अच्छे सिनेमा की शक्ति मनुष्य के ऊपर ऐसी होती है कि जिस अंत के बारे में दर्शक निश्चित ही जानते हैं, उसके बारे में भी एक और बार फ़िल्म देखते हुये भावनाओं के वशीभूत होकर बदलाव की आशा रख बैठते हैं| जैसे ऋषिकेश मुखर्जी की आनंद है| अंत में आनंद (राजेश खन्ना) का डॉक्टर मित्र बाबू मोशाय (अमिताभ बच्चन) ही नहीं वरन आम दर्शक भी चमत्कार की उम्मीद बाँध लेते हैं कि शायद आनंद बच जाएगा| मृत्यु कैसे इतने ज़िंदादिल इंसान को उसके चाहने वालों से छीन कर ले जा सकती है? भावनाओं के सामने समझ का आलम ऐसा होता है कि जब आनंद स्वयं अपने एक अन्य मित्र डॉक्टर प्रकाश (रमेश देव) से कहता है,” मुझे बचा लो मैं मरना नहीं चाहता” तो दर्शक को आनंद की क्षणिक कमजोरी बिलकुल नहीं भाति उसे लगता है क्यों कमजोर पड़ रहा है आनंद, वह दिलफ़रेब तो मृत्यु को भी शीशे में उतार कर उसे अपने प्रेम के वशीभूत कर जो चाहे करवा लेगा| पर आनंद चला जाता है अपनी ज़िंदादिली के एहसास लोगों के साथ छोडकर| सिनेमा के जरिये इरफ़ान से जुड़े लोगों को उम्मीद थी कि अब जब वे लंदन में साल भर रह कर इलाज करवाकर वापिस भारत आ गए हैं और अपनी फ़िल्म – अंग्रेजी मीडियम, पूरी कर चुके हैं, तो उन्होने  अपनी बीमारी को मात दे दी है और अब वे पूर्ववत विश्व भर में सिनेमा के क्षेत्र में अपना और भारतीय झण्डा बुलंद करते रहेंगे, नए से नए मुकाम पाते रहेंगे, नए से नए मील के पत्थर स्थापित करते रहेंगे| पर वे अचानक ही बचपन में कभी अपने पसंदीदा सितारे रहे राजेश खन्ना के फ़िल्म आनंद के किरदार की तरह इस दुनिया को अलविदा कह गए और उनके चाहने वाले आनंद के डॉक्टर मित्र बाबू मोशाय की भांति दुःख की तीव्रता का सामना कर रहे हैं| आनंद की भांति ही ये जहां छोडने से पहले अपनी कला द्वारा दुनिया भर में उन्होने करोड़ों लोगों के दिल अपने से जोड़ लिए| संयोगवश राजेश खन्ना स्वयं कैंसर की एक किस्म के कारण कालग्रस्त हुये| इरफ़ान के स्वास्थ्य की जो मूरत लोगों ने अपने मन में गढ़ रखी थी वह एक पल में टूट गई| एक तो उम्र नहीं थी इरफ़ान के जाने की, दूसरे अभिनय संसार में वे लगातार इतना शानदार प्रदर्शन करते चले जा रहे थे कि कोई सोच ही नहीं सकता था कि वृद्धावस्था तक बहुत सारे कीर्तिमान स्थापित करे बगैर वे यूं रुखसत हो जाएँगे| दो दिन पहले ही उनकी माँ का देहांत हुआ था और उनके अंतिम संस्कार में भी इरफ़ान शामिल न हो पाये| इस बात का कितना बोझ उनके दिलो दिमाग पर छाया होगा, शायद इसी घटना ने उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर गहरा कुठाराघात किया और उनका शरीर संक्रमण को सहन नहीं कर पाया| अभिनेता विनय पाठक के वीडियो  कार्यक्रम में जयपुर या टोंक के अपने घर में पूछे जाने पर इरफ़ान ने कहा था कि वे अपनी माँ को प्रसन्न करना चाहते थे जिससे वे स्नेह से उनके सिर पर हाथ रखें, उनकी बात की बड़ाई करें पर हमेशा ही उन दोनों के बीच बहस हो जाती थी| शायद माँ के देहांत के बाद दुःखी, दो दिन में ही माँ के ही पास पहुँच जाने वाले, बेहद अच्छा पढ़ने वाले ज़हीन इरफ़ान ने अपने बिलकुल अंतिम क्षणों में शायर इकबाल अशर के शेर को जिया होगा –
मुद्दतों बाद मयस्सर हुआ माँ का आँचल मुद्दतों बाद हमें नींद सुहानी आई
