टैगोर ने कभी लिखा था –3deviyan

A Lad there is
and I am that poor groom
That is fallen in love
knows not with whom

यह किशोरावस्था से युवावस्था की दहलीज पर खड़े युवाओं में से कुछ की मनोस्थिति को बहुत अच्छे ढ़ंग से प्रस्तुत करती है जो कि प्राकृतिक रुप से ही रोमांटिक हो उठते हैं और उन्हे किसी अंजाने से प्रेम हो उठता है।

तीन देवियाँ में नायक देव (देव आनंद) की स्थिति कुछ ऐसी है कि वे तीन युवतियों से प्रेम होने या किये जाने की कगार पर खड़े हैं और उन्हे इस बात पर असमंजस है कि इन तीनों में से किसके साथ वे ऐसा प्रेम करते हैं जो जीवन भर वैवाहिक रुप में साथ निभा पाये।

फिल्में हैं जो आप बचपन में देखते हैं वे आपसे जुड़ जाती हैं या आप उनसे जुड़ जाते हैं और वे ताउम्र आपके साथ साथ चलती हैं। जीवन के किसी भी मोड़ पर आप देखें वे आपका हाथ पकड़ कर आपको आनंद के सागर में ले जाती हैं। वे आपके सिर पर हाथ रखकर आपकी जीवन के प्रति समझ को बढ़ाती हैं।

कुछ फिल्में हैं जो अपने साथ बहा कर ले जाती हैं और उस समय बस वही सत्य लगता है जो दिखाया जा रहा है और जिस विषय के ऊपर फिल्म बनी हुयी है, वही विषय सच और महत्वपूर्ण लगने लगता है। तीन देवियाँ जैसी फिल्में इतना तय कर देती हैं कि जीवन के रंग हजार हैं और हँसते-खेलते कटता जीवन भी कैसे कैसे गम्भीर मुद्दे सामने ले आता है।

देव आनंद की B&W फिल्मों में बहुत सारी बहुत ही अच्छी फिल्में हैं और उन्हे देखकर एक बात निश्चित हो जाती है कि दुनिया के किसी भी फिल्म उद्योग में देव आनंद कार्य करते उन्हे वहीं एक बड़ा सितारा बनने से कुछ और कोई नहीं रोक सकता था।

तीन देवियाँ ऐसी फिल्म है जिस पर लिखना बहुत कठिन है क्योंकि यह ऐसी फिल्म है जो एक रोमांटिक कॉमेडी के रुप में शुरु होती है पर धीरे धीरे इतनी घुमावदार बन जाती है कि देव एक फिल्म मात्र के नायक न रहकर बहुत सारे पुरुषों के प्रतिनिधि बन जाते हैं और असमंजस में फँसे नायक-चरित्र -देव सभी दर्शकों से पूछने लगते हैं कि आप मेरी जगह होते तो क्या करते ऐसी स्थिति में?

तीन देवियाँ बहुत से मामलों में एक अलग तरह की फिल्म है हिन्दी सिनेमा की। ताज्जुब होता है कि सन 1965 में ऐसी हिन्दी फिल्म बनी और आसानी से प्रदर्शित हुयी! उस समय के लिहाज से इसका कथानक बेहद अत्याधुनिक था, उस वक्त्त यह बहुत आगे की फिल्म मानी गयी होगी। चार मुख्य चरित्रों की ही बात करें तो परिवार की इकाई पर टिके भारतीय समाज में वे सब एकल स्वतंत्र चरित्र के रुप में फिल्म में सामने आते हैं। न तो नायक और न ही तीनों नायिकाओं में से किसी के पारिवारिक सम्बंध दिखाये गये हैं। किसी के माता-पिता आदि बुजुर्गों की उपस्थिति फिल्म में नहीं है। न ही किसी भी चरित्र के भाई या बहन का कोई जिक्र है। फिल्म में दो बुजुर्ग हैं भी तो लॉज के मालिक दम्पत्ति (हरिन्द्रनाथ चट्टॊपाध्याय और सुलोचना उर्फ रुबी मयर्स), जिनका कोई भी सीधा सम्बंध फिल्म के नायक या किसी भी नायिका से नहीं है। यह एक अलग तरह का प्रयोग किया था नवकेतन फिल्म्स और इसके लेखकों ने। यह एक अलग तरह का प्रयोग किया था फिल्म के निर्देशक और लेखकों ने।

