मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ बरसात की एक रात का गीत है|

बरसात के मौसम में अलग अलग सुबह, दिन, शाम और रात की बरसात, बरसात से सम्बंधित किसी न किसी फ़िल्मी गीत की याद दिलाती ही है| आज शाम बरसात की बूँदें हौले हौले वाला स्पर्श प्रदान करते हुए आसमान से गिरने लगीं तो यही गीत याद आया| यूं फ़िल्म में तो जब यह गीत अपना जीवन जी रहा है तब बाहर तेज बरसात हो रही है|

प्रेमी प्रेमिका पर ऐसे इंटिमेट गीत को फिल्माया जाए तो सिनेमा के परदे पर काव्य अपने आप शब्दों और दृश्यों के माध्यम से बरसने लगता है| लेकिन पति पत्नी को घेर कर इस गीत की नदी उन्हें भिगोते हुए बहती है तो यह इस गीत की विशेषता भी बन जाती है| अभिनेत्री तनूजा का फिल्मों में पदार्पण हुआ तो वे अधिकतर एक चुलबुली प्रकृति के चरित्र निभाया करती थीं और अपने इस फन में वे माहिर थीं| यहाँ अनुभव में उनका प्रवेश एक धीर गंभीर बुद्धिजीवी संपादक, अमर (संजीव कुमार) की पत्नी, मीता, के रूप में हुआ है| लगभग छः साला वैवाहिक जीवन में अमर और मीता का जीवन एक सधे हुए ढर्रे पर चलने वाला जीवन है, जिसमें सलीका भी है, हर काम करीने का भी है लेकिन जीवन का उल्लास नहीं है| लेकिन प्रेम और बाकी सभी तत्व जिनसे घर बनता है एक मकान का, एक गृहस्थी जमती है उसका अभाव है| पति पत्नी में नजदीकी का अभाव है परस्पर छेड़छाड़ का अभाव है| ऐसे में मीता अपने स्वभाव को लेकर मैदान में कूदती है कि इस सजे सजाये सुविधा संपन्न मकान को घर बना कर ही रहेगी| अपने व्यावसायिक कार्य में दक्ष पुरुष को घर के समय घरेलू और प्रेम से सराबोर पति बनाकर ही रहेगी|

स्त्री जीवंत हो तो जीवन के बहुत से रस घर में बरसात की तरह बरसने लगते हैं|

मीता पहले स्वंय को स्थापित और उभरती है अब वह अमर को घर में स्थिर और रिश्ते में एकरूप करना चाहती है|

जब वह ऐसा ठान लेती है तो उसकी तैयारी के समय का गीत है – मेरा दिल जो मेरा होता| वह उसके बेरंग जीवन में रंग भरना शुरू करते समय का गीत है|

और उसके बाद का गीत – मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ, उस वक्त का है जब उसके वैवाहिक कैनवास पर उनकी संयुक्त पेंटिंग रंगों से निखरने लगी है|

मेरा दिल जो मेरा होता, एकल गीत है जिसे नायिका एकांत में गाती है, और उसमें तनूजा को अपनी शोखी का उपयोग करना था जिसमें वे माहिर रही हैं|

यहाँ इस गीत में, जो है तो एकल गायिका द्वारा गाया हुआ, लेकिन वह नायक की उपस्थिति में गाया गया है और उनके निजी स्पेस को दर्शा रहा है अतः एकल होते हुए भी एकल नहीं है बल्कि एक युगल गीत सरीखा ही है बस पुरुष गायक के स्वर नहीं हैं| यहाँ तनूजा को सुचित्रा सेन सरीखा होना था और इस लक्ष्य को भी वे सफलतापूर्वक प्राप्त कर लेती हैं|

नंदू भट्टाचार्य का कैमरावर्क और बासु भट्टाचार्य का निर्देशन पूरी योजना से इस श्रृंगार रस के गीत को दर्शाता है|

