राज कपूर की फिल्मों के गीत विशाल जनसमूह के ह्रदय को छूने वाले गीत रहे हैं| महासागर जैसे उनके संगीत संसार से 2-3 झलकियाँ भी देख ली जाएँ तो उनकी फिल्मों के संगीत संसार से परिचित होने के लिए वे ही बहुत हैं|
राज कपूर इसलिए शो मैन नहीं कहे जाते कि उनकी फिल्मों में बड़े बड़े सेट्स होते थे, वे लार्जर देन लाइफ तरीके से अपनी कल्पना को परदे पर साकार करते थे जैसा कि उनके बाद के काल में सुभाष घई को और आज के दौर में संजय भंसाली को कहा जाता है| राज कपूर शो मैन थे अपनी बारीक दृष्टि, अत्यूतम कला, कल्पनाशीलता और समाज के भांति भांति के स्तरों पर रहने वाले लोगों के बीच अंतर को भेदकर सभी को प्रभावित करने वाले सिनेमा रचने के कारण, ऐसा सिनेमा जो देश काल व वातावरण की सीमाओं का उल्लंघन भी करता रहा है|
माला सिन्हा ने कहा था कि राज जी तो कलाकारों को बनाने वाले कलाकार थे|
राज कपूर ने फिल्मों से दौलत कमाकर फिल्मों में ही लगाईं, उससे अपने लिए महल नहीं खड़े किये| फ़िल्में बनाना उनके लिए जीवन जीने की अनिवार्य शर्त जैसा था| 23 साल की उम्र में इस कलाकार ने आग जैसी फ़िल्म बना दी, फ़िल्म नहीं चली लेकिन दुनिया को बड़ी संभावना वाले एक फ़िल्म सृजक के रूप में राज कपूर दिखाई दे गए|
30 साल की उम्र से पहले ही एक महान निर्देशक होने की उनकी ख्याति विश्व विजेता बन चुकी थी|
अपनी फ़िल्में बनाकर वे अपने घरेलू स्टाफ, स्टूडियो के स्टाफ, जिसमें चौकीदार और पानी पिलाने वाले कर्मचारी भी सम्मिलित होते थे, उन्हें भी दिखाते थे, उनकी प्रतिक्रियाओं को गौर से देखते थे| रोजाना वे शाम को निकल जाते थे स्ट्रीट फ़ूड का आनन्द लेने अपने स्थाई ठिकानों की तरफ| पूना जाते थे तो डेकन क्वीन से और इन सब तरीकों से आम जनता से संबंध बना कर रखते थे तभी उनके फिल्मों में हरेक सामाजिक स्तर के चरित्र बेहद विश्वसनीय लगते हैं|
अपनी फिल्मों के गीतों को वे किन्नरों को बुलाकर उन्हें सुनाते थे, प्रोजेक्टर पर दिखाते थे और उनकी प्रतिक्रया को पूरी गंभीरता से लेते थे| इतनी मेहनत वे हरेक गीत पर करते थे, तभी उनकी फिल्मों के गीत अमर हैं|
रोजाना के जीवन में भी उनकी पैनी दृष्टि का आलम यह था कि उनकी फिल्मों की साथी नर्गिस इसलिए हाई हील्स नहीं पहनती थीं कि जिससे राज कपूर के साथ चलते हुए वे राज जी से लम्बी न दिखाई दे|
राज कपूर अपनी पत्नी कृष्णा कपूर को अपने बच्चों की माँ और नर्गिस को अपनी फिल्मों की माँ कहा करते थे और दोनों को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते थे और जीवन के दोनों पक्षों के मेल की कोई गुंजाइश नहीं देखते थे| परदे पर रोमांटिक आशावाद फैलाने वाले कलाकार को लगता था कि जीवन ऐसे ही चलता रहेगा| उनका सारा ध्यान अपनी फिल्मों में लगा रहता था|
आह उनकी और नर्गिस की नायक-नायिका के रूप में साथ में की गयी अंतिम फ़िल्ग थी| आर.के फिल्म्स की जागते रहो में वे केवल क्लाइमेक्स में नज़र आयीं| उसी दौरान नर्गिस, आर के बैनर से बाहर की मदर इंडिया फ़िल्म करने लगीं, और एक दिन नर्गिस आर के स्टूडियो आयीं तो ऊँची हील्स के सैंडिल पहन कर आयीं| राज कपूर ने अपने एक साथी से कहा कि नर्गिस के जीवन में कोई लम्बे कद का पुरुष आ चुका है|