आश्चर्य है कि इस फिल्म पर ढ़ंग से तवज्जो नहीं दी गयी। इसे एक तरह से सदा नकारा ही गया है। एस.डी बर्मन के बेहद शानदार संगीत के अलावा इस फिल्म की चर्चा न के बराबर होती है और होती भी है तो ऋणात्मक भावों में कि फिल्म अच्छी नहीं थी। इस फिल्म के साथ एक तरह से अन्याय होता आया है।

देव आनंद की स्क्रीन प्रजेंस से पूर्णतया मेल खाती यह फिल्म भरपूर मनोरंजक भी है और इसके कथानक में जो घुमावदार मोड़ हैं वे दर्शक के दिमाग को मथते हैं और फिल्म केवल समय काटने के लिये या मनोरंजन के लिये देखी फिल्म ही नहीं रह जाती। देव के चरित्र की मुश्किलें दर्शकों के साथ रिश्ता कायम कर लेती हैं। जो सवाल देव के सामने खड़े हैं वे ही दर्शकों के सामने भी आ खड़े होते हैं कि ऐसी स्थिति में ऐसा क्या किया जा सकता है जो कि सही हो और सटीक हो और न्यायपूर्ण भी हो।

युवा नायक देव (देव आनंद), तीन युवतियों, नंदा (नंदा), सिमी (सिमी ग्रेवाल), और कल्पना (कल्पना) के साथ प्रेम में है और तीनों आकर्षक एवम गुणी महिलायें हैं और तीनों देव से प्यार करती हैं और तीनों अपने-अपने तरीके से देव पर दबाव डाल रही हैं कि वे उनके प्रति अपने प्रेम का इजहार करें जिससे स्थिति साफ हो और देव साहब हैं कि उलझन में हैं कि कौन है जो उनके लिये सच्ची जीवन साथी बन सकती है। वे तीनों से प्रेम करते हैं। तीनों का साथ उन्हे भाता है। तीनों में से किसी को भी वे दुख नहीं दे सकते, तीनों में से किसी को भी दुखी नहीं देख सकते। तीनों से उनके दिल के तार जुड़े हुये हैं।

वे कैसानोवा नहीं हैं। वे प्लेबॉय नहीं हैं। बस वे समझ नहीं पा रहे हैं कि इन तीनों में से किसके साथ उन्हे घर बसाना चाहिये? एक तो उन्होने सोचा नहीं था कि बम्बई शहर में नौकरी मिलते ही उनका जीवन तेज रफ्तार से दौड़ने लग जायेगा और न केवल एक कवि के रुप में सफलता उनके कदम चूमने लगेगी बल्कि तीन खूबसूरत और गुणी युवतियाँ भी उनके जीवन में प्रवेश कर जायेंगीं। शादी के लिये वे वे अभी तैयार नहीं थे परंतु तीनों से उनका स्नेह है और प्रेम तो कम्बख्त भाव ही ऐसा शरारती है कि बस वह तो बस ही जाता है जीवन में अपने आप। इससे बड़ा अतिथि होता नहीं कोई जीवन में। जीवन की किस बेला में प्रेम का आगमन हो जाये कोई नहीं बता सकता।