इरफ़ान के यूं एकदम चले जाने से, जबकि यह बिलकुल भी अपेक्षित नहीं था, सिर्फ उनकी पत्नी, बेटों, नजदीकी नाते रिश्तेदार, मित्र, उनके साथ काम कर चुके कलाकार, टेक्नीशियंस, या ऐसे लोग जिनकी उन्होने कभी सहायता की हो, ही नहीं गमगीन हुये होंगे वरन उनके सिनेमा की वजह से उनसे जुड़े दुनिया भर में फैले लाखों लोगों, जो कभी उनसे मिले नहीं होंगे, ने भी अपनी पलकें भीगी पायी होंगी| जब भारत ही नहीं बल्कि कोरोना वायरस से भयग्रस्त पूरी दुनिया की एक बड़ी आबादी लॉक डाऊन स्थितियों में गुजर बसर कर रही है, तब ऐसी मनहूस खबर सुनना आसानी से भुला देने वाली बात नहीं| इरफ़ान से सिर्फ उनके घर वालों को ही अपेक्षा नहीं रही होगी, हर सिने प्रेमी को भी उनसे बड़ी बड़ी अपेक्षाएँ थीं| सिने प्रेमियों को भरपूर विश्वास रहता था कि उनके रहते हिन्दी फ़िल्मों में अभिनय का स्तर सम्मानजनक ही रहने वाला है| एक बारगी तो इरफ़ान के फ़िल्म दर फ़िल्म बेहतरीन अभिनय प्रदर्शन करने के कारण उनसे अंदर ही अंदर जलन रखने वाले सह-अभिनेता भी बहुत दुःखी हुये होंगे क्योंकि इरफ़ान के साथ एक फ्रेम में रहने के कारण उनके लिए भी लाजिमी था कि वे भी बेहतर अभिनय का स्तर बनाए रखें| अब वह घर्षण उन्हे सहज ही उपलब्ध नहीं होगा| दिल्ली स्थित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के पूरे इतिहास में एक राज बब्बर को छोड़ दें तो एन. एस. डी. से निकले विलक्षण अभिनेताओं की खेप के प्रमुख नामों जैसे नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, और पंकज कपूर, इरफ़ान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी और पंकज त्रिपाठी आदि में से किसी को भी उनकी जवानी में हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा ने नियमित नायक की भूमिका में कोई मौका नहीं दिया| नसीर, ओम पुरी दोनों ने वैश्विक स्तर पर अपनी काबिलियत का लोहा कथित समानान्तर सिनेमा या कला सिनेमा के माध्यम से ही मनवाया| उन दोनों ने बहुत बार कला फ़िल्मों में भी ऐसी फिल्में दीं जिन्होने बॉक्स ऑफिस पर भी सफलता प्राप्त की| हृदय की गहराई से अभिनय करने वाले ओम पुरी ने ब्रिटिश और हॉलीवुड के सिने संसार में भी अपनी अभिनय क्षमता का भरपूर जलवा दिखाया| पर वहाँ मर्चेन्ट आइवरी की भारतीय विषयों पर बनी फिल्मों में भी नायक की भूमिका शशि कपूर के लिए निर्धारित थी| वहाँ भी “ईस्ट इज़ ईस्ट” को छोडकर उनके हिस्से चरित्र भूमिकाएँ ही आईं| रंगमंच की पृष्ठभूमि से आए एक नाना पाटेकर ही ऐसे रहे जिन्हे हिन्दी फ़िल्म उद्योग को बड़े सितारे होने का तमगा देना ही पड़ा| नाना पाटेकर को शुरू में ही अंकुश जैसी हिट फ़िल्म मिल गई और क्रांतिवीर के बाद लगभग पाँच- छह साल वे मंहगे सितारों में शामिल रहे और उनके लिए विशेष रूप से फिल्में लिखी जाती रहीं| एन॰एस॰डी की बात पर आयें तो अच्छे अभिनेता होने के बावजूद स्वयं राज बब्बर अपनी तमाम व्यावसायिक सफलता के बाद भी खुद को नसीर, ओम पुरी, पंकज कपूर, इरफ़ान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की महीन और महान श्रेणी का अभिनेता नहीं मानेंगे, उन्नीस बीस का अंतर तो स्पष्ट हैं उनमें और इन अभिनेताओं में| बी आर चोपड़ा जैसे बड़े निर्माता निर्देशक ने उन्हे लॉन्च किया और फ़िल्मी जीवन की शुरुआत में बी आर फ़िल्म्स की बदौलत ही खलनायक से नायक की और आसानी से कदम बढ़वा दिये| सामाजिक