भारतीय जनमानस में फिल्मों का स्थान बेहद महत्वपूर्ण एवं विशेष रहा है, काल कोई भी हो| एक विकासशील या गरीबी से संघर्ष करते देश में गाँवों, कस्बों, छोटे शहरों या मझौले शहरों एवं पूर्व के बड़े शहरों (जैसे दिल्ली , बम्बई, और कलकत्ता आदि ) के दर्शकों की कमोबेश एक सी कहानियां होंगी या एक से अनुभव होंगे फिल्मों को बड़े परदे पर देखने के|

भारतीयों के लिए फ़िल्में देखना एक रोमांचकारी अनुभव रहता आया है| क्योंकि पहले यह बाधारहित प्रक्रिया नहीं थी| आर्थिक एवं सामाजिक कारणों से फ़िल्म देखना ऐसा सहज नहीं था जैसे अन्य शौक होते हैं लोगों के| निम्नमध्यवर्गीय या गरीब समाज कैसे बड़े होतेे अपने बच्चों को जानते बूझते ऐसे माध्यम की लत लगने देता जो अपने प्रभाव में ही नशीली है| अतः स्वंय फिल्मों के शौक़ीन होने के बावजूद पीढी दर पीढी ऐसे माता पिता रहे जिन्होंने बच्चों के भविष्य की खातिर सिनेमा नियमित देखनी की अपनी इच्छा पर अंकुश लगाया| और यह पारिवारिक गतिविधि न होकर स्वतंत्र रूप से अकेले रह रहे व्यक्ति की गतिविधि ही बनी रही|

ऐसे अंकुश भरे माहौल में भी ऐसी फ़िल्में आती रहीं जिनके सम्मोहन से बंधकर लोग सपरिवार फ़िल्में देखने जाते रहे| बच्चे स्कूल कॉलेज से भाग कर चोरी छिपे फ़िल्में देखने जाते रहे|

एकल स्क्रीन वाले सिनेमाघर बालकनी और सबसे आगे की कुछ पंक्तियों के अंतर को छोड़ दें तो एक बराबरी का माहौल रचते थे| अँधेरा होते ही वहां अमीर गरीब, परिवार वाला, अकेला सभी बराबरी के दर्शक हो जाते थे|

फ़िल्म से पहले वज्रदंती का विज्ञापन आना, लेंस को ठीक ठीक सेट करने से पहले बहुत बड़े बड़े दांतों का लाल कश्मीरी सेब पर आक्रमण करना, और सेब के रस का बाहर छिटकना और इसी बीच ओपरेटर का धीरे धीरे प्रोजेकशन की लम्बाई चौड़ाई और उंचाई को ठीक करना एक ऐसी रस्म था जो दर्शक को सब भुलाकर वहां उस माहौल में ध्यान केन्द्रित करने के लिए विवश करता था|

एक मनपंसद फ़िल्म देखने के बीच (या पहले या बाद में) में सिनेमाघर के गलियारे में आने वाली अगली या उससे अगली किसी फ़िल्म का पोस्टर दर्शकों के मन में अपने लिए एडवांस्ड बुकिंग करा लेता था|

फिल्मों और फ़िल्मी सितारों के प्रति जो आकर्षण भारतीय दर्शकों में है, उसे परदे पर दिखानेके लिए शालीमार फ़िल्म बनाने वाले कृष्णा शाह ने 1979 में एक डॉक्यूड्रामा जैसी फ़िल्म बनायी थी – सिनेमा सिनेमा|