देव अगर एक प्लेबॉय ही हों तो वे अपनी तीनों ही महिला मित्रों को प्रेमिका के रुप में अपनाने से इंकार करके ऐसे ही जीवन जीने लगें जहाँ दौलत, शोहरत और कामयाबी उनके गहरे दोस्त बन जायें और जहाँ युवतियाँ भी उनसे सम्पर्क बढ़ाने को उत्सुक हों। अनेक युवतियाँ अभी भी उनमें दिलचस्पी लेती ही हैं। देव युवा हैं, खूबसूरत हैं, गुणी हैं, आत्मविश्वासी हैं, कवि हैं, और एक मधुर वाणी के मालिक हैं। उनके पास सब कुछ है जो एक बेहद योग्य व्यक्ति में हो सकता है।

यह उनके जीवन की विडम्बना ही है कि उनके जीवन में कुछ ही समय के भीतर ही तीन ऐसी बेहद आकर्षक महिलाओं का आगमन होता है जो तीनों ही उनसे प्रेम करने लगती हैं। देव को भी तीनों से ही प्रेम है। तीनों का साथ उन्हे भाता है। तीनों में से किसी के साथ भी उनकी जोड़ी बन सकती है और वे खुश रहेंगे।

जीवन खुशी खुशी चल रहा है। तीन युवतियों का उनके जीवन में आना तो ठीक है और वे इसे संभाल सकते हैं पर तीनों के साथ उनके रिश्ते गहराई पकड़ने लगते हैं और यही नजदीकियाँ उनके जीवन में परेशानी का सबब बन जाती हैं। जैसे जैसे उनके इन युवतियों से रिश्ते गाढ़े होते जाते हैं और तीनों उनसे विशिष्ट स्थान की अपेक्षा करने लगती हैं वैसे-वैसे उनकी स्थिति कुछ कुछ ऐसी होती जाती है जिसके लिये किसी जहीन शायर ने कहा था।

जू जू दयारे इश्क में बढ़ता गया
तोहमतें मिलती गयीं रुसवाइयाँ मिलती गयीं।

सन 1965 की फिल्म – तीन देवियाँ, से अलग हटकर ज़रा सन 1984-85 में आते हैं। 1984 के पूर्वाद्ध में भारत ने रुसी अंतरिक्ष यान Soyuz T-11 में राकेश शर्मा को अंतरिक्ष में भेजा और उसी वर्ष गरमियों में ही भारतीय टेलीविज़न के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण हस्ताक्षर “हम लोग” गढ़ा गया। जिन्होने मनोहर श्याम जोशी की कलम से निकले इस विलक्षण रुप से भारतीय मध्य वर्ग (निम्न और मध्यम स्तर के मध्य वर्गीय) की जनता के जीवन से गहराई से जुड़े हुये टीवी धारावाहिक को देखा है उन्हे एक खास प्रसंग भूला न होगा। निम्न मध्यवर्गीय बसेसर राम (विनोद नागपाल) के छोटे पुत्र नन्हे (अभिनव चतुर्वेदी) का सपना है क्रिकेटर बनना। अक्सर “हम होंगे कामयाब” गाने वाले नन्हे की दोस्ती है अपनी ही जैसी आर्थिक स्थिति में पली बढ़ी, आसपड़ोस में रहने वाली लड़की से। लड़की नन्हे से प्रेम करती है। महत्वाकांक्षी नन्हे को करोड़पति पिता की एकमात्र पुत्री काम्या (कामिया मल्होत्रा) भी पसंद करने लगती है। काम्या के पिता नन्हे और काम्या की नजदीकी को पसंद नहीं करते। नन्हे के साथ साथ “हम लोग” देखने वाला हिन्दुस्तान दो हिस्सों में बँट गया था। एक वर्ग को नन्हे का उसके पड़ोस में रहने वाली लड़की से प्रेम सुहाता था और दूसरे वर्ग को नन्हे और काम्या की प्रेमकहानी स्वीकृत थी। जाहिर था काम्या के साथ नन्हे का भविष्य एक धनी व्यक्ति का हो सकता था। सफलता उसके कदम चूमती और पड़ोस में रहने वाली लड़की के साथ संघर्षमयी जीवन होता। स्थितियाँ कुछ ऐसी करवट लेती हैं कि काम्या के पिता की असलियत नन्हे पर जाहिर हो जाती है। वह अंडर्वर्ल्ड डॉन है और अपने को “नर्क का राजा” कहता है। नन्हे उसके जाल में पूरी तरह फंस जाता है। इस सचाई के बावजूद भी भारत के दर्शक नन्हे के प्रेम को लेकर दो ही हिस्सों में बँटे रहे क्योंकि काम्या को अपने पिता के लुके छिपे अपराधी जीवन के बारे में जानकारी है नहीं।