फ़िल्मों में कुछ साल वे नायक की भूमिका निभाते रहे जब तक कि सक्रिय राजनीति में न आ गए| नसीर को श्याम बेनेगल की फ़िल्मों का सहारा शुरू में मिल गया तो ओम पुरी की नैया को गोविंद निहलानी जैसे खेवनहार मिल गए| पंकज कपूर भी श्याम बेनेगल की आरोहण से शुरू करके रिचर्ड एटेनबरा की गांधी में सचिव प्यारेलाल की ध्यान देने योग्य भूमिका पा गए| साथ ही गांधी फ़िल्म के हिन्दी संस्कारण में उन्होने बेन किंग्सले के लिए गांधी को आवाज दी| अस्सी के दशक में पंकज कपूर को गुणवत्ता वाला काम मिला| और चूंकि वे अभिनेता तो मार्के के हैं ही सो उन्होने कोई भी मौका हाथ से न जाने दिया और वे टीवी में भी आए तो करमचंद धारावाहिक में शीर्षक भूमिका निभा देश भर में घर घर में चर्चित नाम हो गए| कब तक पुकारूँ, नीम का पेड़, ज़बान संभाल के और बाद में ऑफिस ऑफिस जैसे धारवाहिक उनके इर्द गिर्द ही घूमते रहे| अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों के इसी दौर से इरफ़ान हिन्दी फ़िल्मों में बेहद छोटी छोटी भूमिकाएँ करने लगे थे| हिन्दी फ़िल्मों में ऐसी छोटी भूमिका कम ही होती हैं जैसी ओम पुरी को रिचर्ड एटेनबरा की फ़िल्म – गांधी में मिल गई थीं जहां उन्होने सम्पूर्ण विश्व को विवश कर दिया कि वह इस अभिनेता के जबर्दस्त प्रदर्शन पर ध्यान दे, उसके बारे में जाने| इरफ़ान को उस वक्त्त की मिली हिन्दी फ़िल्मों में तो लोगों ने पहचाना भी नहीं होगा कि इस अभिनेता का नाम इरफ़ान है| अब अवश्य उन फ़िल्मों को देखने पर लोग ध्यान दे पाएंगे कि वे भी फलां फलां फ़िल्म में उपस्थित थे| भारत एक खोज जैसे बड़े स्तर के टीवी धारावाहिक के बावजूद लोगों ने उन्हे पहचानना शुरू किया टीवी धारावाहिक चंद्रकांता से और द ग्रेट मराठा में नजीबुद्दौला की भूमिका निभाने से| तब उन्होने एन एफ डी सी कृत करामाती कोट और गोल जैसी फ़िल्में भी कीं, जिन्हे तब मुश्किल से ही कोई देख पाने का अवसर पा पाया होगा| नब्बे के दशक के मध्य में शेखर कपूर ने द बेंडिट क्वीन बना कर धमाका कर दिया जिसमें काम करके एन॰एस॰डी स्नातक सीमा बिस्वास अमर हो गईं| निर्मल पांडे भी चमके और मनोज वाजपेई पर ध्यान सभी दर्शकों का नहीं जा पाया| इसी काल में दूरदर्शन पर महेश भट्ट और शोभा डे के संयुक्त प्रयास से स्वाभिमान जैसा धारवाहिक बना जिसमें पोनी टेल और चश्मा लगाए मनोज वाजपेई पर भी थोड़ा ध्यान लोगों का गया लेकिन मुख्य ध्यान खींचा आशुतोष राणा ने| महेश भट्ट ने ही तमन्ना में मनोज वाजपेयी को परेश रावल के वृद्ध मित्र की भूमिका दे दी| तभी आई सत्या और मनोज वाजपेयी की किस्मत का ताला खुल गया| राम गोपाल वर्मा ने कौन और रोड जैसी फ़िल्में मनोज के साथ कीं| उन्हे शूल और घात जैसी व्यावसायिक सफलता वाली फ़िल्में भी मिलीं| फ़िल्मी पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठों पर वे छा गए और चर्चे होने लगे कि महिलाएँ उनकी कातिल निगाहों की प्रशंसक हैं| उनकी कथाएँ चलनी लगीं कि कैसे दिल्ली में बैरी जॉन के अभिनय स्कूल में वे शाहरुख खान के साथ थे और दोनों अच्छे मित्र थे और बैरी के प्रिय विद्यार्थी वे थे न कि शाहरुख खान| चंद्र प्रकाश द्विवेदी की पिंजर में वे नज़र आए और अपनी अभिनय क्षमता से सबको प्रभावित कर गए| यश चोपड़ा ने सह भूमिका में उन्हे वीर ज़ारा में