“वेल डन अब्बा“ अभाव और समृद्धि के निर्लज्ज प्रदर्शन के दो विरोधी पाटों के बीच पिसते भारत पर व्यंग्य करती एक कहानी को दिखाती है।
श्याम बेनेगल इस फिल्म में भ्रष्ट भारतीय समाज में समस्यायों से दो चार होते एक सामान्य से मनुष्य की कहानी दिखाते हैं जो शुरु में तो एक सीधे से साधारण मानव की भाँति भ्रष्ट तंत्र के हाथों प्रताड़ित होता है पर जल्द ही वह प्रेमचंद के साहित्य के चरित्रों का चोला छोड़कर पंचतंत्र की कहानियों के सयाने पात्रों या बीरबल और तेनालीराम सरीखे चरित्रों की चतुराई सीखकर न केवल अपना काम निकालता है बल्कि ये भी सिद्ध कर देता है कि लोकतंत्र में अगर जनता चाहे तो शक्तिशाली राजनेता को उनकी सही हैसियत दिखा सकती है और उन्हे बता सकती है कि वे जनता के शाषक नहीं वरन प्रतिनिधी हैं। सही शब्दों में कहा जाये तो नेता जनप्रतिनिधी और सरकारी कर्मचारी जन सेवक ही होते हैं और एक भ्रष्ट तंत्र ने ही उन्हे आम जनता से ऊपर के स्तर पर बैठा दिया है और जनता उनके सामने निरीह बन कर रह गयी है। न केवल सरकार और इसकी मशीनरी बल्कि कोई भी निजी कम्पनी जिसने भी जनता से पैसा लिया है व्यापार करने के लिये जनता के प्रति जवाबदेह है। पर दुर्भाग्य से भारत में दो तबके बन गये हैं।
वर्तमान भारत स्पष्ट रुप से दो भागों में बंट चुका है। एक भारत है जहाँ समृद्धि में सर तक डूबे लोग इंडिया शाइनिंग के भरपूर यौवन का आनन्द हल्ला मचा मचा कर लेना चाहते हैं। यहाँ सफलता ही सबसे बड़ा पैमाना है और उसे पाने के लिये रास्ते के नैतिक या अनैतिक होने से कोई भी सरोकार भाग दौड़ में व्यस्त लोगों को नहीं है। येन केन प्रकारेण काम हो जाना चाहिये चाहे उसके लिये देश का कानून तोड़ना पड़े या इन्सानियत को ताक पर रखना पड़े लोग हिचकते नहीं हैं। इस भारत में रहने वाले लोगों को अति आधुनिक सुख सुविधा जल्द से जल्द चाहिये और भ्रष्टाचार इन लोगों के लिये कोई मुद्दा है ही नहीं। जनता, सरकार, सरकारी मशीनरी, व्यापारी, मीडिया आदि हर तरह के समुह में इस भारत के नुमांइदे बहुतायत में हो गये हैं। लोकतंत्र के चारों कोने इन लोगों और इनकी दुषित मानसिकता से पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हैं। इन्हे दूसरे से कतई कोई मतलब नहीं है। पड़ोस में आतंकवादी बीस पचास निरीह लोगों को मार जायें ये लोग शाम को पार्टी में शराब के साथ मामले को भूलकर ग्लैमर या गासिप की बातों में समय गुजार लेंगें और बहुत ही ग्रह अच्छे हों देश के तो ये सरकार को कोस लेंगें। ऐसे निवासी सिर्फ उस बात से परेशान होते हैं जो कि उनकी समझ के अनुसार वाली प्रगति के मार्ग में बाधा ला रही हो। यदि सरकार उस अंधी प्रगति के लिये एक बिना बाधा वाला रोड मैप जारी कर रही है तो इन्हे टानिक मिल जाता है वरना सरकार बेकार है। और यदि सरकार सुविधाओं को हर हिन्दुस्तानी को बाँटने की बात करे तो ये लोग पूरे देश में तूफान खड़ा कर देंगें क्योंकि इस बात का सीधा मतलब है की भारत के सीमित संसाधनों के कारण तब वैसी प्रगति आने में देर हो जायेगी जैसी कि ये लोग चाहते हैं। ये घरों में नौकर तो चाहते हैं पर उन्हे रखने के लिये इनके पास जगह नहीं है और घरों में नौकरी करने वाला उस जगह तो घर नहीं ले पायेगा जहाँ साहब लोग रहते हैं और उसे स्लम में ही जगह मिल पायेगी और स्लम साहब लोगों को शहरों के चेहरे पर धब्बे लगते हैं।