हम लोग” के प्रसंग का विवरण इसलिये आवश्यक लगता है कि तीन देवियाँ के लगभग बीस साल बाद मनोहर श्याम जोशी ने ऐसी ही परिस्थितियाँ हम लोग में उत्पन्न कीं और इस विषय से लोगों का भरपूर जुड़ाव देखा गया। यह ऐसी परिस्थिति नहीं है कि वास्तविक जीवन में उत्पन्न न हो सके। आखिरकार जब बहुविवाह होते थे भारत में तो ऐसा भी संभव है कि किसी व्यक्ति की तीन पत्नियाँ हों और उसक तीनों से प्रेम बरकरार हो। स्त्री को बहुविवाह की छूट अपवाद ही रही है सो उसका जिक्र यहाँ प्रासंगिक नहीं है।

इसे आश्चर्यजनक ही माना जा सकता है कि एक नायिका द्वारा दो नायकों में से एक को चुनने के विषय पर तो बहुत सारी हिन्दी फिल्में बनी हैं, देव आनंद ने खुद लव एट टाइम्स स्क्वायर इसी विषय पर बनायी थी, पर एक नायक के दो या दो से ज्यादा नायिकाओं के बीच चुनाव करने पर अगर बनी भी होंगी तो बहुत ही कम फिल्में बनी होंगी और उनमें सबसे उल्लेखनीय फिल्म तीन देवियाँ ही है।

जीवन में प्रेम के अनगिनत रुप हैं और प्रेम पर लिखे जा सकने वाले सबसे बड़े ग्रंथ का एक अध्याय ऐसी स्थितियों का भी हो सकता है जैसी स्थितियाँ तीन देवियाँ में दिखायी गयी हैं। फिल्म इस स्थिति को विश्वसनीय बनाती है जहाँ दर्शक को लगे कि वाकई देव को तीनों नायिकाओं से प्रेम है और उन तीनों को ही देव से प्रेम है और तीनों नायिकाओं में से प्रत्येक इस तथ्य को जानती है कि बाकी दोनों नायिकायें भी देव से प्रेम करती हैं।

तीन देवियाँ में देव का किसी भी नायिका से पहली नज़र वाला प्रेम नहीं है। उसमें शुरुआती भावुकता का स्थान नहीं है। यहाँ प्रेम धीरे-धीरे और लगातार मिलते जुलते रहने से पनपा है और यह मैत्री की बुनियाद से जन्मा है। तीनों से ही पहले देव की मित्रता होती है और बाद में तीनों के मन में देव के लिये पेम के अंकुर फूटते हैं।

देव की तीन महिला मित्रों के मध्य कुछ अंतर हैं।

देव जब बम्बई में रोजगार की तलाश में आते हैं तो जिस लॉज में वे ठहरे हैं वहीं रहने वाली नंदा से उनकी मुलाकात होती है। नंदा उन्ही के जैसी आर्थिक एवम सामाजिक पृष्ठभूमि की प्रतिनिधि है और उन्ही की तरह एक साधारण नौकरी करके जीवनयापन कर रही है।

नंदा ने बम्बई में शुरु से से उनका विकास देखा है। नंदा के सामने ही उन्होने कवि होने की सफलता की शुरुआती सीढ़ी चढ़ी है। कहा जा सकता है कि नंदा उनके जीवन को बाकी दोनों नायिकाओं से इस लिहाज से थोड़ा ज्यादा जानती है जब लोगों पर देव के कवि होने का गुण जाहिर भी नहीं हुआ था। नंदा ने उन्हे एक साधारण पर आकर्षक युवा के रुप में जाना था। देव की कविताओं के छपने के सपने में वह सम्मिलित थी।

