हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा अभिनेता नहीं है जो अपनी अभिनय पारी की शुरुआत से ही नायक और खलनायक की भूमिकाएं एक साथ निभाता रहा हो और दोनों में दर्शकों का चहेता बन गया हो| पहले नायक और बाद में खलनायक (प्रेमनाथअजीत) और पहले खलनायक और बाद में नायक (शत्रुघ्न सिन्हा एवं राज बब्बर) जैसे उदाहरण रहे हैं, राज बब्बर ने दुबारा खलनायिकी में कदम रखे तो वे नायक की भूमिकाओं में आना बंद हो चुके थे और चरित्र भूमिकाओं की तरफ बढ़ चुके थे|

एक अकेले विनोद खन्ना ऐसे अभिनेता रहे हैं जो पहली फ़िल्म में खलनायक तो दूसरी और तीसरी में नायक, चौथी में खलनायक तो पांचवीं में पुनः नायक की भूमिका में आये और यह सिलसिला कई साल और 30-32 फिल्मों तक चलता ही रहा जब तक कि वे स्थाई रूप से नायक की भूमिकाओं की ओर नहीं मुड़ गए| या उनके प्रशंसकों ने ऐसा करने पर उन्हें और फ़िल्म उद्योग को मजबूर ही नहीं कर दिया| इतने आकर्षक दिखाई देने वाले खलनायक के सामने नायक भी उतना या उससे ज्यादा आकर्षक होना आवश्यक था सामान्य फिल्मों के व्याकरण के हिसाब से, जो हमेशा संभव नहीं हो सकता था|

विनोद खन्ना की फिल्मोग्राफी पर सुभाष घई की फ़िल्म खलनायक के गीत की तर्ज पर कहा जा सकता है – नायक ही नहीं खलनायक भी हूँ मैं

मेरा गाँव मेरा देश में भी विदेशी वेस्टर्न फिल्मों से उधार लिया गया लेकिन एक दृश्य, जिसमें सुनसान पड़े गाँव में गलियों में धर्मेन्द्र घूमते दिखाई देते हैं, को छोड़कर इसका इतना भारतीयकरण किया गया कि यह एक मौलिक फ़िल्म ही लगती है और इसमें सबसे बड़ा योगदान, फ़िल्म के खलनायक की भूमिका का है| खलनायक- जब्बर सिंह, की भूमिका को निभाया था विनोद खन्ना ने|

मेरा गाँव मेरा देश के चार साल बाद प्रदर्शित होने वाली रमेश सिप्पी की शोले का मूल आधार यही फ़िल्म है|

इसे निर्देशक राज खोसला और उनकी फ़िल्म की पटकथा के लेखक जी आर कामथ की शराफत ही कहा जाएगा कि उन्होंने शोले पर कभी उंगली नहीं उठाई| शोले चूंकि बहुत बड़ी हिट फ़िल्म है सो धर्मेन्द्र भी कलाबाजी खा गए अन्यथा किसी और को पता हो न हो, उन्हें तो शोले की शूटिंग करते वक्त ही पता था कि उन्हीं के द्वारा 3 साल पहले की गई फ़िल्म को ही इस फ़िल्म में दुहराया जा रहा है| उन्होंने भी आज तक इस बात को नहीं कहा/माना कि शोले ने उन्हीं की फ़िल्म को रिसाइकिल कर दिया था|

शोले और मेरा गाँव मेरा देश का तुलनात्मक अध्ययन पटकथा लेखन पर बहुत प्रकाश डालता है| उदाहरण के लिए शोले में धर्मेन्द्र द्वारा हेमा मालिनी को बन्दुक चलाना सिखाने का सीन लिया जाये तो यह ज्यों का त्यों मेरा गाँव मेरा देश से लिया गया और इसे अगर एक स्वादिष्ट दाल की संज्ञा दी जाए तो शोले में इसमें अमिताभके अतिरिक्त दृश्य को जोड़कर इसे दाल फ्राई बना दिया गया| शोले में अमिताभ द्वारा निशाना लगाना और उसके उपरान्त संवाद कहना “हाँ जेम्स बांड के पोते हैं ये” और धरमहेमाकी जोड़ी को कुछ अतिरिक्त संवाद देकर यहाँ कॉमेडी का प्रभाव बढाया गया|