कुछ ही दिन बाद नर्गिस का ड्राईवर आर के स्टूडियो में आया और राज कपूर से बोला कि मेमसाहब ने अपना हारमोनियम मंगाया है|
राज कपूर समझ गए कि नर्गिस उनकी और आर. के. फिल्म्स की ज़िंदगी से हमेशा के लिए जा चुकी हैं|
दो हिस्सों (घर-परिवार, और फ़िल्म सृजन संसार) में बंटा उनका जीवन जिस संतुलन को साधे हुआ था वह संतुलन बिगड़ गया| शुरू में तो उन्हें अपनी फिल्मों की तरह ही उम्मीद रही होगी कि नए बदलाव एक कथाक्रम का हिस्सा ही हैं और जल्दी ही उनके जीवन के दोनों पहलुओं में संतुलन आ जाएगा| लेकिन जीवन फ़िल्म नहीं होता| नर्गिस के जीवन की नैया को भी किनारा चाहिए था| एक सजीव स्त्री, जो बहुत बड़ी अभिनेत्री थी, कैसे एक डावांडोल स्थिति में किसी मृग-मरीचिका में फंसी रहती? राज–नर्गिस अलगाव वास्तव में होना ही था, बहाना चाहे जो बनता|
नर्गिस उनके फ़िल्म निर्माण गतिविधियों का महत्वपूर्ण हिस्सा होती थीं| फ़िल्म श्री 420 के गीत – प्यार हुआ इकरार हुआ, की धुन से वे संतुष्ट नहीं थे तो उन्होंने शंकर जयकिशन और मन्ना डे के सामने अपनी प्रसिद्द कुटिया में नर्गिस के साथ बाकायदा छाता लेकर अभिनीत करके दिखाया कि वे कैसे इस गीत को फिल्माएँगे सो किस तरह से संगीतकार जोड़ी को धुन बनानी है और कैसे मन्ना डे उनके लिए गायेंगे यह सब उन्होंने निर्देशित किया गीत की रिकार्डिंग से पहले ही|
राज कपूर (और नर्गिस) पर भारतीय सिनेमा में सबसे पहली बार ड्रीम सीक्वेंस फिल्माया गया| [गीत – अरमान भरे दिल की लगन (गीता दत्त+मुकेश, संगीत – खेमचंद प्रकाश, फ़िल्म – जान पहचान, 1950, निर्देशक – फ़ाली मिस्त्री)] , और लगभग उसी समय राज कपूर ने अपनी फ़िल्म आवारा (1951) के लिए भी एक कालजयी ड्रीम सीक्वेंस वाले गीत – घर आया मेरा परदेसी , को फिल्माया और इसके फिल्मांकन के लिए सीमाओं से बाहर जाकर कल्पना की, सेट लगवाये| फ़िल्म ने प्रदर्शित होने के बाद देशों की, भाषाओं की, और मानव मानव के बीच की सारी सीमाएं तोड़ दीं और राज कपूर को आवारा ने एक अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकार बना दिया|
युवाओं ने, विशेषकर भारतीय युवाओं ने सिनेमा के परदे पर युवा प्रेम के ऐसे दृश्य नहीं देखे थे जैसे राज कपूर ने उन्हें आवारा में दिखा दिए| देश के नामी गिरामी कलाकार, और उस वक्त युवा और बाद में अपने अपने क्षेत्रों में खूब नाम कमाने वाले कलाकार उस एक फ़िल्म के एक्सपोज़र से राज कपूर के सिनेमा के स्थाई प्रशंसक बन गए, और तमाम ऐसे पत्रकार, साहित्यकार और लेखक रहे जो अन्य विषयों पर लिखते थे लेकिन अपनी लेखनी के सक्रिय सालों में उन्होंने राज कपूर के किसी पहलू पर अवश्य ही लिखा|
Shri 420 में राज कपूर ने तकनीकी रूप से फिर एक कदम आगे बढाया और इसके एक गीत में भारतीय सिनेमा में पहली बार राज कपूर ने चरित्र के अन्दर से उसकी अंदुरनी तसवीर को बाहर निकलते दिखाकर उससे गीत गवाया, इस तकनीक का उपयोग बरसों बाद गुलज़ार ने मौसम फ़िल्म में दिल ढूंढता है गीत में संजीव कुमार के चरित्र के साथ किया|