भारत में अदने से अदना व्यापारी अपने सामान का मूल्य खुद लगाने को स्वतंत्र है पर किसान को ये हक़ नहीं है कि जिस पैदावार के लिये वह दिन रात एक कर देता है उसका मूल्य भी खुद निर्धारित कर सके। सारे उन्नत देश न केवल अपने किसानों को सब्सिडी और हर तरह की सुविधायें देते हैं बल्कि उनके बच्चों को शिक्षा में हजार तरह की छूट मिलती है जिससे लोग खेती करने के लिये प्रेरित हो सकें पर इंडिया शाइनिंग के बाशिंदे न केवल आसमान सिर पर उठा लेते हैं जब भी किसानों और समाज के निम्न वर्ग को सुविधायें देने की बात आती है बल्कि उनमें से कुछ तो अखबारों में लेख भी लिखते हैं कैसे सरकार को शिक्षा देने के काम से भी हाथ खींच लेने चाहिये क्योंकि बकौल उनके ये सब काम सरकार के नहीं हैं और उसे तो केवल इन्फ़्रास्ट्रक्चर देने में ही अपनी सारी ऊर्जा और अपने सारे साधन झोंक देने चाहिये। किसानों द्वारा आत्महत्या करना उनके लिये दूर का मामला है जो कि ऐसे हताश लोगों द्वारा लिया गया कदम है जो कि आधुनिक अर्थशास्त्र समझने में नाकामयाब रहे और असफल होकर अपना जीवन त्याग बैठे। हजारों, लाखों और करोड़ो की हेराफेरी करने वालों ने एक ऐसा तन्त्र कायम कर लिया है जहाँ सीधे सच्चे और अपनी बात को पूरा करवाने के लिये शराफत से अपनी बात रखने वाले भोंदू ठहराये जाने लगे हैं और उनका मखौल उड़ाया जाता है। यहाँ ईमानदारी को अभिशाप और संभावित प्रगति (जिसे दनदनाकर आना चाहिये) के मार्ग में रोड़े डालने वाला तत्व समझा जाता है। ईमानदारी और ईमानदार लोगों को एकदम शुरु में ही कुचलने के प्रयास यहाँ हर समय चलते रहते हैं क्योंकि यदि इनका अस्तित्व बना रहा तो जीवन में से बेहिचक आने वाले आनन्द में बाधा पड़ जायेगी। यहाँ किस सेलिब्रेटी ने किस पार्टी में क्या पहना इस बात पर घंटो चरचा चलती है और अगर इस बात का जिक्र किया जाये कि करोड़ों ऐसे लोग हैं भारत में जो सरकार की अपनी परिभाषा के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे जीवन काट रहे हैं और देश में ऐसे हजारों गाँव हैं जहाँ मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है तो ऐसे लोग बात को खत्म करना चाहते हैं कि उनकी राजनीति और राजनीतिक बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है। जब भारत के करोड़ों लोग किसी तरह खाकर या बिना खाये हुये ही इस चिन्ता के साथ रात को लेटते हैं कि पता नहीं कल कुछ कमाने का अवसर मिलेगा या नहीं शाइनिंग इंडिया के प्रतिनिधी गंजे होते सिर पर ग्राफ्टिंग के जरिये बाल उगाने की योजनायें बनाते रहते हैं और या तो पुरुष निर्णय लेते हैं कि कैसे उनके इर्द गिर्द की महिलायें सिलिकान इम्प्लांट के जरिये अपने शरीर को और अधिक आकर्षक बना सकती हैं या महिलायें खुद ही उनसे कह रही होती हैं कि कास्मेटिक सर्जरी और बोटोक्स आदि पर कुछ खरचा करना पड़ेगा।
