आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आई,
किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ (~ रघुवीर सहाय)
सिनेमा में भोले चरित्रों को सामान्यतः सामान्य इंसान न दिखाकर उनके भोले या सीधेपन को किसी न किसी किस्म की मानसिक व्याधि का परिणाम दिखाया जाता है| हॉलीवुड में Rain Man हो या हिंदी सिनेमा में गज़ब, ईश्वर, मैं ऐसा ही हूँ, युवराज, और माई नेम इज़ खान, आदि इत्यादि किसी भी फ़िल्म को देखें उनके मुख्य चरित्र का सादापन, सीधापन, और भोलापन उनका सहज मानवीय गुण न होकर किसी मानसिक कमी का परिणाम जताया जाता है| इस नाते उनके द्वारा व्यक्त किये गए प्रेम को भी बच्चों जैसा मासूम मन और दिखाया जाता है|
मुश्किल से कोई ऐसे फ़िल्म मिलेगी जहां चरित्र एकदम सामान्य हों, परिपक्व हों और उनके अन्दर निश्छल प्रेम वास कर रहा हो|
मनुष्यता के बारे में लोगों के विचार इस कदर बिगड़ चुके हैं कि 2006 में सूरज बडजात्या की फ़िल्म – विवाह, प्रदर्शित हुयी तो अपवाद को छोड़ दें तो लगभग सारे ही फ़िल्म आलोचक फ़िल्म से इसलिए नाराज़ दिखाई दिए कि फ़िल्म के चरित्र जरुरत से ज्यादा अच्छे हैं (उन्हें सीमा बिस्वास का चरित्र ऐसी दृष्टि से दिखाई नहीं दिया)| उन्होंने फ़िल्म के भले चरित्रों का उपहास किया| फ़िल्म जबरदस्त हिट रही तो उनके सामने खिसयाने के सिवाय कोई रास्ता न बचा था, तो उन्होंने दर्शकों के फ़िल्मी टेस्ट पर सवाल खड़े किये| हाल में कुछ दक्षिण भारतीय फिल्मों की अखिल भारतीय सफलता से वे चकित होकर वे पुनः ऐसा कर रहे हैं|
दर्शक अच्छे और लुभा सकने वाले सिनेमा को पहचान ही लेते हैं और ऐसा होना असंभव सा है कि नियमित सिने-प्रेमियों में से कोई ऐसे दर्शक भी निकल जाएँ जिन्हें इतने बेहतरीन गुणों से भरी यह फ़िल्म (#Meiyazhagan) पसंद न आये| यह सौ प्रतिशत दर्शकों को लुभावने वाली फ़िल्म है|
यह संवेदनशील चरित्रों से भरी फ़िल्म है| फ़िल्म का नायक, लगभग 24 घंटों के लिए घर से बाहर जाना चाहता है तो जिन पक्षियों (तोते और कबूतर) को दाना खिलाता है, उनसे सहज रूप में बात करते हुए एक तरह से उनसे उन्हें एक दिवस के लिए छोड़कर जाने की अनुमति मांगता है| फ़िल्म का दूसरा नायक, अपने घर के बाहर के बाग़ बगीचे में रहने वाले नाग की वहां उपस्थिति को सहज रूप में इस तरह से स्वीकारता है कि वह तो उसके वहां रहने से पहले से ही वहां रहते आया है तो यह उसका भी क्षेत्र है| वह आते जाते अगर नाग के दर्शन हो जाएँ तो उसका अभिवादन करके ही आगे जाता है|
बचपन बिना अपवाद के सभी का जादुई होता है| भले उसमें लाखों दुःख क्यों न भरे हों पर रहस्य के स्तर पर वह जादुई ही होता है| बचपन में मन मानस पर पड़ने वाले सभी असर अलग रूप के होते हैं| बचपन का देखा और भोगा हुआ सभी कुछ मासूम दृष्टि के माध्यम से छनकर मानस पर अंकित होता है| दृष्टि ही अलग होती है बचपन की|
बच्चे श्वेत वस्त्र पहन कर बिना कुछ महसूस किये हुए कोयले के ढेर पर घंटों खेल सकते हैं| किसी से प्रभावित होकर उससे रिश्ता महसूस करते हैं तो उस बंधन से बंधे हुए सारी उम्र महसूस कर सकते हैं, भले जिससे बंधन बंधा है वह व्यक्ति उनके जीवन से चला गया हो पर उनके लिए वह जीवन का अंग चूंकि बचपन में बना था अतः वह सारी उम्र साथ यात्रा करता है|
बचपन में आनंदित कर देने वाले क्षणों की स्मृति कभी मिटती नहीं| नई सीखी साइकिल की कारीगरी दिखाने के लिए बारिश से सड़क पर जमा पानी को फुर्र से पानी उड़ाते हुए पार कर जाने की छवि अंकित हो जाती है तो भले बड़े होकर उस काम को करने में उतना आनंद न आये लेकिन इस काम से जुडी बचपन के आनंद की छवि के रंग धूमिल नहीं पड़ते|
फ़िल्म में एक ऐसा ही व्यक्ति – मियाडगन ( कार्ती) है जिसकी भावनाएं बचपन में अपने से कुछ साल बड़े लड़के अरुलमोझी (अरविन्द स्वामी) से जुड़ जाती हैं और उसके बाद लगभग दो दशक के बाद वे पुनः मिलते हैं| इन बरसों में अरुल तो सब कुछ भूल चुका है लेकिन मियाडगन के लिए उनका आपसी रिश्ता वही बचपन वाला है| उसे यह आभास भी नहीं होता कि अरुल उसे पहचानता ही नहीं है अब| अरुल के लिए यह असहज कर देने वाली स्थिति है कि एक अनजान आदमी उससे नजदीकी दर्शाने की कोशिश कर रहा है और वह उसे न पहचान पा रहा है न उसका नाम जानता है|
फ़िल्म मियाडगन की भावनाओं के स्तर पर अरुल के भी लौट आने की कथा है| मियाडगन का निश्छल प्रेम अरुल को भावनात्मक रूप से हिलाकर रख देता है| वह कई तरह के झूठ बोलकर उससे पीछा छुटाना चाहता है लेकिन जब वह देखता है कि जिसे वह अनजान समझ रहा है वह तो उसे बेहद आदर सम्मान के साथ अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाकर जीवन व्यतीत कर रहा है, तो उसका अस्तित्व हिल जाता है|
आपसी रिश्तों की गहराई, गरिमा और ऊष्मा को बेहद सहज ढंग से फ़िल्म स्थापित कर देती है| और दर्शक का मानवीय संबंधों में विश्वास गहरा कर देती है|
ऐसी फ़िल्म किसी भी काल में किसी भी भाषा में बन सकती है| पुराने दौर में हिन्दी सिनेमा में बिमल रॉय और हृषिकेश मुकर्जी अपने काल में ऐसी फ़िल्म बनाते तो वह कालजयी बन जाती| किशोर कुमार की युवावस्था में मियाझागन की भूमिका उनके लिए बहुत ही उचित रहती, पचास के दशक में जब “चलती का नाम गाड़ी” तब किशोर कुमार और अशोक कुमार के लिए यह बेहद शानदार विषय होता| या गोविंदा की युवावस्था में उनके लिए भी यह बहुत अच्छे भूमिका थी|
अरविंद स्वामी और कार्ती ने शानदार अभिनय से फ़िल्म की आत्मा को संजो कर रखा है|
96 के बाद निर्देशक सी प्रेम कुमार की यह एक और बेहतरीन फ़िल्म है|
…[राकेश]
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