यह फ़िल्म, भारत के अधिकाँश दर्शकों का प्रतिनिधित्व करती है| हुडदंगी दर्शक, जिन्हें फ़िल्म देखते हुए सिनेमाघर में नाचना है, हल्ला मचाना है किसी अप्रत्याशित स्थिति के आने (जैसे बिजली जाने, रील के चक्के से उतर जाने, आवाज खराब हो जाने, लेंस के फोकस के खराब हो जाने) के कारण अन्दर उत्पात मचाना है, अन्य दर्शकों, विशेषकर प्रेमियों एवं स्त्रियों पर कमेंट्स करने हैं, और युवा प्रेमी दर्शक जो ऐसी सीटें चाहते रहे हैं जहाँ उन्हें किसी तरह का विचलन न सहन करना पड़े, से लेकर पारिवारिक दर्शक, आदि सभी इस फ़िल्म का हिस्सा हैं और फ़िल्म के भारत में विकास की कहानी सुनाने दिखाने परदे पर बड़े बड़े कलाकार अमिताभ बच्चनधर्मेन्द्र, और हेमा मालिनी आदि आते हैं| पुरानी फिल्मों के दृश्य दिखाकर इतिहास दिखाया जाता है|

अपनी मूल योजना के मुताबिक़ कृष्णा शाह पहले अमिताभ बच्चन और जीनत अमान को लेकर शालीमार अंगरेजी और हिंदी में बना रहे थे लेकिन बाद में अमिताभ बच्चन द्वारा फ़िल्म न कर पाने के कारण धर्मेन्द्र को लेकर शालीमार बनी| सिनेमा सिनेमा से अमिताभ बच्चन के जुड़ाव से दो ही संभावनाएं उपजती हैं| या तो सिनेमा सिनेमा में अमिताभ बच्चन वाला भाग, उसी वक्त शूट हो गया था जब वे शालीमार साइन कर चुके थे या फिर चूंकि शालीमार के लिए साइनिंग अमाउंट लेने के बावजूद वे फ़िल्म नहीं कर पाए और वे शालीमार को करना चाहते थे तो इसके एवज में बाद में उन्होंने सिनेमा सिनेमा के लिए शूटिंग की| जीनत अमान शुरू से ही शालीमार का हिस्सा थीं तो वे उस वक्त कृष्णा शाह के किसी भी प्रोजेक्ट का हिस्सा बाखुशी बन जातीं| हेमा मालिनी का जुड़ाव, धर्मेन्द्र के शालीमार और सिनेमा सिनेमा से जुड़ाव के कारण संभव हुआ होगा|

देव आनन्द की फ़िल्म का दृश्य आते ही एक पोपले मुंह का बुजुर्ग सीट से उछल कर घोषणा करता है – देव तुम जब जब पिक्चर बनाओगे मैं तब तब देखने आउंगा|

ये फ़िल्म ज्यादातर दर्शकों को उनके अपने अनुभावों की यादों में ले जाती है|

पहले एकल स्क्रीन सिनेमाघर के अस्तित्व के समय दो स्थितियां दर्शक की बड़ी सहायता करती थीं| पुरानी फिल्मों का घटे दरों पर प्रदर्शित होना और दूसरी किसी किसी फ़िल्म को सरकार द्वारा टैक्स फ्री स्टेटस दिया जाना| इन दो स्थितियों में दर्शक अच्छी फिल्मों को एकाधिक बार देख पाते थे|

फ़िल्म – सिनेमा सिनेमा में अभिनेत्री किम को एक दर्शक के रूप में देखने से फ़िल्म की नाटकीयता का प्रभाव बढ़ता है और यह महज एक वृत्त चित्र होने से ज्यादा कुछ हो जाती है| किम के चरित्र और उसके प्रेमी की कथा सिनेमाघर में परदे पर दिखाए जा रहे फिल्मों के इतिहास के साथ आगे बढ़ती है|

फ़िल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास को सिलसिलेवार बताती चलती है, हालांकि अगर कुछ गंभीर सिने-अध्ययन को इसमें जोड़ा जाता तो यह कहीं बेहतर बन सकती थी|

अभी भी सिनेमा केइतिहास को लेकर एक ऐतिहासिक प्रयास तो यह है ही|

…[राकेश]


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