वी. शांताराम, हिन्दी और मराठी सिनेमा के बहुत बड़े निर्माता, निर्देशक, प्रसिद्द फ़िल्म निर्माण कम्पनी – राजकमल कलामंदिर के स्थापक ही नहीं बल्कि सिनेमा में भारतीय संस्कृति को प्रस्तुत करने वाले अद्भुत कल्पनाशीलता के स्वामी निर्देशक और आपदा में नई विधियां खोज लेने वाले सिने तकनीशियन भी थे|

सामाजिक प्रासंगिकता से भरी कहानियां या विषय चुनने वाले, वी. शांताराम की फिल्मों का संगीत पक्ष बेहद मजबूत रहा है| उनके नेतृत्व के उदार व कल्पनाशील संसार का ही कमाल है कि संगीतकार चाहे वसंत देसाई रहे हों, सी. रामचंद्र रहे हों, शिवराम कृष्ण रहे हों, एस पुरुषोत्तम रहे हों, या रामलाल रहे हों, उनकी फिल्मों के गीतों में भारतीय शास्त्रीय संगीत का समावेश सदैव उपस्थित दिखाई देता है| और गीतकार चाहे भरत व्यास हों या हसरत जयपुरीवी शांताराम की फिल्मों के गीत विशुद्ध भारतीयता से भरे गीत हैं और यह स्पष्ट निर्देश उनकी तरफ से गीतकार और संगीतकार को मिले ही रहते होंगे कि कैसे गीत लिखने हैं और कैसा संगीत रचना है| उनकी कई फिल्मों के बहुत से गीत ऐसे हैं जो हिन्दी सिनेमा के सर्वकालिक महान गीतों की सूची बना रहे हरेक चुनाव करने वाले संगीतप्रेमी की सूची में रहेंगे ही रहेंगे| थोड़ा सा ध्यान देने पर कोई श्रोता गीत सुनने पर बता सकता है कि यह गीत वी शांताराम की किसी फ़िल्म का गीत लग रहा है|

उनकी तीसरी पत्नी अभिनेत्री संध्या ने फ़िल्म- सेहरा में एक ऐसी नवयुवती की भूमिका निभाई थी जो युद्धकला में पारंगत है और अपने समकक्ष पुरुषों को हरा सकती है|

इसमें एक गीत है – पंख होते तो उड़ आती|

इस गीत के बोल (हसरत जयपुरी), गायन (लता मंगेशकर) और संगीत (राम लाल) तीनों पक्ष इसे ऑडियो संस्करण में एक महान गीत बनाते हैं| साथ ही इसका फिल्मांकन ऐसा विशिष्ट है कि यह ट्रेडमार्क वी शांताराम फिल्मांकन की सील के साथ दर्शक के सामने आता है|

प्रेमी से दूरी को महसूस कर रही नायिका (संध्या) अपनी सखी और सहयोगी (मुमताज़) के साथ अपनी बगिया में नाच गाकर अपने मन के उदगार प्रकट कर रही है| प्रेम में होना उसके लिए प्रसन्नता का विषय है और यह उसके गायन और नृत्य से झलकता है| अभी प्रेम की पहली ही कुछ स्थितियां हैं जहां सुखद भविष्य के सपने हैं| अभी वियोग के बादलों ने आकर प्रेम को घेरा नहीं है|

संगीतकार रामलाल का चिरपरिचित लम्बा आलाप जब लता जी गुनती हैं तो वी शांताराम की कल्पना के अनुसार कृष्णराव वर्शिदे का कैमरा स्वच्छ नीले आकाश में उड़ते पंछियों को दिखाता है और जब आसमान और वहां उन्मुक्त उड़ान का आनंद ले रहे पक्षियों की खूबसूरती से दर्शक की आँखें और लता जी के कर्णप्रिय आलाप की मिठास से उसके कान बंध जाते हैं तो कैमरा टिल्ट होकर शटाक से स्टेज पर नृत्य के लिए तैयार खडी अभिनेत्री की तरह उपस्थित नायिका को दिखाने लग जाता है जो तुरंत नृत्य के लिए अपने शरीर के प्रत्येक अंग को थिरकाकर गीत के श्रव्य अंग को अपने पर केन्द्रित कर देती है|

पंख होते तो उड आती रे, रसिया ओ जालिमा

तुझे दिल का दाग दिखलाती रे

वी.शांताराम कितने लम्बे लम्बे शॉट्स लेते थे यह इस गीत से स्पष्ट हो जाता है|

संध्या को उनके चरित्र की भांति एक मजबूत शरीर की स्वामिनी दिखाया गया है| कभी वे नाजुकता से मोर की, बत्तख की, कबूतर की शारीरिक हरकतों की नक़ल करती हैं तो कभी एक सिद्ध योगी की भांति योग के कठिन आसनों का समावेश आने नृत्य में कर देती हैं| चलते हुए वीरभद्रासन करना हंसी खेल नहीं है वह भी तब जब यह एक लम्बे टेक की योजना के अंतर्गत किया गया हो |

तालाब में लगे लोहे के फव्वारे के ऊपर झुककर योग का आसन करना किसी खतरनाक स्टंट से कम नहीं था पर संध्या को अपने पर वी शांताराम को उन के संतुलन पर भरोसा था|

बहुत कम फ़िल्मी गीतों में वाद्य यंत्र – जल तरंग की मधुर ध्वनि सुनने को मिलती है और इस गीत में वह ध्वनि उपस्थित है| जल तरंग बजने के समय संध्या के नृत्य की हरकतें और चेहरे की भाव भंगिमाएं दर्शनीय बातें हैं|

वी शांताराम की फिल्मों के गीतों को उनके पूरे अर्थ सहित देखने के लिए दर्शक को भी एक पात्रता अर्जित करनी पड़ती है| यूं देखने को तो कोई भी संगीत रसिक देखेगा ही, लेकिन उन्होंने जो अपनी निर्देशकीय कला और कल्पनाशीलता का समावेश अपने गीतों के फिल्मांकन में किया हुआ है उसका पूरा पूरा आनंद लेने के लिए दर्शक को बहुत कुछ सीखना पड़ता है|

वी शांताराम ने अपने समय में ही फ़िल्म बनाने वालों और दर्शकों को शिक्षित किया बल्कि आज भी उनकी फिल्मों के तकनीकी पहलू किसी सिनेमा के प्रोफ़ेसर के लेक्चर से कम नहीं|

…[राकेश]


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