प्रकाश झा की इस फ़िल्म हिप हिप हुर्रे में गुलज़ार स्क्रीनप्ले और संवाद+गीत लेखक के रूप में जुड़े हुए हैं सो बहुत हद तक यह गुलज़ार की भी फ़िल्म है|

गुलज़ार की परिचय में जीतेंद्र के चरित्र को अपने योग्य नौकरी मिलने तक के काल में अपने मामा की वजह से एक धनी खानदान के छोटे बच्चों को उनके घर पर ही रहकर उन्हें पढ़ाने का अवसर मिल जाता है, और अनिच्छा के बावजूद वह वहां जाकर इस काम को संभाल लेता है और जीवन भर का रिश्ता उसका उन बच्चों और उस परिवार से बन जाता है और उसके जीवन में प्रेम का आगमन भी वहीं जाकर होता है|

परिचय के उस कथात्मक कोण को यहाँ हिप हिप हुर्रे में भी उपयोग में लिया गया है और कम्प्युटर इंजिनियर संदीप चौधरी (राज किरन) नौकरी के लिए साक्षात्कार देने के बाद नियुक्ति पत्र पाने तक की अवधि में अपने शहर से रांची जाकर वहां के स्कूल में खेल- अध्यापक की नौकरी कर लेता है|

परिचय और हिप हिप हुर्रे, दोनों ही फिल्मों पर “टू सर विद लव” जैसे कथानक (पुस्तक और फ़िल्म) का भरपूर प्रभाव है और यह दोनों फिल्मों को रोचक और बेहतर ही बनाता है|

संदीप चौधरी को स्कूल की खेलों के प्रति घनघोर उदासीनता से उत्पन्न मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है साथी अध्यापिका अनुराधा रॉय (दीप्ति नवल) और उसके जीवंत तौर तरीकों से|

एक युवा लडकी के लिए किशोर लड़कों की कक्षा लेना या उनके स्कूल में अध्यापिका होना दुष्कर कार्य है विशेषकर भारत जैसे देश में जहां अभी तक न तो कानून ही सही से परिभाषित हैं और न ही यहाँ की किताबें, फ़िल्में आदि पुरुष द्वारा स्त्री संग व्यवहार पर अच्छा व्याकरण गढ़ पाए हैं| लड़कों की आँखों में उतर आयी एक्स रे मशीन से गुज़र कर युवा अध्यापिका का स्कूल के गलियारों से गुजरना और कक्षा में 1 घंटे का लेक्चर देना आसान काम नहीं होते, उसे अँधा हो जाना पड़ता है , जो वह देख रही है उसके प्रति अनजान बन जाना पड़ता है , अपने दायें बाएं और पीछे से स्टॉकिंग की सरसराहट भरी ध्वनियों के प्रति बहरा होना पड़ता है|

दादा टाइप लड़के जो फेल हो होकर वहां अपनी सत्ता कायम कर लेते हैं, अपने सहपाठियों, जो असल में उनके ही छोटे भाई बहनों के साथी रहे होंगे कभी, ही नहीं बल्कि अध्यापकों और पूरे स्कूल के लिए आतंक का पर्याय बन जाते हैं| उन्हें स्कूल से लगाव अपनी तरह का रहता है, उसकी प्रतिष्ठा से उन्हें कोई संबंध नहीं रहता|

आकर्षक अनुराधा रॉय के आशिक छात्र हैं रघु (निखिल भगत), जिनका नित्य का दायित्व है घर से स्कूल और स्कूल से घर जाती अनुराधा का पीछा करना, कभी बाज़ार जाती अनुराधा के साथ जबरदस्ती चल देना और स्कूल में कॉरिडोर में आती जाती अनुराधा को देखते रहना| पढने लिखने से रघु का संबंध है नहीं|

