प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किताबों से पढ़कर बच्चे नहीं समझ सकते, लाख अध्यापक अच्छा हो लेकिन अगर बच्चों ने सुबह की बेला में सूर्योदय की हल्की से गहरी होती लालिमा से नारंगी होते जाते आकाश को अपनी आँखों से नहीं देखा तो महाकवि माघ का प्रभात वर्णन उनके लिए एक सैद्धांतिक बात ही बन कर रह जाता है|

मानव कितना खूबसूरत कुछ गढ़ लेगा? क्या टाइगर हिल के सूर्योदय के सौदर्य को उतनी ही सुन्दरता से कैनवास पर उतार लेगा, या कि मानसरोवर झील की नीली गहराई को रच देगा, या कि कैलाश पर्वत की विराट उंचाई को ही उकेर देगा? एक बारगी ऐसा कर भी दे, पर जो भावना प्रकृति के इन करिश्मों को साक्षात देखने पर मानव के अन्दर उमड़ेंगे, वैसे एक चित्र, मूर्ति या छवि को देखकर नहीं उमड़ सकते|

प्रकृति के प्राकृतिक सौंदर्य की नक़ल ही होती हैं सारी कलाएं| यह मानव का सौभाग्य था कि फ़िल्म नामक कला का अस्तित्व उसके जीवन में पनप गया और फ़िल्म ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो प्रकृति के असल सौंदर्य को मानव तक लगभग पूर्णता में लेकर जा सकता है|

जीविकोपार्जन और पारिवारिक जिम्मेदारियों में बंधा मनुष्य हरेक जगह का सौन्दर्य अपनी आँखों से उन्हीं जगहों पर जाकर नहीं देख सकता लेकिन वह फिल्मों के माध्यम से उनका आंशिक आनंद ले सकता है और प्रकृति के रचियता के प्रति अनुगृहित हो सकता है|

फ़िल्में बनाते बनाते अद्भुत कल्पनाशीलता के स्वामी वी.शांताराम को भी ऐसा महसूस हुआ होगा कि इतना सौंदर्य प्रकृति ने मनुष्य के चारों ओर बिखेर रखा है और एक फिल्मकार होने के नाते उनकी तमाम फिल्मों में प्राकृतिक सौंदर्य ने उनकी बड़ी सहायता की है क्या अब समय नहीं आ गया कि प्रकृति के रचियता के प्रति अपनी श्रद्धा, अनुग्रह, सम्मान और प्रेम को प्रकट किया जाये?

यह अवसर मिला उन्हें फ़िल्म – बूँद जो बन गया मोती, बनाते हुए| उसका नायक उनकी दो आँखें बारह हाथ के नायक का मानस पुत्र सरीखा ही है| चरित्रवान, दृढनिश्चयी, स्वाभिमानी, आदर्शवाद से भरा हुआ, कर्तव्यनिष्ठ और एक सुनहरे भविष्य के प्रति आशान्वित पुरुष| फ़िल्म में वह एक अध्यापक है जो अपना सौ प्रतिशत योगदान देना चाहता है अपने छात्रों को सुशिक्षा प्रदान करने के लिए| कच्ची मिट्टी सामान किशोर छात्रों को वह सुघढ़ मानवों के सांचे में ढालना चाहता है|

उन्हें प्रकृति के सौंदर्य को दिखाने के लिए वह उन्हें कक्षाओं की चारदीवारी से बाहर निकाल कर प्रकृति की दसों दिशाओं में फ़ैली छटाओं के मध्य ले आता है|

पिछली सदी में दिल्ली में संपन्न एशियाड (1982) के आसपास जन्में बच्चों ने नीला आकाश क्या होता है इसके दर्शन कोविड काल में लम्बे लॉकडाउन के कुछ हफ्ते बीत जाने के बाद ही किये उन्होंने पहली बार रात में काले आसमान में चमकते तारों की छटा देखी, वर्ना तमाम तरह के प्रदुषण से धुन्धलाये आकाश में सिर्फ चाँद ही चमक पाता है, तारे छिपे रह जाते हैं|

