बड़ी होती किशोर लड़की के जीवन पर केन्द्रित यह फ़िल्म उस किशोरी के भ्रमित जीवन की भांति दर्शक को भी भ्रमित कर जाती है| कभी यह बड़ी प्रभावशाली लगने लगती है और कुछ ही क्षणों में दर्शाए हिस्सों की कमियां, और उलझन भरे दृश्य उसे नीचे खींचने लगते हैं|

ऐसी फ़िल्में दर्शकों को दो हिस्सों में बाँट देती हैं| एक वे जिन्हें ये पूरी पूरी तरह से पसंद आ जाती हैं और वे इनमें कोई कमी देखकर भी नहीं स्वीकारते| उन्हें लगता है कि कितनी क्रांतिकारी फ़िल्म बनायी गयी है जो किशोर मानसिकता को परदे पर इतनी बखूबी से उतार पायी है| दूसरे हिस्से के दर्शकों को ऐसी फ़िल्में समाज को बिगाड़ने वाली लगती हैं, उन्हें लगता है कि ऐसे कैसे सामान्यीकरण करके कुछ भी दिखाया जा सकता है जबकि यह स्पष्ट है कि यह सब छोटी जगहों में इतना आसान नहीं होता जैसा दिखाया गया है|

ऐसी कई अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या यह एक सामाजिक टिप्पणी करती फ़िल्म है या किस्सागोई का पालन करती हुयी एक कथा मात्र को दिखाती फ़िल्म| अक्सर ही ऐसी फिल्मों में निर्देशक इस अंतर को बनाए रखने में असफल रह जाते हैं और दर्शकों को दुविधा में डाल देते हैं| उन्हें समझ में नहीं आता कि फ़िल्म क्या दिखाना चाह रही है कि ऐसा होता ही है या कि यह एक काल्पनिक कथा मात्र है जहां घटनाएं बस घट जाती हैं|

और ये दुविधा फ़िल्म की कथात्मक सामग्री और उसके प्रस्तुतीकरण दोनों के कारण उपजती है| फ़िल्म को इतने सशक्त ढंग से बनाया और दिखाया गया है कि यह आभास होने लगता है कि फ़िल्म अपने तीन मुख्य चरित्रों के द्वारा एक किशोर लड़की के जीवन में आने वाले उतार चढ़ावों के माध्यम से सभी किशोर लड़कियों की बात कर रही है कि ऐसा ही उस वय में होता है, लेकिन फिर उस लड़की की माँ के व्यवहार से फ़िल्म अपने विषय को जटिल बना देती है और फ़िल्म एक कहानी मात्र लगने लगती है|

फ़िल्म को तीन मुख्य चरित्रों के कोणों से देखा साझा जा सकता है| इन कोणों को एक एक कर देखें तो फ़िल्म जिस असमंजस को उपजाती है उसको समझा जा सकता है|

फ़िल्म की नायिका मीरा (प्रीती पाणिग्रही) 16 साल या उससे कुछ माह बड़ी आयु की एक रेजिडेंशियल स्कूल में कक्षा 11 या 12 की छात्रा है| फ़िल्म दिखाती है कि वह होस्टल में रहती है लेकिन फिर भ्रम उत्पन्न करते हुए उसे अपनी नानी द्वारा बनवाये गए घर में अपनी माँ अनीला (कनी कसरुती) के साथ रहते दिखाया जाता है और बताया जाता है कि उसकी बोर्ड परीक्षाओं के कारण उसकी माँ वहां आकर रह रही है उसकी देखभाल करने जिससे वह परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन कर पाए| रंग रूप में माँ बेटी का कोई मेल नहीं दिखाया गया है जो कि अटपटा लगता है क्योंकि वे एकदम उलट रंग की दिखाई देती हैं जो कि सामान्य बात नहीं है| मीरा की माँ भी इसी स्कूल से पढी हुयी है| फ़िल्म यह दिखाने का कष्ट नहीं करती कि हॉस्टल में रहने वाली छात्रा स्कूल या प्रिंसिपल से अनुमति लेकर घर से आना जाना कर रही है| वह कभी हॉस्टल में और कभी अपने घर में दिखाई जाती है|

