हिंदी सिनेमा में तवायफों के जीवन को हमेशा ही बहुत ग्लैमराइज़ किया गया था|

श्याम बेनेगल ने हिंदी सिनेमा के उस तरीके से उलट 1983 में मंडी बनाकर प्रदर्शित कर दी और इसे देखना तवायफों का जीवन श्याम बेनेगल की दृष्टि से देखना है| फ़िल्म का रंग रूप एक सामजिक-राजनीतिक व्यंग्य का है और इस श्रेणी में श्याम बेनेगल ने जो तीन फ़िल्में (मंडी, वेलकम टू सज्जनपुर, और वेळ डन अब्बा) बनायीं इसमें मंडी ही पहली थी|

मंडी न तो तवायफों को क्रूर दिखाती है, न साजिशें रचने वाली, न ही अतिरिक्त ममता दिखाकर आदर्शवादी स्त्रियों का रूप ही उन्हें देती है| यहाँ वे समाज के किसी अन्य वर्ग जैसे ही अपने अस्तित्व के लिए लड़ने वाली मेहनतकश स्त्त्रियाँ हैं जिनके जीवन में कई रंग हैं| उनमें से हरेक के कुछ स्थाई ग्राहक हैं जो एक तरह से उनके प्रेमी हैं और ये जोड़े आगे भविष्य में एक साथ रहने की योजनाओं पर कम करते हैं| कोठे पर बैठी तवायफ का व्यापार, भले ही वह सिर्फ गाने और नाचने तक ही सीमित क्यों न हो, युवा उम्र का मोहताज होता है क्योंकि ग्राहक एकबारगी उम्रदराज़ तवायफ का गीत सुनने तो आ जायेंगे लेकिन उसे नृत्य करते देखने नहीं आयेंगे, इसलिए जब एक गूंगी युवती को एक पुरुष धोखे से ब्याह कर कोठे पर बेच जाता है तो मंडी फ़िल्म तवायफों पर बनी आज तक की सारी हिन्दी फिल्मों से उलट ट्रीटमेंट इस सीक्वेंस को देती है| इसे कोठे पर एक सामान्य घटना मानकर दिखाया जाता है| फ़िल्म बिल्कुल नहीं दिखाती कि पहले से वहां रह रही किसी तवायफ नवांगतुक गूंगी युवती के सामने ऐसी तसवीर प्रस्तुत कर रही हो कि उसका भयानक शोषण होने वाला है और उसे किसी तरह जान बचाकर भाग जाना चाहिए| वह ऊपरी मंजिल की बालकनी में पहुँच जाती है तो सारा कोठा अन्दर से और कोठे से बाहर शहर के निवासी सड़क पर उसे गिरने से बचाने में लग जाते हैं| समाज सुधारिका कोठे पर पुलिस के साथ जबरदस्ती रोकी गई किन्हीं लड़कियों कीखोज में आती है तो कोठे से सम्बंधित पुलिस का सिपाही और फोटोग्राफर ही समाज सुधारिका के साथी को फंसा देते हैं|

शहर का एक पुलिस का सिपाही (हरीश पटेल) रात में कोठे पर ही सोया करता है| एक फोटोग्राफर (ओम पुरी) भी दिन रात तवायफों के फोटो खींचने के लिए यहाँ रहता है, और एक केयरटेकर, डुंगरूस (नसीरुद्दीन शाह) तो मौजूद है ही| स्त्रियों की भीड़ के बीच कोई भी डुंगरूस को एक पुरुष के रूप में नहीं देखता, वह तवायफों के कोठे का ऐसा आवश्यक अस्तित्व है जिसके साथ छोटी बड़ी सभी उम्र की तवायफें इतनी ही नजदीकी से रहती हैं जैसे वे अपने परिवार के सदस्य के साथ रहतीं|