संगम के दौरान एक गीत को लेकर राज कपूर और लता मंगेशकर के मध्य तनातनी हो गयी और लता मंगेशकर ने राज कपूर के ड्रीम प्रोजेक्ट मेरा नाम जोकर में कोई भी गीत नहीं गया| इसमें संगीतकार शंकर की भी भूमिका थी जो उन दिनों शारदा से ही गीत गवाने की कोशिश करते थे| राज कपूर के लिए उनकी फिल्मों की नायिका की आवाज लता मंगेशकर की ही आवाज थी| मेरा नाम जोकर फ्लॉप हो गयी, सदमे से उबरने के लिए राज कपूर ने बॉबी बनाने की संकल्पना पर विचार किया| वे किसी भी हालत में लता मंगेशकर से ही गीत गवाना चाहते थे तो उन्होंने कठोर निर्णय लेकर अपने स्थाई संगीतकार शंकर जयकिशन को हटाकर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत का काम सौंप दिया| लता मंगेशकर उन दिनों इस संगीतकार जोड़ी के साथ बहुत सी फिल्मों में गीत गा रही थीं| उन्होंने लता जी को बॉबी के गीत गवाने के लिए राजी कर लिया
कुछ साल बाद बेटे रणधीर कपूर के लिए वे एक रोमांटिक कॉमेडी फ़िल्म बीवी ओ बीवी का निर्माण कर रहे थे, और उसका निर्देशन सौंपा था अपने सहायक राहुल रवैल को| रणधीर कपूर की पहले की कुछ फिल्मों में आर डी बर्मन ने संगीत दिया था और उन फिल्मों के गीत बहुत प्रसिद्द हुए थे तो रणधीर कपूर आर डी बर्मन को संगीतकार लेना चाहते थे| राज कपूर ने उनकी बात मानी| आर डी बर्मन पहली बार किसी आर के बैनर्स की फ़िल्म में संगीत दे रहे थे तो स्पष्टतः घबराए हुए थे|
पंचम ने एक धुन बनायी और, राहुल रवैल, गीतकार शायर निदा फाजली और रणधीर कपूर के साथ बैठ कर उसके बोलों पर काम कर रहे थे कि राज कपूर दोनों हाथों में समोसों और जलेबी के पैकेट्स लेकर वहां आये और उन सबको खाने के लिए दी| रणधीर कपूर ने उत्साह से कहा कि पंचम ने बड़ी गज़ब की धुन बनाई है, और अब निदा फाजली साहब उसमें शब्द पिरो रहे हैं|
राज कपूर ने ध्यान मग्न होकर धुन सुनी, निदा फाजली के लिखे बोल सुने, और निदा फाजली से पूछा कि डब्बू (रणधीर) और राहुल ने आपको फ़िल्म की सिचुएशन सुनाई?
निदा फाजली ने कहा,” जी हाँ, लड़के और लडकी के बीच रोमांटिक गाना है”|
राज कपूर ने कहा,” अब मैं आपको सिचुएशन बताता हूँ | देखिये जब से इंसान धरती पर आया है तब से लड़के और लड़की के बीच प्रेम होता आ रहा है, वे किसी काल में मिलें उनके बीच प्रेम हुआ है| मैं चाहता हूँ, आप प्रेम की इस निरंतरता, इस शाश्वतता को ध्यान में रखते हुए गीत लिखें”|
उन्होंने कुछ दृश्य और निदा फाजली के सामने प्रस्तुत किये अपनी बात को साफ करने के लिए और निदा फाजली के उर्वर दिमाग में प्रकाश की किरण दौड़ पडी और गीत सामने आ गया
सदियों से दुनिया में
यही तो किस्सा है
एक ही तो लड़की है
एक ही तो लड़का है
जब भी ये मिल गये, प्यार हो गया
मोहन की राधा है, मजनूँ की है लैला
हर युग में लगता है दिल वालों का मेला
एक से दो हुए, प्यार हो गया
सदियों से दुनिया में
पत्थर की मस्जिद हो, या चाँदी की मूरत
दुनिया में प्यार बिना, कोई नहीं तीरथ
दिल से दिल जब मिले, प्यार हो गया
सदियों से दुनिया में .
