थ्रिलर फ़िल्म की सफलता इस बात में है कि परदे पर घटित हर बीतते पल दर्शक को असमंजस में डाले रखे कि आगे क्या होगा या अगर दर्शक कुछ चाह रहा है किन्हीं चरित्रों की तरफ से तो वैसा घटित होने की आस में उसकी भी साँसे उतने ही उतार चढ़ाव झेले जैसे कि परदे पर उसके चुने हुए चरित्रों की सांसें झेल रही हैं|

बी. आर. चोपड़ा की बी आर फिल्म्स ने कुछ थ्रिलर फ़िल्में भी बनाईं, उनमें से एक फ़िल्म “36 घंटे” की चर्चा बहुत ज्यादा कभी नहीं हुयी| यह जानते हुए भी कि इसकी रीढ़ हॉलिवुड की फ़िल्म The Desperate Hours से ली गयी थी और उसमें जेम्स हेडली चेज़ के एक उपन्यास के तत्व भी मिश्रित किये गए, 36 घंटे पहली ही बार इसे देख रहे दर्शक को बाँध लेती है और ऐसा बावजूद इसके होता है कि फ़िल्म के बहाव के साथ बह रहे दर्शक को पहली ही बार में पुलिस इन्स्पेक्टर (रमेश देव) से जो बेवकूफाना हरकत करवाई गयी है उससे निर्देशक राज तिलक पर रोष भी उमड़ता है|

जो काम हॉलिवुड ने बहुत ज्यादा बजट में किया वैसा ही तकनीकी दक्षता वाला काम फ़िल्म की तकनीकी टीम विशेषकर सिनेमेटोग्राफर धरम चोपड़ा ने यहाँ उससे बहुत कम बजट में कर दिखाया|

यह एक मर्डर मिस्ट्री नहीं है और रहस्य से ज्यादा महत्त्व यहाँ स्थितियों के बदलने की आस बाँधने के तनाव का है| अच्छाई कैसे और कब बुराई के चंगुल से बच पायेगी और बुराई कैसे परास्त होगी सारा तनाव इस बात का हैऔर यही तनाव दर्शक को पीठ भी पीछे नहीं लगाने देता|

फ़िल्म की कास्टिंग से आधा मोर्चा फ़तेह हो जाता है| अक्सर नायक की भूमिका निभाने वाले सुनील दत्त को फ़िल्म के शुरू के दस मिनट के अन्दर ही फ़िल्म एक बुरे चरित्र के रूप में स्थापित कर दे और जिस राजकुमार की पौरुष छवि से दर्जन भर फ़िल्में गुलज़ार रही हों, वे परदे पर परिस्थितियों के दास बनकर एक माँ की तरह पिघले हुए एक विवश आदमी बने दिखाई दें तो दर्शक की उत्सुकता का अनुमान लगाना कठिन नहीं|

कड़क, करारी आवाज़ में ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं लग जाए तो खून निकल आता है, जैसे संवाद भरपूर स्टाइल में कह देने वाले राजकुमार को परदे पर ऊँची आवाज में बोलने तक की इजाज़त कुछ चरित्र न दें और दर्शक उस एक क्षण का इन्तजार हर पल के साथ करते हैं कि बस अब राजकुमार सारी स्थितियां पलट देंगे| पर ये नहीं होता| फ़िल्म समाप्त होने को आती है लेकिन अखबारनवीस नायक के साथ ऐसा नहीं हो पाता|

आदमी अपने कारण नहीं डरता| वीरों की बात तो अलग ही है साधारण आदमी भी अपने लिए इतना नहीं घबराता और वक्त आने पर दुस्साहस दिखा जाता है लेकिन जहाँ उसके प्रियजनों की सुरक्षा की बात आ जाए वह विवश हो जाता है| उसके हाथ बंध जाते हैं उसका साहस शिथिल पड़ जाता है|

उसके घर में कुछ ऐसा हो जाए जिसे वह दुनिया में किसी से नहीं कह सकता और उसे अकेले को घर से बाहर अपने काम पर भेज दिया जाए धमकी देकर कि अगर कुछ गलत हुआ तो यहाँ तुम्हारे घर में उससे भी ज्यादा गलत हो जाएगा तो उस व्यक्ति की हालत क्या होगी? घर से बाहर उसे एक एक पल बिताना भारी हो जाएगा| हलक से नीचे पानी ही नहीं उतरेगा चाय कॉफ़ी और भोज्य पदार्थ तो अलग बात है|

सारा शहर एक बात को जानता है लेकिन हमारा नायक इस बात को उन्हीं से साझा नहीं कर सकता जो इस बात को जानते हैं|

सहने की एक क्षमता होती है और प्रताड़ना सहते सहते एक स्थिति ऐसी आ ही जाती है जब मजबूर से मजबूर इंसान भी स्थितियां बिगाड़ने वाले को भविष्य की चेतावनी दे ही देता है|

और ऐसी चेतावनी देते हुए राजकुमार को देखना फ़िल्म का एक अच्छा सिनेमाई क्षण है|

36 घंटे नरक में बिताकर जब स्थितियां पलटती हैं तब फ़िल्म के चरित्रों के साथ दर्शक को भी राहत की साँस आती है|

सीमित समय अवधि वाली फिल्मों में गति बहुत महत्वपूर्ण बात होती है और इसमें दृश्य संयोजन और तकनीकी पक्ष, विशेषकर कैमरा वर्क और बैक ग्राउंड म्यूजिक बड़ी भूमिका निभाते हैं| 36 घंटें में ये सब अव्वल दर्जे के हैं|

नजीबाबाद, उ प्रदेश में जन्में अख्तर उल ईमान ने बेहतरीन शायरी के अलावा बड़ी शानदार फ़िल्में भी लिखीं| और यहाँ भी उनकी कलम का जादू दिखाई देता है|

राजकुमारसुनील दत्तमाला सिन्हापरवीन बॉबीडैनीरणजीतमास्टर अलंकारदेवेन वर्मा, और विजय अरोड़ा आदि एक कसी हुयी फ़िल्म में सुयोग्य अभिनय से बेहद उचित माहौल बना देते हैं|

एक निहायत जंगली किस्म के शैतान जैसे इंसान के रूप में डैनी को देख दर्शको में उसके चरित्र के प्रति गहरी नापसंदगी उभरती है|

एक काली अंधरी रात जैसे हैं 36 घंटे के ज्यादतर हिस्से और अंत में ऐसा ही महसूस होता है कि अंततः सूर्योदय हो ही गया!


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