इस उम्र में अपनी माँ से उसकी रुष्टता बस उतनी है जितनी वय के कारण हो सकती है जैसे कि माँ स्कूल परिसर में क्यों आ गयी? ऐसी बातों से किशोरों को अपने सहपाठियों के समक्ष लज्जा का अनुभव होता है|

मीरा अपनी कक्षा की टॉपर है और उसे स्कूल के इतिहास में पहली ऐसी छात्रा होने का गौरव प्राप्त होता है जिसे प्रीफेक्ट बनाया गया है| पढ़ाई में अच्छे प्रदर्शन और ऐसी उपलब्धियों के साथ उसका आत्मविश्वास अपने शिखर पर है और उम्र के साथ या उस उम्र के कारण अपनी शारीरिक जिज्ञासाओं और जरूरतों के प्रति भी आत्मनिर्भरता के पायदान पर है और यह सब उसकी मानसिक एकाग्रता को भंग नहीं करता|

अपने साथी छात्रों में उसे कोई अपने अनुरूप नहीं लगता या वह जानती है कि वह इन सबसे बेहतर है अतः वे सब उसे रूचिकर नहीं लगते| लेकिन हांगकांग रहकर यहाँ इस स्कूल में पढने आया श्रीनिवास (केसव बिनॉय किरन) पहल करके उसे लुभाने के प्रयास करता है| तारों सितारों की दुनिया में रूचि रखने वाला श्रीनिवास उसे अपने नजदीक लाने का हर संभव प्रयास करता है| फ़िल्म इस प्रश्न को बिलकुल भी किसी भी तरीके से नहीं उठाती, न स्कूल और न मीरा की माँ के माध्यम से कि 19 वर्षीय श्रीनिवास मीरा की कक्षा का विद्यार्थी कैसे है?

फ़िल्म मोबाईल फोन से पहले के काल में स्थापित है और सीडी के अस्तित्व भी न दिखाकर कैसेट्स और वाकमेन का दौर दिखाया गया है तो इसे मोटे तौर पर पिछली सदी में नब्बे के दशक के मध्य के काल में स्थित फ़िल्म माना जा सकता है, लेकिन फिर फ़िल्म मीरा और श्रीनिवास को साइबर कैफे में इंटरनेट पर फिजिकल एनेटॉमी पढ़ते हुए दिखाती है और उनके पड़ोस के किसी कम्प्युटर पर कुछ युवा पोर्न फ़िल्म देख रहे होते हैं जिसकी आवाजें इन दोनों के कानों में पड़ती हैं| साइबर कैफे और इंटरनेट के आगमन इस स्तर पर सन 2000 से पहले तो बिलकुल भी नहीं हुए थे और गूगल सर्च इंजन तो 2004 के आसपास भारत में आया होगा| उस काल के लिहाज से फ़िल्म की बहुत सी बातें अटपटी हैं| उस काल में ऐसी स्कूटी नहीं होती थीं, जैसी स्कूटी पर सवार होकर मीरा की माँ अनीला घूमती है| 90 के दशक के मध्य के दौर में मुश्किल से एक 16 वर्षीय लड़की कुछ ही मुलाकातों में थोड़ी सी नजदीकी से ही अपने पुरुष मित्र से अपनी शारीरिक अवस्था की बात इतनी आसानी से नहीं करती होगी जैसा फ़िल्म दिखा देती है| उस काल में एक 16 साल की लड़की छोटी से जगह, जहाँ सभी जानते होंगे कि कौन बोर्डिंग के छात्र हैं कौन नहीं, अपने साथ मेल कॉण्ट्रासेप्टिव कैसे प्राप्त कर पाई होगी?