देव की अगली मुलाकात होती है अभिनेत्री कल्पना से जो देव की इस बात पर आकर्षित हो जाती है कि देव ने उनके एक सितारा होने की छवि को कोई भाव नहीं दिया और उनके स्त्री रुप को सम्मान देकर उनसे बर्ताव किया।

नंदा और कल्पना, दोनों से ही देव की पहली-पहली मुलाकात छोटी झड़पों से होती है, पर अगली मुलाकात तक सम्बंध सामान्य हो जाता है।

देव की तीसरी मुलाकात होती है धनी सोशलाइट सिमी से। अब तक देव की किताब छप चुकी है और जब देव सिमी से मिलते हैं तो वे उन्ही की किताब पढ़ रही हैं। बस उन्हे यह पता नहीं है कि सामने खड़े शख्स देव ही कवि देव भी हैं।

सिमी देव को सफलता और शोहरत की ऊँचाइयों पर ले जाना चाहती है। कल्पना के साथ भी देव समाज में एकदम से ऊपर उठ जायेंगे। सिर्फ नंदा का साथ ऐसा है जहाँ किसी किस्म के भौतिक प्रलोभन की गुँजाइश नहीं है।

देव का मिलना जुलना तीनों से होने लगता है और तीनों के मन में देव जगह बनाते जा रहे हैं। उन्हे खुद भी इस बात का एहसास है पर वे इन सिलसिलों को रोकने में या तो असमर्थ हैं या वे इस बहाव के साथ बहे जा रहे हैं। सब कुछ तेजी से हो रहा है। सबसे कमजोर स्थिति में नंदा हैं। जब तक उन्हे कल्पना और सिमी के बारे में पता नहीं है वे यही मानकर चलती हैं कि देव सिर्फ उन्हे ही जानते हैं इस शहर में। एक शाम देव को वे अपने कमरे में दावत देना चाहती हैं, उन्हे लगता है कि शायद देव खुल कर कुछ कहें, प्रेम का प्रस्ताव रखें। अपने सपनों में गुम, खुश हो वे दावत की तैयारी कर रही हैं, बाजार से महंगी सब्जियाँ खरीदती हैं। भारत के सबसे अच्छे कश्मीरी सेव खरीदती हैं पर उनके अंदर इस वक्त्त तक आत्मविश्वास की कमी है अपने और देव को लेकर। देव को कल्पना के साथ कार में जाता देख ही वे सड़क पर सब सामान गिरा बैठती हैं।

शाम को वापिस आने पर देव का चरित्र, उनकी मनोस्थिति बहुत अच्छे ढ़ंग से सवांदो के जरिये प्रदर्शित की गयी है। दृष्य और संवाद बेहद अच्छे हैं।

कुछ और समय बीतने पर नंदा देव को साथ लेकर शहर से बाहर गाँव में जाती हैं और देव पर दबाव डालती हैं कि वे उनसे प्रेम के सम्बंध में खुल कर कहें। फ़िल्म यहाँ पर एक बेहद खूबसूरत गीत – लिखा है तेरी आँखों में को अवतरित करके एक संगीतमयी माहौल में दोनों चरित्रों द्वारा इस स्थिति को सुलझाने की कोशिशों को दिखाती है|

जब नंदा भावनाओं की नदी में डूबी हुयी प्रतीक्षा कर रही हैं कि देव साफ साफ शब्दों में अपने प्रेम का इजहार करें। तो देव कहते हैं,

प्रेम की पुकार अगर सौ फीसदी (%) सच नहीं है तो जीवन में इससे बड़ा कोई झूठ नहीं है।

जितना यह संवाद सच्चा और वजनदार है उनते ही प्रभावी ढ़ंग से देव आनंद ने इसे कहा भी है।

