दुःख ऐसा भाव है मनुष्य के जीवन में कि इसमें कुछ कहावतें एकदम सटीक बैठती हैं
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
जाके पाँव न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई
किसी दूसरे पर जब दुःख का साया पड़ता है तो उसे सांत्वना देने के लिए शास्त्रोक्तियाँ व्यक्ति कह सकता है, हो सकता है इतनी संवेदना भी उसके अन्दर हो कि दूसरे के दुःख से दुखी हो जाए लेकिन तब भी स्वंय दुःख भोगना दुःख के एक अलग ही स्तर को देखना होता है|
कुछ प्रोफेशन होने को बहुत कठिन होते हैं क्योंकि वहां विशेषज्ञ का नित मनुष्य के दुःख से वास्ता पड़ता है, जैसे चिकित्सक का व्यवसाय है| डॉक्टर कहने को मानव सेवा के व्यवसाय में है लेकिन अपवाद को छोड़ दिया जाए तो डॉक्टर मरीज और उसके परिवार वालों के दुःख दर्द से अप्रभावित हो जाते हैं| मनुष्य की अंतिम क्रिया में संलग्न लोग यांत्रिक तरीके से इस कार्य को करते रहते हैं क्योंकि वे रोज़ ही किसी न किसी की मृत्यु देखते हैं|
लेकिन इन व्यवसायों से जुड़े व्यक्ति भी दुःख से थर्रा जाते हैं जब उन्हें अपने नजदीकी से अंतिम वियोग सहना पड़ता है तब डॉक्टर को बिलकुल भी याद नहीं आता कि किसी मरीज की मृत्यु हो जाने पर वह सांत्वना के कैसे बोल मृतक के परिवार से कहता है| अब उस पर वास्तविक दुःख का हमला हुआ है तो वह उस दुःख के सामने निस्तेज हुआ खड़ा होकर उसके वार को सहन कर रहा है|
ऐसा ही अंतिम क्रिया करने वाले का भी है, निजी दुःख ही उन्हें भी एक प्रोफेशनल से अलग हटा कर सामान्य मनुष्य बना देता है|
फ़िल्म – ऐ ज़िंदगी, में रेवती (रेवती) ऐसे लोगों की काउंसलिंग करती है जिनका कोई नजदीकी मेडिकल की भाषा में ब्रेन डेड घोषित किया जा चुका है, वह इस दुःख से पीड़ित लोगों को उन विकट दुःख की घड़ियों में इस बात के लिए तैयार करती है कि वे ब्रेन डेड घोषित किये जा चुके अपने प्रियजन के अंग दान देने की स्वीकृति दे दें जिससे गंभीर बीमारियों से ग्रसित लगभग आधा दर्जन लोग जीवनदान पा सकें| किसी को उसके गुर्दे, किसी को लीवर, किसी को हृदय, किसी को आँखें मिल सकती हैं|
सिद्धांत में यह कितना भलाई का काम लगता है! और सभी को लगेगा कि ऐसा करना ही चाहिए जिससे बहुत से लोगों की जानें बचाई जा सकें| लेकिन ऐसे पंथ भी हैं जिनके यहाँ अंग दान करना स्वीकृत ही नहीं है, हालांकि अंगदान लेने में वे सबसे आगे खड़े रहते हैं| लेना उनके यहाँ स्वीकृत है, अंगदान स्वीकृत नहीं है| तो ऐसी दुहरी नीति भी मानव में प्रचलित पंथों में देखी जाती है|
इस नैतिक अनैतिक विवाद से परे, ब्रेन डैड घोषित किये जा चुके मनुष्य के नजदीकी परिवार वालों का दुःख सहज ही समझा जा सकता है| आधुनिक काल में उन्हें लगता है जब चिकित्सा विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है तो उनके सामने अस्पताल में बेड पर लेता उनका प्रियजन जो उन्हें अभी पूरी तरह से मृत दिखाई नहीं देता, मर कैसे सकता है? वह कोमा में तो है नहीं, वेंटिलेटर की सहायता से उसे कुछ समय जीवित जैसा माना जा सकता है, इससे परिवार वालों में आशा बंधी रहती है|
और ऐसे कठिन घड़ियों में रेवती का काम सघन दुःख से पीड़ित लोगों को यह समझाने का है कि उनका प्रियजन असल में मर चुका है, उसका मस्तिष्क निष्क्रिय हो चुका है और उसके अंगदान करवाकर वे बहुत बड़ा मानवीय कार्य करेंगे और उनका प्रियजन पांच छः लोगों के माध्यम से जीवन जियेगा|
रेवती उन सबसे यह भी कहते एही कि वह उनका दुःख समझ सकती है| कई मर्तबा उसके आंसू भी निकल आते हैं, लेकिन क्या यह सच है? पूरा सच है?
नहीं है! क्योंकि जीवन रेवती को दिखाता है कि वास्तविक दुःख क्या होता है? दुःख के नग्न रूप को सामने देख रेवती के सैद्धांतिक विचार धुंआ बन जाते हैं|
अंगदान के महत्वपूर्ण विषय पर सच्ची घटनाओं पर आधारित यह फ़िल्म है| फ़िल्म अपना सन्देश तो पहुंचा देती है| अभिनेत्री रेवती अपने चरित्र में सौ प्रतिशत सटीक चयन लगती हैं| उनके चेहरे पर एक मुस्कान, एक मृदुल मातृत्व का भाव रहता है जो उन्हें इस भूमिका में प्रभावशाली बनाता है लेकिन उनका साथ अभिनय के उनके जैसे उच्च स्तर पर देने के लिए अन्य अभिनेतागण उनकी तरह सक्षम नहीं दिखाई देते|
इस फ़िल्म में रेवती के साथ किसी ऐसे बड़े सितारे के साथ भी बनाया जा सकता था, जो नायक के चरित्र के विभिन्न रंगों को प्रभावशाली ढंग से अभिनीत भी कर पाता और इस विषय को ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक लेकर भी जाता| सत्यजित दुबे, अपने प्रयास के बावजूद रेवती के स्तर तक नहीं उठ पाते, और उनकी भूमिका में उनके मेकअप मैन का योगदान ज्यादा लगता है| अन्य अभिनेताओं का भी साधारण सा ही प्रयास दिखाई देता है|
हो सकता है निर्देशक अनिर्बान के सामने इस फ़िल्म को बनाना इतनी मुश्किलों से भरा रहा हो कि इसे बना पाना ही अपने आप में एक उपलब्धि रहा हो| लेकिन एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय पर एक औसत फ़िल्म बन कर रह जाना सिनेमाई दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही|
….[राकेश]
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