मनमोहन देसाई की सुपरहिट फ़िल्म अमर-अकबर-एंथनी में एक दृश्य है जिसमें इन्स्पेक्टर अमर (विनोद खन्ना), एंथनी (अमिताभ बच्चन) को उसके मोहल्ले से पीट पाट कर लाकर हवालात में बंद कर देता है और हवालात से चोट खाया एंथनी, बाहर अपनी डेस्क पर बैठे अमर को छेड़ते हुए कहता है,” साब, आपने अपुन को इतना मारा, अपुन ने एक पञ्च मारा, पन एकदम सॉलिड मारा न!
मनोज बाजपेयी और यश चोपड़ा की एकमात्र फ़िल्मी जुगलबंदी के लिए भी यही कहा जा सकता है :
एक ही बार ,पर, एकदम सॉलिड वार
यश चोपड़ा ने दिलीप कुमार, बलराज साहनी और संजीव कुमार, अभिनय के तीनों धुरंधर महारथियों के साथ काम किया लेकिन उन्होंने समान्तर सिनेमा कहे जाने वाली धारा के पुरोधा कलाकारों जैसे नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, इरफ़ान खान, आदि के साथ फ़िल्में नहीं कीं| थियेटर के प्रसिद्द अभिनेता मनोहर सिंह की अभिनय कला को अवश्य उन्होंने चांदनी और लम्हें, में उपयोग में लिया| समांतर सिनेमा में नायक नायिका की भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेताओं को अपनी फ़िल्म में उतनी ही मुख्य भूमिका देने के सबसे नज़दीक वे सिलसिला में आये थे जब उन्होंने स्मिता पाटिल को साइन कर लिया था, लेकिन फिर अमिताभ बच्चन से विचार विमर्श के बाद उन्होंने रेखा और जया बच्चन को नायिकाओं की भूमिकाएं दीं|
यश चोपड़ा ने पिंजर देखी तो उस समय वे वीर जारा बनाने की प्रक्रिया में थे और पिंजर में मनोज बाजपेयी का अभिनय देख वे उनसे बेहद प्रभावित हो गए और मनोज को अपने स्टूडियो में आमंत्रित करके कहा कि – उनकी नई फ़िल्म में एक मेहमान कलाकार जैसी छोटी सी भूमिका है, और मनोज की पिंजर देखकर उनके अभिनय की उंचाई से वे बैचेन हो गए हैं, अगर मनोज उस भूमिका को कर लें तो अच्छा होगा लेकिन अगर वे न भी कहेंगे इस प्रस्ताव को तो भी उन्हें बुरा नहीं लगेगा क्योंकि भूमिका बहुत छोटी है|
मनोज बाजपेयी ने यश चोपड़ा जैसे प्रसिद्द निर्देशक की फ़िल्म में काम करने को एक सुअवसर की तरह लिया और फ़िल्म करने के लिए अपनी सहमति दे दी|
सवा घंटे की फ़िल्म बीत जाने के बाद, जब भारत में कुछ दिन या हफ्ते वीर के घर हंसी खुशी गुजरने के बाद ज़ारा को वीर लाहौर भेजने के लिए अटारी जंक्शन पर छोड़ने आता है, तो अभी तक रोमांटिक कॉमेडी या हल्की फुल्की सामाजिक परिपाटी पर चलती फ़िल्म में एक अलग ही मोड़ आ जाता है| इस असर को ही किसी अभिनेता की सिनेमा के परदे पर उपस्थिति का असर या स्क्रीन प्रेजेंस कहा जाता है|
रेलवे स्टेशन पर ऊपर वीर और जारा आमने सामने खड़े बातें कर रहे हैं और उनके बीच के स्थान से ज़ूम होता हुआ कैमरा दिखाता है काली शेरवानी पहने, करीने से बाल काढ़े हुए, पैनी मूछों को चेहरे पर धारण किये हुए भेदने वाली आँखों से देखते हुए, सीढियां चढ़ कर ऊपर आते रज़ा (मनोज बाजपेयी) को| दर्शक को कोई इल्म नहीं है रज़ा कौन है? किस स्वभाव का है? लेकिन उस चरित्र में मनोज बाजपेयी की चाल, उनका पूरा व्यक्तित्व, ऐसे संकेत परदे पर बिखेर देते हैं कि कुछ जबरदस्त घटने वाला है अब फ़िल्म में|
शुरुआती परिचय संबंधी औपचारिकताओं में भी मनोज रज़ा के मजबूत व्यक्तित्व की झलकियाँ अपने बोलने और देखने के अंदाज़ में प्रस्तुत करके परदे पर ऐसा तनाव रच देते हैं कि वीर की एक ज़रा सी गलती से परदे पर यहीं इसी जगह भूचाल आ जायेगा|
वीर के असामान्य वाक्यों से तड़प कर, क्रोधित होकर लेकिन क्रोध को पीकर , भावनाओं को संभालकर रज़ा जब वीर को चेताते हैं तो मनोज कितने बड़े अभिनेता हैं और क्यों पिंजर में उनके अभिनय की श्रेष्ठता को देखकर यश चोपड़ा बैचेन हो गए, इस बात को मनोज सिद्ध कर देते हैं|