जरा सा अवकाश मिलते ही दिल्ली जैसे समतल महानगरों के लोग पहाड़ों की ओर भाग जाते हैं वहां के सौन्दर्य को निहारने, वहां की छटा से अपने अन्दर की बैटरी को चार्ज करने लेकिन वे अपने नगरों के जल. थल और नभ को खूबसूरत बनाने के लिए कुछ नहीं करते|

फ़िल्म का दूसरा गीत (मुकेशसुमन कल्याणपुर का डुएट) वी शांताराम ने स्टूडियो में ही सेट बनाकर फिल्मा लिया था| लेकिन वी शांताराम मनाली गए इस गीत की शूटिंग करने के लिए ताकि उनके दर्शक प्राकृतिक सौंदर्य का विश्वसनीय चित्रण देख सकें और असली प्राकृतिक सौन्दर्य से परिचित हो सकें ताकि प्रेरित होकर अपने आसपास बिखर रहे प्राकृतिक सौंदर्य को जीवित रख सकें|

मनाली में स्थानीय स्कूल के छात्रों को लेकर फ़िल्म का यह गीत शूट किया गया| 57-58 साल पहले इस गीत में अभिनेताओं के रूप में सम्मिलित हुए ज्यादातर छात्र अब 72 साल से बड़ी आयु में पहुँच चुके होंगे और कुछ शायद जीवित भी न हों| जीवन भर इन सबने इस अनुभव को संजो कर रखा होगा| हो सकता है उस वक्त उन्हें इस बात के महत्त्व का अहसास न हुआ हो कि वे वी. शांताराम जैसे महान फ़िल्म निर्देशक की फ़िल्म का हिस्सा बने हैं लेकिन कालांतर में उनमें से हरेक के जीवन में इस वास्तविकता का बोध कौंधा ही होगा|

वी शांताराम की ज्यादातर फिल्मों के गीत लिखने वाले भरत व्यास ने वी शांताराम के भीतर बसे सौन्दर्य शास्त्र के उच्च स्तर को संतुष्टि प्रदान करने वाला गीत लिख दिया|

एक फ़िल्म निर्देशक अपनी कला के प्रति कितना ईमानदार और निष्ठावान हो सकता है वह फ़िल्म के लिए उसके द्वारा चयनित कलाकरों द्वारा भी झलकता है| वी शांताराम फ़िल्म उद्योग के बड़े से बड़े संगीतकारों से अपनी फिल्मों में संगीत रचवा चुके थे लेकिन पर्वतों में स्थित इस कहानी के लिए उन्होंने किस संगीतकार को आमंत्रित किया?

हिमाचल प्रदेश में जन्में आकाशवाणी पर संगीत रचने वाले संगीतकार सतीश भाटिया को| उनकी ख्याति गैर-फ़िल्मी संगीत रचने में ज्यादा थी|

प्रस्तुत गीत में जो काव्यात्मक लय है उसके गायन के लिए मुकेश से बेहतरीन गायिकी किसी की नहीं हो सकती| गीत की रिकार्डिंग से पहले उस पूरे दिन उपवास रखने वाले मुकेश, चाहे रिकार्डिंग देर रात में ही क्यों न संपन्न हो पाए, जैसी पवित्र गायिकी के माध्यम से ही ऐसे गीत का सौंदर्य अपने प्रखरतम रूप में प्रकट हो सकता है| नाभि केंद्र की गहराई से शब्दों को गाते हुए कंठ से उच्चारित करने वाले मुकेश जब इस गीत में बेहद मंद स्वरों में पहली काव्यात्मक पंक्ति गाते हैं

हरी हरी वसुंधरा

और कैमरा हरे भरे पहाड़ों की चोटियों पर मंडराता है

और उससे थोड़े से तीव्र स्वरों में गाते हैं

नीला नीला यह गगन

तो कैमरा पहाड़ों की चोटियों से होते हुये और ऊपर उठाकर नीले आकश में विचरण करने लगता है, और आगे पहली और दूसरी पंक्ति को जोड़ते हुए फिर से गया जाता है

हरी हरी वसुंधरा पर नीला नीला ये गगन

और कैमरा हिमाच्छादित चोटियों की झलक दिखाकर नीले आकाश में तैरते सफ़ेद बादलों को दिखता है और गीत की पंक्ति सामने आती है

के जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन

तो दर्शक पर्वतों की एक स्वप्निल दुनिया में पहुँच जाते हैं| दर्शक कैमरे द्वारा दिखाई जा रही खूबसूरती से इतना अभिभूत हो जाता है और ऊपर से कवि द्वारा अद्भुत कल्पनाशील तुलना (जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन) सुनकर उसके भीतर बसी सौन्दर्य की परिभाषा तृप्त हो जाती है|

दिशाएं देखो रंग भरी

चमक रही उमंग भरी

यह किसने फूल फूल से किया श्रृंगार है

यह कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार

कैमरा अध्यापक (जीतेंद्र) और उसके छात्रों के समूह को दिखाता तो है, अपनी लम्बी बाहें फैलाए छात्रों को चारों ओर फ़ैली प्राकृतिक छटा दिखाते हुए अध्यापक हुए भी निर्देशक वी शांताराम ऐसा फ्रेम उपयोग में लाते हैं कि मानव इस प्राकृतिक सौंदर्य की विराट विस्तीर्ण छवि के समक्ष एक नगण्य सा प्राणी ही है और इसलिए विस्मित मानव से वे प्रश्न पूछवाते हैं कि इतने अद्भुत सौन्दर्य को यत्र-तत्र-सर्वत्र बहुलता में बिखेरने वाला चित्रकार है कौन?

तपस्वियों सी हैं अटल ये पवर्तों की चोटियाँ

ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियाँ

ध्वजा से ये खड़े हुए हैं वृक्ष देवदार के

गलीचे ये गुलाब के, बगीचे ये बहार के

यह किस कवि की कल्पना का चमत्कार है

यह कौन चित्रकार है यह कौन चित्रकार

वह कौन सा कवि होगा जिसने ऐसी कल्पनाएँ शब्दों में ढाली होंगी और उसके शब्दों से प्रेरित होकर किस चित्रकार ने यह सब दुनिया में रचाया होगा| मानव जैसे सक्षम प्राणी की कल्पनाओं से भी बाहर की इन छटाओं को किसने बनाया होगा| अपने आप ही बन गया होता तो मानव अपने तमाम गुणों के बावजूद प्रकृति की खूबसूरती के सामने तुलनात्मक रूप से खूबसूरत नहीं है? दुनिया की सबसे सबसे अच्छी पोशाक, सबसे अच्छे आभूषण धारण करने के बावजूद मानव खूबसूरती में प्राकृतिक सुन्दरता का अंश मात्र भी दिखाई नहीं देता| जहां जानवर भी अपनी पूरी नग्नता में खूबसूरती बिखेरते हैं, अबोध शिशुओं को छोड़कर मानव नग्नता कुरूपता का ही बोध कराती है और उसे अच्छा दिखाई देने के लिए वस्त्रों की आवश्यकता होती है|

कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो

इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो

चमका दो आज लालिमा अपने ललाट की

कण कण से झाँकती तुम्हें छवि विराट की

अपनी तो आँख एक है, इसकी हज़ार हैं

यह कौन चित्रकार है यह कौन चित्रकार

कवि शब्द दे देता है कि वह चित्रकार प्रकृति है| और वह मानव को चेताता भी है कि हमारी तो एक ही दृष्टि है, प्रकृति तो हजारों आँखों से हमें देख रही है|

इस विराट चित्रकारी को हम जितना ज्यादा संभव हो सकें सुरक्षित रख पायें, सुन्दरता के बीच यही एक सन्देश भी छिपा हुआ लगता है इस गीत के मर्म में| जिसे हम बना नहीं सकते, जन्मा नहीं सकते, उसे बिगाड़ने का अधिकार भी हमारे पास है नहीं| अपनी दुष्टता में हम ऐसा कर जरुर जाते हैं और करते ही जा रहे हैं लेकिन इतना तो याद रखना ही होगा कि 2067 में कोई और भविष्य का वी शांताराम इस या ऐसे गीत को रच ही नहीं पायेगा क्योंकि उसके पास प्राकृतिक सौंदर्य को फिल्माने की जगह ही नहीं बचेगी और हो सकता है प्राकृतिक सौन्दर्य के अभाव में वैसी कल्पनाशीलता ही न बचे|

…[राकेश]

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