शोले मूल रूप में मेरा गाँव मेरा देश से तकरीबन 45 मिनट ज्यादा लम्बी फ़िल्म है और इस बढ़ी अवधि में असरानी, और जगदीप के कॉमेडी वाले दृश्य हैं और शोले में कई अभिनेता हैं तो उनके लिए दृश्य बनाए गए| में निशानेबाजी वाले दृश्य जैसे बढ़ोत्तरी किये हुए तत्व हैं| शोलेकी तुलना में मेरा गाँव मेरा देश की गति तेज लगती है और उसमें शोलेकी तरह फ्लैश बैक तकनीक का इस्तेमाल नहीं हुआ है और यह लीनियर तरीके से आगे बढ़ती है| मेरा गाँव मेरा देश में शोले की तरह ठाकुर का बदला नहीं है, और गाँव को डाकू जब्बर सिंह के आतंक से मुक्ति दिलाने के भाव पर जोर दिया गया है, धर्मेन्द्र के अलावा भी ग्रामीणों की छोटी भूमिकाओं में कई अन्य सह कलाकार दोनों फिल्मों में हैं|

शोले की बम्पर सफलता का बहुत नुकसान मेरा गाँव मेरा देश को हुआ| अगर शोले न होती तो इस फ़िल्म की चर्चा बहुत ज्यादा हुआ करती| और इस नुकसान में सबसे बड़ा नुकसान हुआ विनोद खन्ना का| उनके जब्बर सिंह को शोले के गब्बर सिंह के नाटकीय प्रदर्शन के समक्ष न्यायोचित कवरेज नहीं मिल पाई|

जबकि एक दुर्दांत एवं शातिर डाकू की भूमिका के रूप में जब्बर सिंह और उसमें विनोद खन्ना का अभिनय शुद्ध सोना है| विनोद खन्ना के थोड़ा आगे की ओर झुककर खड़े होने का स्टाइल, एकदम गंवार, अनपढ़, और जाहिल डाकू की तरह संवाद बोलने का तरीका (उनके द्वारा फ़र्ज़ बोलने के तरीके को देखिये या सुनिए!) और गुस्से से रक्तिम, तरेरी हुयी आँखें और कसरती शरीर देखकर दर्शक बार बार भ्रमित हो जाते हैं कि नायक (धर्मेन्द्र) पर ध्यान दें या खलनायक (विनोद खन्ना) पर| कहा जाता है कि शूटिंग के दौरान तेज रोशनी की चकाचौंध में आँखों को लगातार तरेरने से विनोद खन्ना की आँखों में समस्या आ गयी थी और उन्हें आँखों के डॉक्टर की सेवायें लेनी पडी थीं| डाकू जब्बर सिंह की भूमिका में विनोद खन्ना के अभिनय में इतनी ज्यादा गहराई है कि दर्शक जिसने, उनकी एकमात्र यही एक फ़िल्म देखी हो, उसे यह मानने में कठिनाई आयेगी कि यह अभिनेता नायक की भूमिकाएं भी निभा सकता है|

गाँव के बुजुर्ग मुखिया को घर के दरवाजे पर मारने वाले दृश्य में विनोद खन्ना जब्बर सिंह की दुर्दांत हिंसक प्रवृत्ति का दर्शन दर्शकों को कराते हैं|

जमीन पर निहत्थे खड़े नायक की तरफ बन्दुक तानने वाले अपने साथी डाकू को यह कह कर रोकने वाले जब्बर सिंह – निहत्थे को बन्दुक से नहीं मारते, के लिए नायक के अन्दर यह आशा बंधती है कि जब्बर सिंह नायक द्वारा उसके सामने समर्पण करने के कारण नायिका को छोड़ देगा तो उसका भ्रम जब्बर तोड़ता है अपना शातिरपना दिखाकर – जब्बर ने दो ही बातें सीखी हैं, एक मौके का फायदा उठाना और अपने दुश्मन का नामोनिशान मिटा देना|

जब्बर के शातिर और कमीनगी भरे चरित्र को विनोद खन्ना ने इतनी शिद्दत से निभाया है कि अच्छे अभिनय के प्रशंसक आश्चर्य में पड जाते हैं कि कोई ऐसे उर्वर दिमाग का निर्देशक क्यों नहीं हुआ उस ज़माने में जो रामायण बनाता और विनोद खन्ना को रावण बनाता| विनोद खन्ना अभिनय का इतिहास रच देते रावण की जटिलता से भरी भूमिका में|

केवल अभिनय की कसौटी पर तौला जाए तो मेरा गाँव मेरा देश के विजेता विनोद खन्ना ही हैं| उनके द्वारा निभाये चरित्र से घृणा करते हुए भी दर्शक परदे पर ज्यादा से ज्यादा समय उन्हें ही देखने की लालसा से भी भरा रहता है|

सिनेमेटोग्राफी के विद्यार्थी इस फ़िल्म में कैमरे के करतब देख प्रताप सिन्हा की कला से रश्क कर उठेंगे|

…[राकेश]


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