लिया और वहाँ भी वे चमकदार प्रदर्शन कर गए| राकेश मेहरा की अक्स में उन्हे अमिताभ बच्चन के समक्ष भूमिका मिली| बस उसके बाद उनकी फिल्में तो लगातार आती रहीं और बहुत सी फिल्मों में वे नायक और बहुत सी फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में नज़र आते रहे| पर चंद फिल्मों को छोड़कर ज़्यादातर न केवल फिल्में बल्कि उनकी भूमिकाएँ भी आसानी से भुला देनी वाली रहीं| परंतु गैंग्स ऑफ वासेपुर, और अलीगढ़ सरीखी फ़िल्मों के बावजूद आजकल वे स्वयं ये शिकायत करते दिखाई देते हैं कि न तो मुख्य धारा का हिन्दी सिनेमा और न ही मीडिया उन्हे तरजीह देता है| इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि शुरू में मनोज बाजपेई को पहले महेश भट्ट और राम गोपाल वर्मा का अनवरत साथ मिला| धर्मेश दर्शन, संजय गुप्ता और प्रकाश झा जैसे निर्देशकों की फ़िल्मों में वे लगातार नज़र आते रहे| नए और चर्चित नीरज पांडे की भी कई फ़िल्मों में वे आते रहे हैं| हिन्दी फिल्मों में एक्टर और स्टार का जो अमिट भेद है उस खाई को वे सत्या और बाद की कई फिल्मों से मिली लाभदायक स्थिति और स्टारड्म के बावजूद पाट नहीं पाये| जबकि इरफ़ान ने हिन्दी फ़िल्म उद्योग ही नहीं वरन हॉलीवुड में भी अपना राजपाट जमा दिया| नाना पाटेकर भी शनैः शनैः चरित्र भूमिकाओं में ढल गए हैं| इन सबके बरक्स अगर इरफ़ान की फ़िल्मी यात्रा देखें तो उनका संघर्ष बहुत लंबा रहा| छोटी छोटी भूमिकाएँ करते करते सन 2001 में आसिफ कपाड़िया की फ़िल्म “द वारियर” ही वह फ़िल्म थी जिसे आम दर्शक तो नहीं मिल पाये लेकिन सिनेमा के धसकी दर्शकों, और समीक्षकों ने इरफ़ान की अभिनय क्षमता को आँखें खोलकर देखा और अपने को उनसे बेहद प्रभावित पाया| उसके बाद आने वाली हर फ़िल्म में इरफ़ान पर ध्यान दिया जाने लगा और ऐसा नहीं कि पहले जब वे छोटी भूमिकाएँ भी कर लेते थे तब वे अच्छा अभिनय नहीं करते थे, बस तब उन्हे समीक्षकों द्वारा ध्यान दिये जाने योग्य माना नहीं जाता था| फिर आया सन 2003 और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पृष्ठभूमि पर बनी तिग्मांशू धूलिया की ठेठ उत्तर प्रदेशीयन फ़िल्म “हासिल” ने फ़िल्म समीक्षकों के हलक में हाथ डालकर उनसे इरफ़ान की प्रशंसा में लेख उगलवा लिए| आम दर्शकों की बात ही क्या जो इरफ़ान के अभिनय प्रदर्शन के जादू में बंध कर ही रह गए| शोभा डे जैसी अँग्रेज़ीदाँ फ़िल्मी पत्रकार, संपादक, उपन्यासकार और टिप्पणीकार, जिन्होने उससे पहले संभवतः हिन्दी फ़िल्म उद्योग में हिन्दी बोलने वाले सिर्फ गोविंदा पर ही अपनी प्रशंसा की बौछार की होगी, वे हासिल में इरफ़ान को देख कर उनके अभिनय से ही प्रभावित नहीं हो गईं बल्कि एक हिंसक छात्र नेता के रूप में परदे पर उनकी चीते जैसी चाल और बेहद सजीव आँखों का विशेष उल्लेख अपने लेख में किया| बाद में प्रदर्शित “रोड टू लद्दाख” में इरफ़ान ने कोयल पुरी संग न्यूड सीन देकर मानो सिद्ध किया हो कि उनके लिए अभिनय में एक्स्प्लोरेशन की कोई सीमा नहीं है, उस समय किसी नामचीन अभिनेता ने ऐसा नहीं किया था कि उनके शरीर के पार्श्व भाग को नग्न रूप में दिखाया गया हो| द बेंडिट क्वीन में अलबत्ता जरूर चंबल की खाइयों में खुले में बलात्कार करते एक डकैत को नग्न दिखाया गया था| लेकिन इरफ़ान का दृश्य स्वैच्छिक