झमाझम बरस रही बरसात को खिड़की के कांच से बाहर देख कहीं खोया हुआ अमर घर की खिड़की का ही कोई हिस्सा लगता है जिसे कैमरा बाहर से दिखाता है| जैसे ही मीता फ्रेम में आती है घर के उतने हिस्से में जीवतंता आती है और वे दोनों वर्तमान में पूरे जी उठते हैं, अब कैमरा अन्दर से बाहर के दृश्य दिखाता है जिसमें बाहर बरसात का पेड़ पौधों और उनकी पत्तियों पर असर है, जमीन पर बह रहे पानी की सतह पर ऊपर से आते बरसात की बूंदों का लगातार टपक कर उसी में विलीन हो जाना है| निरंतर घर के अन्दर की अमर मीता की निकटता के निजी स्पेस के क्लोजअपस और बाहर के दृश्यों के संगम से गीत अपने में कई तरह की ख़ूबसूरती भरता जाता है| इन सबके साथ गुलज़ार शब्दों के साथ छेड़छाड़ करके पहेली सी रखते रहते हैं हरेक पंक्ति में|

मेरी जाँ, मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ

जाँ न कहो, अंजान मुझे

जान कहाँ रहती है सदा

अंजाने, क्या जाने

जान के जाए कौन भला

मेरी जाँ

मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ

गीत के इस अंतरे का अर्थ शब्द विन्यास में एक कॉमा का स्थान बदल देने से ही बदल जाता है|

सूखे सावन बरस गए

कितनी बार इन आँखों से,

दो बूँदें ना बरसे

इन भीगी पलकों से

मेरी जाँ

मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ …

आज जब इतनी नजदीकी है मीता की अमर से, तब उसे छः साल का बीते समय की याद उदास भी कर देती है, शायद यह सोच कर कि इतना समय किस फीके तरीके से गुज़ार दिया| जहां बसंत भी आया होगा, सावन भी आया होगा, बरसात भी झूम के बरसी होगी, लेकिन उन्हें इनकी खूबसूरती का एहसास ही नहीं हुआ क्योंकि उनके दिल ही रमे हुए नहीं थे, संयुक्त जीवन में|

होंठ झुके जब होंठों पर

साँस उलझी हो साँसों से

दो जुड़वाँ होंठों की

बात कहो आँखों से

मेरी जाँ

मुझे जाँ न कहो मेरी जाँ

ऐसे स्पष्ट भाव वाले श्रृंगार रस के गीत गुलज़ार ने कम लिखे हैं|

इस अंतरे के दृश्यांकन में संजीव कुमार कमाल करते हैं, वे ऐसे व्यक्ति बन कर इस क्षण के साक्षी बनते हैं जो व्यस्तताओं के कारण पुरुष घरेलू सहायकों, व्यावसायिक पुरुष सहकर्मियों के बीच ही रहता या है और जो शायद पढ़ते समय भी ऐसे अवसर न पा पाया होगा कि उसके दिल में किसी स्त्री के प्रति कोमल भावनाएं जगी हों| ऐसा पुरुष जिसने जीवन में एक अदद प्रेम पत्र न लिखा हो, भले देश दुनिया के मामलों पर बड़े बड़े लेख लिख डाले हों| उसके सामने दो जुडवा ओठों से न कह पा सकने के कारण आँखों से वही बात कहने की गुजारिश उसकी पत्नी कर रही है तो निपट भोले पर कितना बड़ा इमोशनल अत्याचार कर रही है, वह तो अनुभवहीन होने के कारणउसे बस टुकुर टुकुर ताकता ही रह जाता है, जैसे किसी अच्छे शायर के किसी शानदार शेर पर प्रशंसात्मक न कह कर सुनने वाला बस देखता ही रहे| संजीव कुमार अपने चरित्र की सारी बुनावट इस अंतरे के समय अपने अभिनय में उतार देते हैं, इसलिए अन्य अभिनेता अभिनेत्रियाँ उनके साथ काम करते समय बेहद चौकन्ना रहते थे उन्हें पटता यह ढीला ढाला दिखाई देने वाला अभिनेता कब मानसिक रूप से परदे पर क्या खेल खेल जाएगा इसे निर्देशक लोग भी एडिटिंग टेबल पर ही जान पाते हैं|

अब जो अमर असली बारिश में भीग गया है अति उत्साह में मीता की करनी के सम्मोहन में, उसका खामियाजा तो उसके ऐसे एडवेंचर से अपरिचित शरीर को भुगतना ही पड़ेगा| पर वह मेडिकल साइंस वाला क्षेत्र है| पेम में भले शरीर में विशेष रसायन उमड़ते हों, पर प्रेम अद्भुत भाव है उस अद्भुत भाव का ही यह गीत है|

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