जॉन मैथ्यू मेथन, ने फ़िल्म निर्देशक के रूप में अपनी पहली ही फ़िल्म – सरफ़रोश, से ऐसी चमक दिखाई कि उनसे बहुत बड़ी बड़ी अपेक्षाएं सिने प्रेमियों को बंध गयीं थीं| सरफ़रोश की पटकथा पर उन्होंने छः सात साल जम कर काम किया था इसलिए फ़िल्म जहां भी दर्शक को ले जाती है दर्शक वहीं के मोहपाश में बंध जाता है|

दिल्ली, मुंबई और राजस्थान में पाकिस्तान सीमा से लगे इलाकों की सैर फ़िल्म ऐसे कराती है मानो दर्शकों को एक दक्ष टूरिस्ट गाइड के हवाले कर दिया गया हो| हवालात के अन्दर का दृश्य हो, किसी ढाबे पर वांछित अपराधी के इन्तजार में भेष बदल कर बैठे पुलिस वाले दिखाए जा रहे हों, मुंबई की तंग गलियों में आतंकवादियों के सुराग ढूँढने के दृश्य हों, संगीत की महफ़िल के दृश्य हों, सीमा पर स्थित गाँव की हवेली के दृश्य हों, आतंक के सिरों की तलाश में रेगिस्तान की तपती धरती पर भटकने के दृश्य हों, व्यस्त सड़कों पर पुलिस अधिकारी के आतंकी के पीछे भागने के दृश्य हों, सरफ़रोश अपने हरेक पहलू के पल्लू में दर्शक को ऐसा बांधती है कि दर्शक के अन्दर उत्पन्न तनाव फ़िल्म समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो पाता है|

अपने देश की हिफाज़त के लिए मुझे किसी सलीम की आवश्यकता नहीं है” ऐसा जब नायक, एक आई पी एस अधिकारी, अपने मातहत इन्स्पेक्टर से कहता है तो परदे पर एक अजीब सा तनाव घिर आता है और कुछ मिनटों के बाद जब वही इन्स्पेक्टर एक ऐसे काम को कर देता है जिसके लिये आई पी एस अधिकारी की सारी टीम पूरी मेहनत के बावजूद कर पाने में असफल रहती है और इन्स्पेक्टर भावनाओं से घिर कर अपने बॉस से कहता है ,

मेरी बात सुनो सर, फिर किसी सलीम से मत कहना कि ये मुल्क उसका घर नहीं है।“|

एक साधारण फ़िल्म बात को यहीं समाप्त कर देती लेकिन सरफ़रोश तो फिर एक ही बनी है हिन्दी सिनेमा में सो फ़िल्म का नायक, पूर्ण ईमानदारी के भाव से कहता है,

ठीक है कभी नहीं कहूँगा“|

अधिकारी और उसका मातहत कर्मचारी, जो दोनों अलग अलग सम्प्रदायों से आते हैं, गले मिलते हैं तो यह कोई सांप्रदायिक उत्सव का अवसर नहीं है बल्कि ठोस बुनियाद पर दो देशभक्तों का मिलन है, और इसी नाते ऐसे ठोस दृश्यों की बुनियाद पर सरफ़रोश एक बेहद प्रभावशाली फ़िल्म बनकर सामने आती है|

जगजीत सिंह की सुरीली गायिकी में गीत ग़ज़ल गाने वाला जमींदार गायक जब अपने आराम में खलल डालने वाले अपने प्रिय मेमने को भी शारीरिक दंड देता है तो दर्शक को सोच विचार में डाल देता है कि मौसिकी या कोई भी कला क्या कलाकार या कला के प्रशंसक व्यक्ति की क्रूरता को कम कर पाने में समर्थ नहीं होती?