शारीरिक संबंध बनाते पुरुष का था| कहने का तात्पर्य यह है कि शुरू से ही हिन्दी सिनेमा में नायक के इर्दगिर्द नायिका से कम घेरे नहीं रहे हैं जहां उन्हे शुरू से पता होता है कि वे कोई भी चरित्र क्यों न निभा रहे हों, उन्हे अपनी छवि की सीमाओं से बाहर का कोई कृत्य नहीं करना है| बहुत अभिनेता अपनी शारीरिक कमियों के कारण बहुत कुछ परदे पर नहीं कर पाये| जैसे दिलीप कुमार को किसी भी फ़िल्म में बिना कमीज़ या कुर्ते के तो क्या कभी आधी बांह की कमीज़ में भी नहीं देखा गया| देव आनंद को ऐसी कोई समस्या अपने शरीर से नहीं थी सो वे फ़िल्म जाल (1952) में ड्रम के अंदर नहाते हुये टॉपलेस नज़र आए| राजकपूर को अभिनेता और निर्देशक के तौर पर दृश्य की मांग का निश्चित पता था इसलिए आवारा में झील में कूदते और तैरते हुये वे और नर्गिस स्विम सूट्स में ही हैं| राजकुमार, जीतेंद्र, और धर्मेन्द्र और यहाँ तक कि सुनील दत्त आदि को अपने शरीर के सौष्ठव पर पूर्ण भरोसा था सो उन्होने हर किस्म के कपड़े भूमिकाओं के अनुसार फिल्मों में बिना हिचक पहने, जरूरत पड़ी तो कमीज़ भी उतार दी| राजेश खन्ना ने कमीज़ रेडरोज़ में तब उतारी जब उनका स्टारडम तेजी से खिसकता जा रहा था और या तो उन्हे विश्वास था या किसी ने उन्हे विश्वास दिला दिया कि ऐसा करने से उनका स्त्री प्रशंसक वर्ग परदे पर उनके जादू से चिपका रहेगा| हिन्दी फिल्मों के परंपरागत नायकों वाले अभिनेताओं में भूमिका में रहने के लिए संजीव कुमार जैसी निष्ठा नहीं थी जिन्होने पति पत्नी और वो में ठंडे ठंडे पानी से नहाना चाहिए गीत की मांग अनुसार परदे पर नहाने का दृश्य दिया| वे हिचके नहीं कि उनके शरीर का मोटापा उनकी छवि खराब कर सकता है| इरफ़ान ने रोड टू लद्दाख में हिन्दी फिल्मों में चलते आ रहे इस प्रोटो टाइप को तोड़ा| विशाल भारद्वाज की मकबूल ने तो इरफ़ान की श्रेष्ठ अभिनय क्षमता के ऊपर एक स्थायी मुहर लगा दी| अपवाद को छोडकर, जो भी फ़िल्म इरफ़ान ने की वह फ़िल्म भले ही कैसी बनी हो पर इरफ़ान ने अपनी भूमिका में हमेशा छाप छोड़ी| सौ प्रतिशत परिणाम देना बहुत कम अभिनेताओं की क्षमता में आता है| इरफ़ान को एक बेहद महत्वपूर्ण योगदान के लिए श्रेय देना चाहिए| एन॰ एस॰ डी॰ के प्रतिनिधि अभिनेताओं नसीर, ओम पुरी और पंकज कपूर ने भारत में अभिनय को उस ऊँचाई पर पहुंचाया जहां वे विश्व के श्रेष्ठ अभिनेताओं की पांत में खड़े नज़र आए लेकिन सिर्फ हिन्दी फ़िल्मों की बात करें तो वे मुख्य धारा की फ़िल्मों में नायक रूप में न खप पाये न स्वीकृत हुये| किसी भी कारण से हो पर नृत्य और रोमांस के दृश्य उन पर नहीं फबते| नसीर ने तो हमेशा ही नृत्य को कॉमेडी का स्पर्श देकर निबटाया, परदे पर गाने प्रस्तुत करने में भी वे कॉमेडी के पीछे छिप गए| रोमांस में भए उनकी हिचक परदे पर दिखाई देती रही| जिस गहराई का अभिनय ओम पुरी करते थे उसे वे किंग ऑफ बॉलीवुड जैसी तमाम फ़िल्मों में सहेज नहीं पाये और बहुत सी ऐसी कॉमेडी फिल्में उन्होने आखिर के वर्षों में कीं, जहां ओम पुरी की वास्तविक प्रतिभा के दर्शन नहीं हुये| पंकज कपूर कम से कम नृत्य प्रस्तुत करने के मामले में इन दोनों से ज्यादा व्यावसायिक रहे| इरफ़ान ने नसीर, ओम पुरी और पंकज कपूर वाले गहराई वाले अभिनय का मेल हिन्दी फ़िल्मों की अभिनय की उस शैली से किया