ऐसे स्कूल में एक ऐसा युवा आ जाए चंद महीनों के लिए अंतरिम खेल अध्यापक बन कर, जिसे अपने व्यावसायिक जीवन में सुखद भविष्य के आगाज़ का इन्तजार है तो स्कूल में सत्ता जमाये दादा लोगों और उसें टकराव होना ही है और अगर इस टकराव की भट्टी में इंधन पड़ता रहे दादा लड़कों द्वारा यह देखकर कि उनके बॉस की निगाहें जिस युवा अध्यापिका अनुराधा पर हर समय टिकी रहती हैं वह इस नए अंतरिम खेल अध्यापक संग अपने जीवन की खुशी देख रही है तो स्कूल में उठने वाले शोलों की तपिश परदे से दर्शक तक आ ही पहुँचती है|

युवा अध्यापक कैसे इन दादा लड़कों के अहं को चोट पहुंचकर, कठिन समय में उनकी रक्षा करके उनके ह्रदय परिवर्तन करके उनके स्कूल की प्रतिष्ठा को उनकी भी प्रतिष्ठा का सवाल बना कर जब अपने स्कूल को फ़ुटबाल टूर्नामेंट में अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी स्कूल को मैदान में पल पल कांटे की टक्कर देता है तब दर्शक के खून में वैसा ही थ्रिल दौड़ता है जैसा विश्व कप के किसी मैच को देखकर|

स्कूल के अंतिम वर्ष और खेल के संगम पर यह अत्यंत रोचक फ़िल्म है|

राज किरण” अभिनेता हैं पर वे एक चरित्र बन कर ही परदे पर छाये रहते हैं| खेल अध्यापक के मनोभावों को जिस कुशलता से वे प्रस्तुत करते हैं उससे न केवल उनसे प्रभावित होता है दर्शक बल्कि इस बात को भी मान लेता है कहीं न कहीं कि जीवन में जब जो काम सामने आ जाए उसे पूर्ण निष्ठा से पूरा करो|

दीप्ति नवल एक आकर्षक उपस्थिति हैं परदे पर जो खेल अध्यापक के वर्तमान पर छाकर, उसे उसके भूतकाल को भुलाकर आगे के अच्छे भविष्य के निर्माण के लिए तैयार करती रहती है| राज किरण-दीप्ति नवल के साथ के हरेक दृश्य से रोमांस की विभिन्न कलाएं झलकती हैं|

विद्रोही दादा टाइप लड़के की भूमिका में निखिल भगत से आँखें हटाने में प्रयास करना पड़ता है दर्शक को| उसकी स्क्रीन प्रेजेंस यहाँ जानदार है| थोड़े ही अरसे बाद श्याम बेनेगल की त्रिकाल में वे फिर शानदार थे| बहुत साल बाद वे इम्तियाज अली की तमाशा फ़िल्म में दिखाई देते हैं| परदे पर इतनी प्नभावशाली उपस्थिति वाले युवा अभिनेता को ज्यादा मौके क्यों नहीं मिले यह समझ से परे है|

स्कूल के प्रिंसिपल की भूमिका में राम गोपाल बजाज और प्रतिद्वंदी स्कूल के खेल अध्यापक की भूमिका में शफी इनामदार अपनी शक्तिशाली उपस्थिति से आकर्षित करते हैं|

गुलज़ार के लिखे 5 गीतों को वनराज भाटिया ने आकर्षक धुनों से सजा कर उन्हें येसुदास, आशा भोसले, भूपिंदर, शैलेन्द्र सिंह, और उदित नारायण की विविधता बाहरी गायिकी प्रदान की जिससे फ़िल्म देखते हुए गीत अच्छे लगते हैं और सुनने में येसुदास का गाया गीत “एक सुबह एक मोड़ पर” इस फ़िल्म की प्रसिद्धि से एकाकार हो चुका है और फ़िल्म और गीत एक दूसरे के पर्यायवाची जैसे पूरक बन चुके हैं|

ऐसी युवा फ़िल्म कुछ अरसे बाद पुनः पुनः देखते रहने वाली फ़िल्म होती है| इस छोटे से बजट की फ़िल्म को देखना एक अनुभव है|

…[राकेश]


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