प्रभावी दृष्य और संवाद ही फिल्म को उथलेपन से बचाकर गहराई प्रदान करते हैं।

एक स्थिति ऐसी आती है कि तीनों युवतियाँ ही देव पर दबाव डालने लगती हैं कि वे खुले शब्दों में अपने प्रेम का इज़हार करें और देव अभी इस निर्णय पर पहुँचे नहीं हैं।

ऊहापोह में घिरे देव को सिमी कश्मीर में होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में शिरकत कराने ले जाती हैं। कल्पना शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता गयी हैं।

सिमी तो देव का काव्य पाठ सामने बैठी सुन रही हैं और कल्पना और नंदा रेडियो पर देव को सुन रही हैं। नंदा दुखी हैं पर देव के काव्य में उन्हे अपने प्रेम की झलक मिलती है।

भगवती चरण वर्मा ने नीचे प्रस्तुत की गयी कविता लिखी तो प्रेमिका के विरह में तड़प रहे प्रेमी के लिये थी पर अगर स्त्री-पुरुष के भेद से परे हटें तो यह नंदा की स्थिति, भावनाओं और मनोस्थिति पर माकूल बैठती है।

क्या जाग रही होगी तुम भी?
निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये!
अपना यह व्यापक अंधकार,
मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार;
मेरी पीड़ाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल;
किस आशंका की विसुध आह!
इन सपनों को कर गई पार
मैं बेचैनी में तड़प रहा;
क्या जाग रही होगी तुम भी?

अपने सुख-दुख से पीड़ित जग, निश्चिंत पड़ा है शयित-शांत,
मैं अपने सुख-दुख को तुममें, हूँ ढूँढ रहा विक्षिप्त-भ्रांत;
यदि एक साँस बन उड़ सकता, यदि हो सकता वैसा अदृश्य
यदि सुमुखि तुम्हारे सिरहाने, मैं आ सकता आकुल अशांत

पर नहीं, बँधा सीमाओं से, मैं सिसक रहा हूँ मौन विवश;
मैं पूछ रहा हूँ बस इतना- भर कर नयनों में सजल याद,
क्या जाग रही होगी तुम भी?

देव के प्रति सिमी की भावनायें गहरी होती जा रही हैं। वे देव को उकसाना भी चाहती हैं जिससे देव उनके पक्ष में निर्णय लें और वे खुद को रोकना भी चाहती हैं जिससे कि देव के पहल करने से पहले कुछ ऐसा न हो जाये जिस पर उन्हे पछताना पड़े।

उनकी स्थिति कुछ ऐसी है –

निगाहों में समाती नहीं है सूरत तुम्हारी
काश! मैंने तुम्हे गौर से देखा न होता

उधर कल्पना भी प्रेम से पीड़ित हो उठी है। देव के काव्य पाठ को सुन वह देव की अनुपस्थिति को महसूस करने लगती है और ग्लैमर संसार की चमक दमक को पसंद करने वाली सुख सुविधाओं के मध्य रहने वाली कल्पना की इस समय की भावनाओं की तीव्रता कुछ इस प्रकार की है –

तेरे बगैर किसी चीज की कमी तो नहीं
हाँ तेरे बगैर दिल उदास रहता है

जब उनसे देव से दूरी सही नहीं जाती तो वे विमान से सीधे कश्मीर पहुँच जाती हैं और देव के कमरे में उनकी अनुपस्थिति में ही विराजमान हो जाती हैं। देव उनके ऐसे अचानक चले आने पर आश्चर्यचकित हैं, उनकी दुविधा और बढ़ गयी है। वे सिमी से कह चुके हैं कि उन्हे तीन दिनों की मोहलत दी जाये।

कल्पना देव के ऊपर अपनी भावनायें प्रकट करती हैं जिनका लुब्बेलुबाव इन दो पंक्तियों से प्रस्तुत किया जा सकता है।