शहर के नामी गिरामी सेठों के राज कोठे की बाई (शबाना आजमी) के पास सुरक्षित हैं और जब वे नगरपालिका में स्वयंसेवी संस्था के दबाव में तवायफों को शहर से बाहर निकालने का प्रस्ताव रोक नहीं पाते तो खुद ही शहर से बाहर उनके रहने का इंतजाम करते हैं|

कोठे का सारा तंत्र फ़िल्म ऐसे दिखाती है कि यह भी शहर का एक ऐसा हिस्सा है जैसे नगरपालिका के अंतर्गत आने वाले अन्य हिस्से, जैसे दुकानें, लोगों के मकान, दफ्तर, व्यापारिक संस्थान, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि| इसके अस्तित्व में शहर के नामी गिरामी लोग पूरे पूरे हिस्सेदार हैं|

एक नगर सेठ, जिसने लाभ के लिए तवायफों के कोठे वाली इमारत को खरीद लेता है और उन्हें शहर से बाहर खरीदी गयी वीरान कोठी में बसा देता है, तवायफें वहां भी मजमा लगा देती हैं और वहां महफ़िल गुलज़ार हो जाती है| नगर सेठ तवायफ बाई को अपने लिए भाग्यशाली माँ लेतःई, और समझ जाता है कि जहां बाई रहेगी वहां व्यापार दौड़ कर आयेगा क्योंकि लोगों की भीड़ बाई के कोठे पर जायेंगे ही| वह एक तीसरी जगह बाई को बसाने का प्रस्ताव देता है|

मंडी को स्पेशल फ़िल्म बनाता है इसका हास्य से भरपूर ट्रीटमेंट, शबाना आजमी, कुलभूषण खरबंदा, सईद जाफरी, नसीरुद्दीन शाह, और ओम पुरी का जबरदस्त अभिनय| और साथ में इन्हें सहारा देने के लिए स्मिता पाटिल, हरीश पटेल, अनीता कंवर, सोनी राजदान, पंकज कपूर, अन्नू कपूर, सतीश कौशिक और नीना गुप्ता आदि का अच्छा अभिनय और अमरीश पुरी का परदे पर एक अलग अंदाज़ में उपस्थिति दर्शाना|

मंडी के बहुत से दृश्य, फ्रेम्स, और उपकथायें हाल ही में प्रदर्शित हुयी अथाह बजट वाली वैब सीरीज – हीरामंडी के प्रशंसक दर्शकों में एक अलग भाव को जन्मा सकते हैं कि यह तो पहले ही श्याम बेनेगल की फ़िल्म दिखा चुकी है और ज्यादा अच्छे सिनेमाई अंदाज़ में दिखा चुकी है|

निर्देशक बासु भट्टाचार्य के बेटे आदित्य भट्टाचार्य ने अभिनय को अपना कार्य क्षेत्र न चुनकर अच्छा काम किया, इस फ़िल्म में युवा आदित्य को देखकर स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि अभिनय उनके लिए नहीं था वैसे बाद में वे ब्लैक फ्राइडे में भी नज़र आये|

एक तवायफ के कोठे पर पल रही लडकी के साथ उसी के पिता का दूसरी स्त्री से उत्पन्न हुआ लड़का प्रेम में पड जाता है तो पिता ही नहीं लडकी को पालने वाली तवायफ भी इस रिश्ते को आगे बढ़ने से रोकती है क्योंकि यह अनैतिक है|

तवायफों के संसार को एक सामजिक व्यंग्य के रूप में दर्शाने के लिए मंडी को जाना और सराहा जाता है| फ़िल्म तवायफ को एक सामान्य स्त्री ही दिखा कर बहुत बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर लेती है|

अपने ठोस कथ्य और निर्देशन और अभिनय के बलबूते मंडी जबसे प्रदर्शित हुयी है तभी से दर्शनीय रही है और कभी भी पुरानी नहीं लगती|

…[राकेश]


Discover more from Cine Manthan

Subscribe to get the latest posts sent to your email.