जिसका सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व दिलीप कुमार ने किया| दिलीप कुमार शायद पचास के दशक में जब उनकी अभिनय प्रतिभा अपने चरम पर थी, आक्रोश की ओम पुरी वाली  आदिवासी की भूमिका उस गहराई से न निभा पाते जैसी ओम पुरी ने निभाई, नसीर की पार, निशांत, पेस्टन जी आदि भूमिकाएँ ऐसी सच्चाई से न निभा पाते| दिलीप कुमार ने विधाता के बाद कई फ़िल्मों में एक माफिया डॉन की भूमिका निभाई पर मकबूल में पंकज कपूर को देखने के बाद तुलना ही बेमानी लगती है| लेकिन इसी तरह नसीर, ओम पुरी और पंकज कपूर दिलीप कुमार के पचास के दशक में किए सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों को उस तरह से न निभा पाते जहां गहराई तो थी ही साथ ही दर्शकों को लुभाने के लिए कुछ अतिरिक्त भी था जिसने हिन्दी फ़िल्मों में नायकों के लिए एक ढांचा गढ़ने का कार्य किया जिसमें ढलकर अभिनेता स्टार और सुपर स्टार जैसी अवस्था का आनंद ले पाये| दोनों धाराओं के अपने नियम कायदे हैं| दिक्कत तब आई जब सिर्फ सफलता ही एकमात्र पैमाना बन गई और अच्छे अभिनेता भी टाइप्ड होकर रह गए और बंधी बंधाई शैली में हरेक भूमिका को निभाने लगे जिससे उनका खास दर्शक वर्ग प्रसन्न रहे और बॉक्स ऑफिस पर पैसे उड़ेलता रहे| इरफ़ान ने इस दो धारा वाली व्यवस्था को चुनौती दी और दोनों का संगम अपनी अभिनय क्षमता में करा दिया| उनसे पहले संजीव कुमार और विनोद खन्ना ने भी इस बात को पूरा करना चाहा पर उनके द्वारा यह कभी कभार ही हुआ उसमें निरंतरता नहीं थी| संजीव कुमार से ज्यादा विनोद खन्ना इस बात को पूरा कर सकते थे और उनकी “रिहाई” और “लेकिन” देख कर इस बात का अनुमान भी लगता है परंतु उन्हे ज्यादा अवसर मिले नहीं ऐसा कर दिखाने के| वक्त पर वे सन्यास की ओर चले गए और पाँच साल बाद जब लौटे तब हिन्दी फ़िल्मों की दिशा ही तेजी से बिगड़ने लगी थी सो उनके हिस्से सिर्फ “रिहाई” और “लेकिन” ही आ पाई| इरफ़ान ने अभिनय की गहराई को साधते हुये उसमें ऐसे तत्वों का समावेश भी किया जिससे उनका अभिनय प्रदर्शन आकर्षक भी लगे| कभी अशोक कुमार ने पचास के दशक में ही दिलीप कुमार के लिए कहा था,” यूसूफ़ गहराई से जानता है, क्या, कहाँ और कैसे आकर्षक लगेगा, उसकी नपी तुली गतिविधियां उसके अभिनय को मन लुभावना बनाती हैं|” सिर्फ खास तरीके की भूमिकाएँ उनके लिए लिखी जाएँ या किन्ही खास तरह की भूमिकाओं के लिए निर्देशक इरफ़ान को याद करें, इरफ़ान ने इस सीमितता को बिलकुल ही नष्ट कर दिया और अपने लिए संभावनाओं का ऐसा समुद्र जन्मा दिया जिसमें से सभी किस्म के निर्देशक सभी क़िस्मों की भूमिकाओं के लिए संतोष होने तक पानी भरते रह सकते थे, समुद्र को तो खाली होना नहीं था| हिन्दी फ़िल्मों के अध्येता, प्रशंसक, आम दर्शक, या समीक्षक, जिसकी जैसी भी कल्पना शक्ति हो उसके अनुसार सोच कर देख सकता है कि इरफ़ान ने अपनी अभिनय क्षमता का इस हद तक विस्तार कर लिया था कि तीस या उससे बड़ी उम्र के किसी भी चरित्र को, जो आज तक किसी भी हिन्दी फ़िल्म में उजागर हुआ है उसे इरफ़ान आसानी से प्रभावी तरीके से निभा सकते थे| चाहे वह बिमल रॉय वाला बेहतरीन देवदास हो, के आसिफ वाला शानदार शहजादा सलीम हो, मधुमती का पुनर्जन्म से जूझता नायक हो या नया दौर का तांगे वाला या गंगा जमुना का बागी हो या राम और