आप अगर खफा न हों तो आप ही से पूछ लें
आपसे मिले कितने दिन गुजर गये

देव उनसे भी कुछ दिनों की छूट मांगते हैं और कहते हैं कि अगर उनके पास आया तो जीवन भर के लिये और नहीं तो बस अलविदा।

प्रेम के आगमन से व्यक्ति खुश होता है पर देव की स्थिति कुछ और ही है

न जाने क्यों बदलती जा रही है ज़िंदगी अपनी
खुशी में आजकल कुछ ग़म भी शामिल होता जा रहा है

देव को अब समझ में आता है एक प्रसिद्ध शेर का मतलब

ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिये
इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है

देव को किसी एक स्त्री के प्रेम को परिणति देनी है। वे ऐसा करते भी हैं पर बस यहीं आकर अभी तक रोचकता से पेचीदगी दिखा रही फिल्म समझौता कर जाती है।

यह सच है कि फिल्म और ज्यादा गहराई अपना सकती थी। फिल्म को अंत तक पहुँचाने के लिये देव द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया एक व्यवसायिक समझौता लगती है। शायद उस वक्त्त की सामाजिक परिस्थितियों को भाँप कर ऐसा सोचा गया हो कि परम्परागत किस्म का अंत फिल्म की व्यवसायिक सफलता के लिये बेहतर होगा।

बेहतर होता कि जब देव का चरित्र दर्शक से सामंजस्य जोड़ लेता है और देव की समस्या दर्शक को अपनी या जानी पहचानी लगने लगती है तो फिल्म का अंत खुला छोड़ा जा सकता था, जिसमें दर्शक को नहीं पता कि देव ने किस युवती को चुना..क्योंकि फिल्म बहस तो उत्पन्न कर सकती है निश्चित सूत्र नहीं दे सकती ऐसे मामलों में। या अगर देव के चुनाव को दिखाना ही था तो इसे सम्मोहन प्रक्रिया से अलग गहन सोच की प्रक्रिया का परिणाम दिखाया जा सकता था।

जिन्होने फिल्म को डीवीडी काल से पहले कभी देखा है उन्हे पता है कि इस B&W फिल्म में सिर्फ एक हिस्सा, जिसमें देव सम्मोहन प्रक्रिया से गुजरते हैं और तीनों युवतियों के साथ अपने संभावित भविष्य को देखते हैं और नंदा, सिमी और कल्पना में से एक के साथ घर बसाने का निर्णय लेते हैं, रंगीन है।

डीवीडी बनाने वाली कम्पनियाँ हिन्दी फिल्मों के साथ मनमाना अत्याचार करती हैं और जैसी उनकी इच्छा होती है उसके अनुसार वे फिल्म में काट-छाँट कर देती हैं। इन कम्पनियों की ऐसी कुबुद्धि का परिणाम है कि तीन देवियाँ के नये दर्शक इसके इस तकरीबन 12-14 मिनट लम्बे रंगीन भाग को देखने से वंचित रह जाते हैं और देव को राशिद खान के टेंट में घुसते दिखाया जाता है और वहाँ से निकलकर भागते हुये, पर बीच में क्या हुआ, यह दर्शक को पता नहीं चल पाता। पुरानी फिल्मों के मूल स्वरुप के साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिये।

देव आनंद, नंदा, सिमी ग्रेवाल और कल्पना के बेहतर अभिनय के अलावा फिल्म को आई.एस.जौहर, हरिन्द्रनाथ चट्टॊपाध्याय और सुलोचना उर्फ रुबी मयर्स के अच्छे अभिनय का सहारा भी मिलता है। एस.डी. बर्मन द्वारा इस फिल्म में दिया संगीत उनके शीर्ष एल्बमों में से एक है।

इस मनोरंजक फिल्म को इसके सही परिपेक्ष्य में देखने पर इसका विषय उन विचारों को दर्शक के समक्ष उठाता भी है जिन पर फिल्म की बुनियाद टिकी हुयी है।

…[राकेश]

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