इन सबसे यह तो स्पष्ट ही है कि बाद की परिभाषाएं पीछे के काल पर आरोपित करके फ़िल्म की कथा और इसका कथानक दोनों गढ़े गए हैं| इतना भी माना जा सकता है कि उस काल में किसी लडकी के जीवन में वास्तव में ऐसा हुआ जैसा दिखाया गया लेकिन तब फ़िल्म का ट्रीटमेंट एक सोशल कमेन्ट का न होकर एक गल्प कथा जैसा होता तो फ़िल्म ज्यादा स्पष्टता के साथ दर्शक के सामने आती| इसके सिर पर एक्टीविज्म का मुलम्मा न चढ़ा नज़र आता|

फ़िल्म का दूसरा कोण है मीरा की माँ अनीला का| वह यहाँ अपने माँ के घर में इसलिए आकर रह रही है ताकि मीरा परिक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन कर सके| अगर वह ऐसा न कर पायी तो उसे भय है कि उसका पति मीरा को दोषी न ठहरा कर उसके बेकार प्रदर्शन के लिए उसे ही दोषी ठहराएगा|

वह अपनी बेटी मीरा को श्रीनिवास के कारण झूठ बोलते पाती है तो तुरंत एक उदार और सुलझी हुयी स्त्री बनकर किशोर लड़कियों के मनोविज्ञान की विशेषज्ञ बन कर मीरा को श्रीनिवास को घर पर आमंत्रित करने के लिए ही नहीं कहती बल्कि उन्हें घर पर कमरे में 2 घंटे तक की अवधि के लिए एक दूसरे की कम्पनी में पढने के लिए छोड़ देती है| अनीला को लगता है कि ज्यादा नियंत्रण मीरा को बागी बना सकता है जबकि नियंत्रित छूट उसके दिमाग से श्रीनिवास के प्रति पनपते आकर्षण को कम या वास्तविक कर देगी|

यह भी ठीक है लेकिन फिर फ़िल्म एक अजीब सी राह पकड़ लेती है और मीरा ही नहीं दर्शक भी समझ नहीं पाते कि फ़िल्म अनीला की किस तरह की नजदीकी श्रीनिवास के साथ दिखाना चाह रही है? फ़िल्म बहुत से ऐसे संकेत देती है कि अनीला श्रीनिवास को एक तरह से सिड्यूस कर रही है| अपनी माँ द्वारा श्रीनिवास के साथ बढाती नजदीकियों से मीरा परेशान होती दिखाई जाती है| अनीला का कोण और दृष्टिकोण विकसित करने में फ़िल्म बुरी तरह असफल रहती है बल्कि फ़िल्म दर्शकों को भ्रमित करती है|

अनीला श्रीनिवास को किस रूप में देखती है? उसके बेटी का सहपाठी? या एक युवा मित्र जो उसके अपने पति से दूर रहने के कारण उसे अच्छी कम्पनी देता है? वह उसे पुत्रवत स्नेह करती है इसलिए उसके बालों में उंगलियाँ फिराना, उसे अपने बिस्तर पर अपने पड़ोस में लिटा लेना, रात में उसे अपने बेडरूम में अपने बिस्तर पर अपने साथ सुलाना और कमरे का दरवाजा अन्दर से बंद रखना| क्या इससे उसकी बेटी का श्रीनिवास के प्रति आकर्षण कम हो जायेगा? इससे क्या बेटी माँ के विरुद्ध न हो जायेगी, जिस भय के कारण उसने श्रीनिवास को अपने घर आमंत्रित किया था?