सरफ़रोश की उपलब्धि में यह बात भी जुडती है कि भारत विभाजन के बाद से ही भारत- पाक संबंधों के विषय में यही एकमात्र फ़िल्म उस समय तक बनी थी जिसने दिखाया कि कैसे पाकिस्तानी तानशाही, वहां की सेना और खुफिया एजेंसी के लिए बंटवारे के वक्त या बाद में भारत से पाकिस्तान जाकर बसे लोगों के जीवन की कोई कीमत नहीं और उनका इस्तेमाल केवल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए ही किया जाता रहा है| उन्हें अपने बराबर का न मानकर मुहाजिर वर्ग में डाल दिया गया|

भारतपाक संबंधों की रोशनी में पाक प्रायोजित आतंकवाद का विषय इतनी कुशलता से फ़िल्म में दर्शाया गया है कि नायिका के नायक संग दृश्य असल में दर्शकों में खीज उत्पन्न करते हैं क्योंकि वे फ़िल्म को बीच बीच में टैक से उतार देते हैं और एक बेहद ईमानदार, निष्ठावान, परिश्रमी और अपने लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध आई पी एस अधिकारी को नायिका संग झरने के पानी में नायिका द्वारा गाये गीत “इस दीवाने लड़के को” के बीच में शेर पढ़ते या कमेंट्री करते देख दर्शक को ऐसा लगने लगता है कि इतने गंभीर केस के बीच में ये तत्व ध्यान भटकाने कहाँ से आ गए|

फ़िल्म के बाद एक दूसरा मसला चुभता है कि काश फिल्म ने अविभाजित भारत में जन्में भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत बड़े गायक और संगीतकार मेहदी हसन साहब से मिलती जुलती पृष्ठभूमि पर फ़िल्म के एक निगेटिव चरित्र- गुलाम हसन, की रचना न की होती|

सुलतान, बाला ठाकुर, वीरन, हाजी सेठ, और मिर्ची सेठ आदि जैसे, दर्शकों का अतिरिक्त ध्यान खींचने वाले नामों वाले चरित्र समय समय पर फ़िल्म में अवतरित होकर फ़िल्म की रोचकता अव्वल दर्जे की बनाए रखते हैं|

एक भारतीय मुस्लिम पुलिस अधिकारी को विशेष नमाज के बाद मस्जिद के बाहर एक देशद्रोही मुस्लिम द्वारा सम्प्रदाय के नाम पर बहकाने और उस पर भारतीय अधिकारी के जवाब को दर्शक सालों को नहीं भूल पाता तो इसमें निर्देशक और अभिनेता मुकेश ऋषि की अदाकारी की बहुत बड़ी भागीदारी है|

तब लोग नवाजुद्दीन सिद्दीकी को जानते ही नहीं थे, अब देखेंगे तो पहचान जायेंगे कि उन्होंने शुरुआत में इतनी छोटी छोटी भूमिकाएं असरदार तरीके से निभाकर अपने अन्दर एक अभिनेता होने की मशाल जलाए रखी और उसी निरंतरता की बदौलत वे आज शीर्ष अभिनेता के रूप में सक्रिय हैं|

आमिर खान की यह एक विशेष फ़िल्म है| उन्होंने एक देशभक्त्त आई पी एस की भूमिका में बेहद विश्वसनीय अभिनय का समावेश किया|

भटके हुए गायक आतंकी की जटिल भूमिका में नसीरुद्दीन शाह अपने चरित्र की विभिन्न परतों के रहस्यों के साथ दर्शक को भरमाते हैं|

फ़िल्म में बहुतेरे गुण हैं| इस वर्ग की सिरमौर फिल्मों में सरफ़रोश सदैव शामिल रहती है और आगे भी रहेगी|

फ़िल्म हार्ड हिटिंग है, पर देशभक्ति के एक अन्य पहलू को समेटे हुए एक प्रभावशाली फ़िल्म है|

इस उच्च स्तर की कोई अन्य फ़िल्म जॉन मैथ्यू मेथन बना ही नहीं पाए| आमिर खान की फिल्मोग्राफी में भी यह एक अलग दिखाई देने वाली फ़िल्म है| अस्पताल के एक दृश्य में एक मुस्लिम चरित्रग, घायल लेटे हुए जय (आमिर खान) के कमरे में घुस कर उसे धमकाता है, पैरों पर प्लास्टर चढ़े होने के बावजूद जय बेड से कूद कर उस व्यक्ति का पैर पकड़ने की कोशिश करता है, आकस्मिक आक्रमण से भौचक्का होकर वह व्यक्ति बाहर भाग जाता है, अपने प्रयास पर नाकाम रहने के बावजूद अपने दुस्साहस के कारण जय हँसता हैं, उस हंसी में आमिर खान द्वारा दृश्य में जान डालने के लिए किये गए प्रयास की सच्चाई सम्मिलित है

…[राकेश]


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