलवार ने साहस करके वर्तमान समय की महती आवश्यकता देखते हुये हिन्दु सम्प्रदाय में उभर रही बुराइयों को खँगालने वाली फिल्म बनायी और एक बहुत अच्छी फिल्म बनायी। और इस बात को मद्देनज़र करते हुये कि यह उनकी पहली ही फिल्म थी ऐसा कहना बिल्कुल अतिश्योक्ति न होगा कि आने वाले समय में वे देश में सिनेमा के क्षेत्र में उभरी महिला निर्देशकों में वे एक बहुत बड़ा नाम रहेंगी और देश के सबसे अच्छे निर्देशकों में से एक रहेंगीं।
कहानी, कथानक, प्रस्तुतीकरण, अभिनय हर क्षेत्र में फिल्म बहुत अच्छी है विषय की प्रासंगिकता को देखते हुये कहा जा सकता है कि यदि एकलव्य के स्थान पर इसे ऑस्कर पुरस्कारों के लिये भेजा जाता तो इसके लिये विदेशी भाषा की अंतिम पाँच फिल्मों में प्रवेश पाना अपेक्षाकृत आसान होता। सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है और यही हाल फिल्म में पार्श्व- संगीत और ऑडियो का है। पहली फिल्म के लिहाज से इतनी गुणवत्ता किसी भी निर्देशक के लिये बेहद उल्लेखनीय है।
इस फिल्म में पंकज कपूर के अभिनय को देखते हुये लगता है कि एक अदभुत अभिनेता की विलक्षण प्रतिभा हिन्दी सिनेमा में लगभग व्यर्थ जा रही है। वे एक ऐसे अभिनेता हैं जो चाणक्य को स्टेज या स्क्रीन पर ऐसे जीवित कर सकते हैं जैसे वे इसी युग में जन्में हों। धन्य है इस समय का हिन्दी सिनेमा कि उसे ऐसे जहीन अभिनेता का साथ मिल रहा है।
सुप्रिया पाठक, के.के रैना दोनों ने अभिनय के क्षेत्र में फिल्म में अपना सराहनीय योगदान दिया है।
धरम, आवश्यक रुप से देखी जाने फिल्मों में से है।
…[राकेश]
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