फ़िल्म को स्वंय ही स्पष्ट नहीं है कि वह किशोर मनोविज्ञान के नाम पर किन बातों को दिखा रही है और किस पिच पर खेल रही है|

मीरा और उसकी माँ मिलकर श्रीनिवास का 19वां जन्मदिन मनाती हैं और माँ बेटी दोनों में से कोई भी इस बात पर आश्चर्य प्रकट नहीं करता कि वह अपने सहपाठियों से 3 साल बड़ा कैसे है| पहले भारत में 18 साल में लड़कों की शादी हो जाया करती थी| मीरा की 16 साल की उम्र को देखते हुए उसकी माँ अनीला की उम्र 35-36 के आसपास ही ठहरती है और या तो फ़िल्म पहले इस विचार से विकसित की गयी होगी कि 19 साल के लड़के के प्रति माँ और बेटी दोनों की प्रेमभरी भावनाओं को दिखाया जा सकता है लेकिन फिर सामाजिक प्रताड़ना के भय से अनीला और श्रीनिवास के बीच के संबंध को एडिटिंग टेबल पर टोन डाउन किया गया और इसी कारण फ़िल्म में भ्रम की स्थितियां उत्पन्न होती हैं|

आगे फ़िल्म दिखाती है स्त्री पुरुष के शारीरिक संबंधों में जहां मीरा नौसिखिया और अनजान है वहीं श्रीनिवास बहुत हद तक अनुभवी है| लेकिन यह बात भी मीरा को नहीं चौंकाती| और अपनी माँ के साथ श्रीनिवास की बढ़ती नजदीकी से वह इर्ष्यालु भी होती है, नाराज़ भी होती है लेकिन यह सब इस सीमितता के कारण होता है कि वह श्रीनिवास के संग मनमर्जी की नजदीकियां नहीं बना पा रही|

एक दृश्य तो बेहद अटपटा है जिसमें मीरा अपने घर पर रात में रुके श्रीनिवास से रात में छत पर मिलने के लिए छत पर एक गद्दा छिपाकर आती है लेकिन उसकी माँ श्रीनिवास को लिविंग रूम में सोफे पर न सोने देकर अपने बेडरूम में अपने बेड पर सुलाने के लिए कमरे में ले जाकर कमरे का दरवाजा अन्दर से बंद कर लेती है| कुंठित मीरा सुबह पांच बजे कार्यक्रम के अनुसार श्रीनिवास को उठाने आती है तो वह थका हुआ कहकर एक घंटा और सोने की बात कहता है और एक घंटे बाद भी उठ नहीं पाता और उसके पड़ोस में लेटी हुयी अनीला रहस्यमयी ढंग से अपनी कुंठित होती बेटी को देखती रहती है|

फ़िल्म क्या स्थापित करना चाह रही थी? या तो हिम्मत करके अनीला और श्रीनिवास का अवसरवादी संबंध दिखा देती वर्ना इस कोण का कोई अर्थ नहीं था| यह एक कमजोर हिस्सा था कहानी का, जिसने पूरी फ़िल्म की दिशा निश्चित न होने दी| फ़िल्म यह स्थापित नहीं कर पाती कि अनीला श्रीनिवास को अपने अकेलेपन के कारण अपना युवा मित्र बना बैठती है| वह एक वयस्क स्त्री है जिसके सामने लक्ष्य स्पष्ट है कि उसके बेटी की पढ़ाई में विध्न नहीं आना चाहिए लेकिन वही मीरा की मानसिक शांति के लिए सबसे बड़ा रोड़ा बन जाती है| फ़िल्म के सामने तीनों चरित्रों की दिशाएँ और लक्ष्य निश्चित नहीं थे कम से कम अनीला के सन्दर्भ में तो यह बहुत ज्यादा स्पष्ट है| 2 घंटे की फ़िल्म में बड़े कसे हुए अंदाज़ में तीनों चरित्रों की भावनाओं और उनके बदलाव को स्थान मिलना चाहिए था जो नहीं मिल पाता और एक अस्पष्टता छाई रहती है|

मीरा की आपत्तियों को श्रीनिवास इस तर्क से शांत करता है कि उन दोनों के मिलने में बाधा न हो इसलिए वह अनीला से नजदीकी बनाए रखता है और उसकी बातों की तारीफ़ करता है|