श्याम का दोहरा चरित्र हो या मदर इंडिया का बिरजू, आवारा या श्री 420 का राज हो या गाइड का राजू गाइड, ज्वेल थीफ़ का नायक अमर हो या खलनायक, गरम हवा का बँटवारे का शिकार नायक हो ज़ंजीर का इंस्पेक्टर हो या शेर खान, कालीचरण या विश्वनाथ हो, डॉन, शराबी, आक्रोश का नसीर का चरित्र हो या ओम पुरी का आदिवासी लाहनया हो, अर्द्धसत्य का कुंठित लोबो इंस्पेक्टर हो या बचपन से पिता की क्रूरता देख प्रेम के लिए तरसता और व्यवस्था से नाराज़ नायक इंस्पेक्टर, श्याम बेनेगल की नायाब कलयुग  की कोई भी भूमिका हो, मृगया का आदिवासी हो, पार का दलित हो, परिंदा का सनकी खलनायक हो या क्रांतिवीर का नायक, प्रहार का फ़ौजी हो या दामिनी का शराबी वकील हो, थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ का शायराना सूत्रधार हो या अग्निपथ का विजय या काँचा चीन्हा, पिंजर का अपहरणकर्ता प्रेमी हो या सत्या का नायक या भीखू, कंपनी का मलिक हो या चंदू या अन्य आदि इत्यादि हो, इरफ़ान को आप आसानी से बेहतरीन और विश्वसनीय तरीके से इन प्रसिद्ध चरित्रों को निभाते हुये देख सकते हैं| इरफ़ान ने अपनी अभिनय क्षमता का इतना ज्यादा विस्तार कर लिया था कि उसमें सारे रस अपने उत्कर्ष और ईंटेंसिव रूप में समा गए थे| उनमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, संजीव कुमार, विनोद खन्ना, नसीर, ओम पुरी, और पंकज कपूर जैसी ईंटेंसिटी और राज कपूर जैसी संवेदनशीलता, देव आनंद, राजेश खन्ना, और गोविंदा जैसे अभिनय के आकर्षक पहलू सभी कुछ था| वे मार्लन ब्रांडो और जॉनी डेप के मिश्रण के भारतीय स्वरूप बन चुके थे| रामायण, महाभारत, मिथकों, ऐतिहासिक किसी भी किस्म की कथा से कोई भी पुरुष चरित्र हम सोचें इरफ़ान उसे प्रभावशाली ढंग से निभा जाते ऐसा विश्वास आसानी से उपज जाता है| प्रकृति को शायद मानव का किसी भी क्षेत्र में इतना विकास अच्छा नहीं लगता, शायद कहीं न कहीं इतनी पूर्णता प्रकृति के नियमों का उलंघन करती है और इसीलिए बला की प्रतिभाएं बस पलक झपकते अलविदा कह जाती हैं| जिस हिंदी फ़िल्म उद्योग ने इरफ़ान के जवानी के तकरीबन बीस साल नज़रअंदाज़ कर दिये उसी उद्योग को शनैः शनैः इरफ़ान ने अपने सामने विनीत खड़ा कर दिया| जब लोग चरित्र भूमिकाओं की और मुड़ जाते हैं, कथित सुपर स्टार हांफ जाते हैं और येन केन प्रकारेण अपने स्टारडम को बचाने की जुगत में लगे रहते हैं इरफ़ान ताजी हवा के झौंके की तरह हिंदी फ़िल्म उद्योग के समक्ष संभावनाएं प्रस्तुत किए जा रहे थे कि कल्पना करो, चरित्र रचो और मुझ तक आओ मैं तुम्हें तुम्हारी कल्पना का सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण दूंगा! और इरफान लगातार इतना ज़्यादा अच्छा प्रदर्शन करते जा रहे थे कि न केवल फ़िल्म उद्योग बल्कि हम सबने यही स्वीकार कर लिया कि वे तो ऐसा करते ही रहेंगे और लापरवाह हो गए| अब जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो उनका न होना इस बात की गवाही चीख चीख कर देगा कि वे क्या कर गए हैं और कितना और कर सकते थे! जीवन में नई से नई हदें एक्सप्लोर करने की उनकी आकांक्षा ने उन्हे हिन्दी फ़िल्मों तक ही सीमित नहीं रहने दिया बल्कि वे हॉलीवुड तक जा पहुंचे और वहाँ बहुत बड़े बजट की फ़िल्मों में भी काम किया| कौन सोच सकता था कि अस्सी के दशक के