सागर की ओर चले नदिया घूँघट खोले
भँवरा भी कलियों के आगे-पीछे डोले
फ़ासले कम हुए, प्यार हो गया
सदियों से दुनिया में
पंचम ने बोलों के अनुसार धुन में बदलाव किये और फाइनल गीत को सुनकर राज कपूर ने पंचम की पीठ थपथपाई और कहा,” बेटा बहुत बढ़िया काम किया है”| उस दिन पंचम को खुशी से नींद नहीं आई होगी| राज कपूर जैसे संगीत पारखी की तारीफ़ पाना हीरे जवाहरात पाने से कम बात नहीं|
प्रेमरोग के बाद राज कपूर अपनी अगली फ़िल्म राम तेरी गंगा मैली की तैयारी कर रहे थे| दिल्ली में किसी निजी समारोह में सम्मिलित होने पर वहां उन्होंने रविन्द्र जैन को गीत गाते सुना और उन्होंने तुरंत उन्हें अपनी अगली फ़िल्म के लिए साइन कर लिया और उन्हें पुणे में अपने फ़ार्म हाउस पर लेकर चले गये और वहां कुछ ही दिन में फ़िल्म का संगीत तैयार करवा लिया|
इस फ़िल्म के गीतों को फ़िल्म में जिस क्रम से वे आते हैं उस क्रम में सुना जाए तो राज कपूर की जीनियस सोच का परिचय मिलेगा कैसे उन्होंने लता जी के गायन के अंदाज़ को गंगा (मंदाकिनी) के जीवन के उतार के साथ परिवर्तित किया है|
एक राधा एक मीरा गीत के गायन में, उसकी धुन में और उसके फिल्मांकन में राज कपूर का स्पेशल टच मिलता है|
फ़िल्म के संगीत से राज कपूर बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने रविन्द्र जैन को ही अगली फिल्म हिना के संगीत की जिम्मेदारी सौंपी|
रविन्द्र जैन तब तक रामानंद सागर की रामायण के लिए भी संगीत तैयार कर चुके थे|
राज कपूर ने एक महीने के लिए रविन्द्र जैन को कश्मीर भेज दिया जिससे उनके अन्दर से रामायण के संगीत का असर समाप्त हो जाए और वे स्वतंत्र रूप से फ़िल्म के विषय के अनुकूल संगीत रच सकें|
सन 1988 के 30 अप्रैल को राज कपूर मुंबई से दिल्ली पहुंचे, जहां उन्हें दादा साहेब फालके पुरस्कार लेने के लिए समारोह में सम्मिलित होना था, तो उनकी तबियत खराब थी, और विमान से बाहर निकले तो धूल भरी आंधी चलने लगी, मानो अस्थमा से पीड़ित भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े शो मैन के विरुद्ध एक्शन सीन करने आई हो| धूल के इस आक्रमण से उनकी तबियत और बिगड़ गयी, और 1 मई को पुरस्कार वितरण समारोह में ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ मास्क लगा कर बैठे| उनका नाम पुकारा गया तो वे निढाल हो चुके थे, उनमें इतनी शक्ति नहीं बची थी कि वे उठकर मंच पर जाएँ और राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमण के हाथों से पुरस्कार ग्रहण करें| माननीय राष्ट्रपति महोदय ने मंच से ही राज कपूर की हालत देखी और भारत के प्रथम नागरिक सारे प्रोटोकोल तोड़कर मंच से नीचे उतर कर राज कपूर के पास पहुँच गए और उन्हें दादा साहेब फालके पुरस्कार प्रदान किया| पुरस्कार लेते ही राज कपूर अचेत हो गए और राष्ट्रपति ने आनन फानन उन्हें एम्स भिजवाने के निर्देश दिए|
पूरे एक माह जीवन मृत्यू के बीच संघर्ष करता महान कलाकार 2 जून 1988 को धरती को अलविदा कह गया|
~पुण्य तिथि स्मरण
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