उसके बाद पाकिस्तान में दरगाह पर प्रस्तुत गीत में दो – तीन बार मनोज परदे पर नज़र आते हैं और खामोश रहकर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं|
बोलने के लिए उन्हें पुनः एक और दृश्य मिलता है तकरीबन 2-3 मिनट का और इन कुछ ही मिनटों में वे फिर से छा जाते हैं और देखा जाए तो पूरी फ़िल्म पर भारी पड़ जाते हैं| इस दृश्य के बाद रज़ा की भूमिका फ़िल्म में उपस्थित नहीं रहती और केवल बरसों बाद कथा कहन के माध्यम से ही पता चलता है कि ज़ारा ने रज़ा से तलाक ले लिया था और रज़ा लन्दन चले गए| अगर रज़ा की भूमिका को 10-15 मिनट का स्क्रीन स्पेस और मिलता तो फ़िल्म में हाई वोल्टेज ड्रामा का असर आ जाता|
बहरहाल अपने अंतिम सीक्वेंस में रज़ा की उपस्थिति रहस्यमयी और नाटकीय अंदाज़ में होती है| :-
ज़ारा की अम्मी से किये वादे के अनुरूप ज़ारा से बातें करके उसे समझा कर भारत वापिस लौटने के लिए बस में सवार वीर को रजा अपने रसूख के बल पर पुलिस से पकड़वा देते हैं जहाँ पुलिस वीर पर दबाव डालती है कि वे कबूल करें कि उनका नाम राजेश राठौड़ है और वे भारत की खुफिया एजेंसी के लिए काम करते हैं और पकिस्तान की गुप्त सूचनाएं भारत भेजते हैं| वीर के इस झूठे आरोप से मना करने पर और यह कहने पर कि वे वीर प्रताप सिंह हैं इन्डियन एयर फ़ोर्स से अवकाश प्राप्त पायलट , पुलिस कहती है तो उस व्यक्ति का नाम बताओ जिससे मिलने वे पाकिस्तान आये थे| वीर , जारा और उसके घरवालों की बदनामी के डर से चुप रह जाता है और जांच के कमरे का दरवाजा खुलता है और ताली बजाते तंज करते हुए रज़ा अन्दर दाखिल होते हैं|
वाह वीर प्रताप सिंह, मिट जायेंगे पर महबूबा की बदनामी न हो उसका नाम नहीं लेंगे|
उसके बाद मनोज बाजपेयी का पांच छः पंक्तियों के संवाद का जो एकालाप है वह फ़िल्म के सारे अभिनेताओं पर भारी पड़ता है, अमिताभ बच्चन सहित|
एक बेहद प्रभावशाली अंदाज़ में मनोज बाजपेयी रज़ा के रूप में वीर को धमकाते हैं, चेताते हैं, रज़ा की बेबसी, उसकी घुटन उसके अपमान, उसके अहंकार, उसकी शैतानियत को दर्शाते हैं, और रज़ा द्वारा ज़ारा से निकाह करने के बाद भी वीर और ज़ारा की मुहब्बत के कारण रज़ा के जीवन भर एक आग में जलने की बात करते हुए यह कहते हैं कि जारा के जीवन की खुशी इस बात पर निर्भर करती है कि या तो वीर सदा के लिए गम होकर एक नई पहचान ओढ़ कर यहाँ जेल की कालकोठरी में अपने जीवन के बाकी वर्ष बिता दे या वीर ही बना रहकर स्वतंत्रत पा ले लेकिन फिर वह (रज़ा) ज़रा के जीवन को नरक की भट्टी में झोंक देगा और उसे रोज़ नरक ही जीना पड़ेगा, अतः फैसला वीर के हाथ में है|
बस यह आख़िरी दृश्य है जिसमें परदे पर मनोज बाजपेयी फिल्म में दिखाई देते हैं| लेकिन दस मिनट से कम समय की भूमिका में क्या रंग जमाते हैं, कैसा असर दर्शक पर छोड़ते हैं, वह गौरतलब बात है|
अपने उत्कृष्ट अभिनय से मनोज बाजपेयी इस फ़िल्म में उन्हें ही लिए जाने के यश चोपड़ा के फैसले को सौ प्रतिशत सही ठहराते हैं|
पिंजर में मनोज बाजपेयी के सामने सारा क्षितिज था अपने अभिनय की विभिन्न गतियों से पाट देने के लिए लेकिन यहाँ बस इतना ही स्क्रीन समय था कि वे बस पांच मिनट में जितना दौड़कर भूमि घेर लें, उतनी उनकी, और क्या दौड़ लगाईं है मनोज बाजपेयी ने कि मैराथन और रिले रेस के खिलाड़ियों को अपने प्रदर्शन से पछाड़ दिया|
मनोज बाजपेयी जो वीर ज़ारा में उपलब्ध करते हैं उसके लिए उनकी तरह बड़ी से बड़ी सराहना का पुरस्कार ही आगे बढ़ाया जा सकता है|
…[राकेश]
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