फ़िल्म के अंत में स्कूल में घटे कुछ नाटकीय घटनाक्रमों के बाद मीरा को श्रीनिवास की बातों से पता लगता है कि यह 19 वर्षीय लड़का, जो दो ही साल में वयस्क पुरुष बन जायेगा, असल में सबको मेनिपुलट कर सकता है और करता है| उसके पास अलग अलग व्यक्तियों को लुभाने की अलग विधि है| वह किसी भी राह जा सकता है|

अनीला पर इस बात के खुलने का कोई असर नहीं होता लेकिन मीरा स्तब्ध रहती है और वह जिस रूप में इस बात को लेती है उससे श्रीनिवास को स्पष्ट हो जाता है कि वह उसके आकर्षण से बाहर आ चुकी है| वह दुबारा उससे मिलने घर आये या नहीं पूछने का कोई स्पष्ट उत्तर उसे शब्दों के माध्यम से नहीं मिलता लेकिन मीरा की भावभंगिमा उसे जता देती है कि जरुरी नहीं कि उसके आने पर वह उसका स्वागत करे ही|

मीरा जिस माँ से रुष्ट रहती थी उसी के नजदीक आ जाती है शायद पिछले कुछ हफ़्तों में अपने द्वारा खोये भावों के पश्चाताप हेतु|

मीरा के जीवन द्वारा बहुत सी बातों को फ़िल्म ऐसे दर्शाती है मानो बड़े क्रांतिकारी तरीके से वह किशोर लड़कियों के जीवन के रहस्यों को जगजाहिर कर रही है लेकिन मनोविज्ञान के मामले में फ़िल्म स्तरहीन रह जाती है| अनीला के श्रीनिवास से वास्तविक रिश्ते, और मीरा और अनीला के आपसी रिश्तों पर श्रीनिवास से अनीला के संबंध से पड़ते असर को स्पष्टता से दिखाने में फ़िल्म असफल रहती है|

फ़िल्म से स्पष्ट है कि विदेशी परिवेश को भारतीय परिवेश पर आरोपित करके शुचि तलाती ने यह फ़िल्म गढ़ी है| एक व्यक्ति के लेखन में यह समस्या आ ही सकती है कि वह अन्य दृष्टिकोणों से अपने लिखे को जांच नहीं सकता और इस नाते सामग्री सार्थक है नहीं तार्किक है या नहीं यह सब स्पष्ट नहीं हो पाता|

शुचि तलाती शक्तिशाली फ़िल्म बना सकती हैं इस बात की पूरी पूरी संभावना इस फ़िल्म से नज़र आती है क्योंकि उनके द्वारा कैमरे में दर्ज दृश्य प्रभावशाली हैं और नवोदित कलाकारों से उन्होंने बेहतरीन काम लिया है लेकिन कथा रूप में दिखाना क्या है यहाँ वे पिछड़ जाती हैं| तीनों मुख्य अभिनेताओं ने अच्छा अभिनय किया है|

किसी बेहतरीन किताब पर वे बहुत अच्छी फ़िल्म बना पाएंगीं, यह स्पष्ट है| फिल्मांकन में उनकी श्रेष्ठता है| छोटी छोटी चीजों पर वे कैमरे को केन्द्रित करवा कर अर्थपूर्ण दृश्य रचती हैं| उनकी संवेदना इस फ़िल्म में भारतीय नहीं थीं, और जो काल दिखाया उसके प्रति निष्ठावान नहीं थी| विदेशी दर्शक भले फ़िल्म को सराह लें पूर्णता में क्योंकि वे भारतीय संवेदना और यहाँ के परिदृश्य से उतने परिचित नहीं हो सकते लेकिन भारतीय दर्शक पूर्णता में फ़िल्म को स्वीकार कर लें तो ये वैसे दर्शक होंगे जो फिल्मों को आंदोलनकर्मी मानते हैं|

…[राकेश]


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