ऐसा नही है कि भारत में पिछले साठ सालों में सरकारों ने जनहित में अच्छी योजनायें नहीं बनायी हैं या लागू नहीं की हैं पर भ्रष्ट भारत के दलाल नुमा नुमांइदे हर योजना का उस हद तक शोषण करते रहते हैं जब तक कि योजना जमीनी स्तर पर कोई असर ने देखकर सरकार खुद ही उस योजना को बंद नहीं कर देती। 80 के दशक के उत्तरार्ध में भारत के तब के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को स्वीकारना पड़ा था कि किसी भी अनुदान का सिर्फ 15% ही जनता तक पहुँचता है और बाकी सारा बीच के दलाल खा जाते हैं।
श्याम बाबू ने एक कथानक की प्रकृति के अनुसार एक साधारण दिखने वाली फिल्म बनायी है और हास्य व्यंग्य का सहारा लेते हुये न केवल भ्रष्ट तंत्र की बखिया उधेड़ी है बल्कि लोकतंत्र में जनता की शक्ति को रेखांकित भी किया है। उनकी अपनी ही पिछ्ली फिल्मों से तुलना की जाये तो ये फिल्म कुछ हल्की बैठती है पर यह अपने समय में प्रदर्शित होने वाली अन्य फिल्मों से अच्छी है और देश के समाज और इसकी समस्यायों से सरोकार रखती है।
बोमन ईरानी अच्छा काम कर गये हैं। “लगे रहो मुन्नाभाई” में एक सरदार और “खोसला का घोंसला” में एक पंजाबी चरित्र निभाने के बाद यहाँ वे हैदराबादी मुस्लिम के रुप में अपनी भूमिका अच्छे ढंग से निभाते हैं|
किसी भी अभिनेता के लिये श्याम बाबू की फिल्म में काम करने का मौका मिलना एक खास मायने रखता है और उस लिहाज से समीर दत्तानी और मिनीषा लांबा और बेहतर कर सकते थे| मिनीषा के रोल में काफी सम्भावनाऐं थीं। अपनी पहली फिल्म “यहाँ” में उन्होने जितनी सम्भावनाओं की आशा जगायी थी बाद की फिल्मों में वे उन्हे पूरा करने में थोडा पिछड़ रही हैं|
नब्बे के दशक के बाद की श्याम बाबू की फिल्मों में नियमित रुप से दिखायी देने वाले रजित कपूर ने इस बार भी अपनी छोटी भूमिका में भी बहुस्तरीय अभिनय करने का सफल प्रयास किया है और एक ऐसे पुलिस अधिकारी का चरित्र बखूबी निभाया है जो अपनी पत्नी के दबावों के कारण थोड़ा बहुत भ्रष्टाचार करने पर मजबूर है और जो पत्नी और उसके प्रभावशाली और धनी मायके के कारण कुछ दबा हुआ रहता है।
रवि झंकाल, इला अरुण और यशपाल शर्मा भी अपनी भूमिकायें अच्छे ढंग से निभा गये हैं। रवि किशन को नाटकीयता से भरपूर चरित्र मिला था जिसे वे प्रभावशाली ढंग से निभाते हैं| सोनाली कुलकर्णी छोटी सी भूमिका में सार्थक उपस्थित नज़र आती हैं|
अशोक मिश्रा का लेखन श्याम बाबू की पिछली फिल्म वेल्कम टू सज्जनपुर जैसा धमाकेदार तो नहीं है पर फिल्म में रोचकता बनाये रखता है।
…[राकेश]
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