मध्य से संघर्ष करते करते जिस अभिनेता को सन 2003 में आकर कोई उल्लेखनीय फ़िल्म मिली हो वह न केवल हिन्दी फ़िल्म उद्योग बल्कि हॉलीवुड तक में अपनी उपस्थिति को अनिवार्य जैसा बना देगा| एक बार सफलता पाने के बाद इरफ़ान ने तेजी से सीमाएं लांघी| जैसे हिन्दी फ़िल्मों में वे एकल नायक के रूप में स्थापित हो गए थे, कोई आश्चर्य न होता अगर हॉलीवुड में भी निकट भविष्य में ऐसा देखने को मिलता जब केवल भारतीय मूल की मीरा नायर सरीखी ही नहीं बल्कि हॉलीवुड के अन्य नामी निर्देशक भी उनके इर्द गिर्द अपनी फ़िल्मों को बुनते| इरफ़ान के साथ यह मुमकिन था| इरफ़ान की काबिलियत मकबूल, हैदर, 7 खून माफ, पान सिंह तोमर, नेमसेक, लाइफ ऑफ पाई, और तलवार जैसी फ़िल्मों से ज्यादा इस तथ्य से जाहिर होती है कि वे कारवां, और करीब करीब सिंगल जैसी फ़िल्मों को ऐसी बना गए कि लोग उन्हे बार बार देखें और साधारण व्यक्ति के चरित्रों में उनके अभिनय की सहजता, और बारीकी को देखकर आश्चर्यचकित होते रहें| वे उन्मुक्त उड़ान भर रहे थे सिनेमा के आकाश में, नए से नए द्वीपों पर उतर कर नए से नए अनुभव प्रस्तुत कर रहे थे| पीकू जैसी फ़िल्म में उनका जादुई अभिनय इस टोटके के सामने थोड़ा कम चर्चा पा पाया कि समीक्षकों का बहुत बड़ा वर्ग इसी बात से खुश होता रहा कि अमिताभ बच्चन ने कितनी बढ़िया बंगाली बोली| उनकी पत्नी बंगाली है, उन्होने बंगाल में युवावस्था में नौकरी की है, बंगाली भाषा तो वे बोल ही सकते थे पर क्या वो भाषा सुगमता से बहने वाली थी? वे अपने चरित्र के लिए किए अभिनय प्रदर्शन में इरफ़ान के बिना रुकावट बहने वाले अभिनय प्रदर्शन से बेहतर थे? अमिताभ से ज्यादा प्राकृतिक अपनी भूमिका  में मौशूमी चटर्जी लगीं| अमिताभ को पीकू में अमिताभ बच्चन द लीजेंड होने का स्पष्ट लाभ मिला| अमिताभ के बदले अगर कोई बंगाली अभिनेता जैसे धृतमान चटर्जी, या विक्टर बनर्जी जैसे शानदार अभिनेता उस चरित्र को निभाते तो संभवतः फ़िल्म में ज्यादा सच्चाई आती और इरफ़ान के योगदान का सही मूल्यांकन भी होता| एन॰ एस॰ डी मार्क अभिनेताओं को एक तरफ उन्होने परंपरागत फ़िल्म उद्योग से सम्मान लाकर दिया है और साथ ही उनके समक्ष बहुत बड़ा लक्ष्य भी रख दिया है कि क्या भविष्य में आत्मविश्वास से भरा उस धारा का कोई अभिनेता इरफ़ान द्वारा स्थापित कीर्तिमान को छू पाएगा? हिन्दी फ़िल्मों की बात करें तो विशाल भारद्वाज और तिग्मांशु धूलिया भाग्यशाली नज़र आते हैं कि उन्होने इरफ़ान की अभिनय क्षमता का भरपूर दोहन करके उनके साथ यादगार फ़िल्में बनाईं और उनसे कभी भी भुला न सकने वाले अभिनय प्रदर्शन करवाए| जिन युवा निर्देशकों ने इरफ़ान के साथ किसी भी कारण से काम नहीं किया उन्होने अपना मौका खो दिया है| ऐसा कम होता है कि किसी अभिनेता का जाना दो तीन दिन बाद भी सालता रहे और तब भी साले जबकि आम जीवन लॉक डाऊन व्यवस्था के कारण आम लोगों के जीवन वैसे ही परेशानियों से भरे हुये हैं| उनके गहरे अभिनय की सच्चाई की भांति इरफ़ान का दर्शकों से संबंध सच्चा बन चुका था| इरफ़ान सा दूजा भारतीय अभिनेता, जो एक मुकम्मल अभिनेता हो और जिसकी वैश्विक पहचान हो, आने में वक्त लगेगा| तब तक के लिए इरफ़ान द्वारा छोड़ी गई सिनेमाई विरासत ही है…

…[राकेश]

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